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सारावली: Saravali (With Hindi Translation)

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Item Code: HAA001
Publisher: MOTILAL BANARSIDASS PUBLISHERS PVT. LTD.
Author: Dr. Murlidhar Chaturvedi
Language: Sanskrit Text with Hindi Translation
Edition: 2013
ISBN: 9788120821279
Pages: 495
Cover: Paperback
weigh of the books : 480 gms
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 480 gm
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Book Description

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सारावली

 

वेदाके में ज्योतिषशास्त्र सर्वश्रेष्ठ शास्त्र है इस शास्त्र के बल पर ही जगत् का शुभाशुभ ज्ञात हो सकता है इस शास्त्र के मुख्य तीन भाग हैं- . सिद्धान्त, ? संहिता, होरा ये तीनों भाग महर्षियों द्वारा प्रणीत होने के कारण ही जीवन में होने वाली घटनाओं का सत्य परिचय देने में पूर्ण समर्थ होते हैं इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं है सिद्धान्त, संहिता इन दोनों के लक्षण तत्तद् गन्थों में उपलब्ध हैं

 

प्रस्तुत ' सारावली ' में होरा या जातक का विवेचन किया गया है इस विषय पर वराहमिहिर ने बृहज्जातक का निर्माण किया था किन्तु उसमें विषयों का विभाजन संक्षेप में मिलता है इसके उपरान्त कल्याणवर्मा की यह सारावली ही दूसरा गन्ध है जिसमें जातक के जीवन से सम्बद्ध सभी प्रकार के सुख-दुःख, अच्छा-बुरा आदि का विस्तृत विवरण सम्यक् प्रकार से विवेचित हुआ है इस एकमात्र ग्रन्थ के विवेकपूर्वक अध्ययन से जातक के सम्पूर्ण जीवन का वास्तविक फलादेश कहा जा सकता है यवनजातक आदि गन्धों का सार भी इसमें संगृहीत है इस महत्ता के कारण ही यह ग्रन्थ प्राय: सभी विश्वविद्यालयों में ज्योतिष-पाठ्यग्रन्थों में निर्धारित है

 

मूल ग्रन्थ संस्कृत में होने से सामान्य जन उसका उपयोग नहीं कर पाते थे अत: सर्वप्रथम हिन्दी में अनुवाद के साथ प्रस्तुत किया गया है अपनी प्रामाणिकता एवं प्राचीनता की दृष्टि से यह मथ अद्भुत एवं अनूठा है

 

द्वितीय संस्करण की भूमिका

 

आज मुझे परम प्रमोद का अनुभव इसलिये हो रहा है कि प्रस्तुत सारावली ग्रन्थ, का प्रथम संस्करण इतने स्वल्प काल में ही समाप्त हो गया इससे इस ग्रन्य की उपयोगिता एवं महत्व आँका जा सकता है कि फलित ज्योतिष विद्यानुरागियों ने संस्कृत विद्या के समुद्धारक प्रकाशक महोदय को शीघ्र ही द्वितीय संस्करण सुलभ कराने को प्रेरित किया है

 

वैसे यह ग्रन्थ सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्व विद्यालय वाराणसी तथा राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान की आचार्य परीक्षा में निर्धारित है और फलित ज्योतिष जगत में आचार्य वराह मिहिर के अनन्तर इसी ग्रन्थ की उपलब्धि होती है

 

उक्त ग्रन्थ में प्रतिपादित है कि पराशरादि मुनियों द्वारा विस्तार पूर्वक लिखे गये प्राचीन ग्रन्थों को छोड़ कर मनुष्य प्रणीत ग्रन्थों में प्रथम वराह मिहिर ने संक्षेप में फलित ग्रन्थ का अर्थात् होरातन्त्र का निर्माण किया किन्तु उस होरातन्त्र से दशवर्ग, राज- योग और आयुर्दाय से दशादिको का विषय विभाग स्पष्ट नहीं किया जा सकता इसलिये विस्तृत ग्रन्थों से सारहीन वस्तुओं का त्याग करके सारमात्र विषयों का इसमें ग्रन्थकार ने समावेश किया है ऐसा इस ग्रन्थ से मालूम होता है जैसे-

सकलमसारं त्यक्त्वा तेभ्य: सार समुद्ध्रियते

 

इतिहास दृष्टि से मैंने उक्त ग्रन्थकार का परिचय प्रथम संस्करण की भूमिका में ही लिख दिया है मेरे व्याख्यान के समय मुद्रित दो (निर्णयसागर वाराणसी) स्थानों से इसका प्रकाशन हो चुका था तीसरा हस्तलिखित ग्रन्थ मैंने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्व विद्यालय के सरस्वती भवन से प्राप्त करके हिन्दी में व्याख्या की है वाराणसी से मुद्रित संस्करण मे तो यत्र तत्र ग्रन्थ के पद्यों को छोड्कर अपनी बुद्धि द्वारा निर्मित श्लोकों का समावेश किया गया है इस विषय का ज्ञान प्राय: अध्ययन अध्यापन में जुटे हुए मनीषियों को है जैसे तृतीय अध्याय में १७ वें पद्य से प्रतीत होता है कि वाराणसी के संस्करण में यह भिन्न रीति से प्राप्त होता है

 

मैंने निर्णयसागर से प्रकाशित वि० वि० की मातृका का सहारा लेकर इसकी व्याख्या की थी किन्तु प्रथम संस्करण में ज्योतिष विद्या स्नेही पाठकों को यह जानकारी दे सका कि मातृका से मैंने किन-किन पद्यों का इसमें नवीन समावेश किया है अर्थात् उक्त प्रकाशनों से अतिरिक्त तथा मातृका में अनुपलब्ध कितने श्लोक हैं इस विषयवस्तु का कथन इस संस्करण में भूमिका देखने पर ही पाठकों को हृदयङ्गम हो जाय, इसलिये इसमें उन विषयवस्तुओं का देना अनुचित होगा

जैसे- अ० श्लोक में 'भूरि विकल्पनानाम्' के स्थान पर 'ऽभूत त्रिविकल्पकानाम्' तथा 'शैलनवाष्ट' के स्थान पर 'शैलनगाष्ट' यह परिवर्तन किया है

 

अ० ११ श्लोक में 'समांशसंप्राप्तौ' की जगह पर 'स्वमंशकं प्राप्तौ'

 

अ० २१ वें श्लो० का पाठान्तर वि० वि० की मातृका में जो उपलब्ध हुआ है उसका भी समावेश हिन्दी टीका के बाद किया है तथा इसके आगे प्रकाशित ग्रन्थों के अतिरिक्त जो हस्तलेख ग्रन्थ में मिला है वह भी पाठान्तर के अनन्तर समाविष्ट करके व्याख्या की है यह अधिक वाला पद्य बृहज्जातक के 'लग्नेन्दू नृनिरीक्षितौ समणौ' इत्यादि पद्य के अनुरूप है किन्तु बृह० अ० १४ श्लो की भट्टोत्पली टीका में सारावली के नाम से उद्धृत है फिर भी प्रकाशित ग्रन्थों में इसका अभाव है उत्पल टीका में इसका जो पाठ प्राप्त होता है वह भी यथा स्थान पर दे दिया है इसी आठवीं अध्याय के ४४-४५ संख्यक पद्य मातृका में नहीं प्राप्त होते हैं। तथा ५० वे श्लोक का उत्पल टीका में जो पाठान्तर है वह भी समाविष्ट है ६१ वाँ पद्य भट्टोत्पली में जो प्राप्त हुआ है वही मूल में देकर प्रकाशित वाला भी उसी स्थान पर दे दिया है वीं अध्याय के चौथे श्लोक में जो मातृका में पाठ है वही भट्टोत्पली में है इसी अध्याय के ३३ वें पद्य के अनन्तर एक अधिक श्लोक की उपलब्धि होती है एवं ४३ वें का भी भट्टोत्पली में भिन्न पाठान्तर है १० वी अध्याय के १३ वें १४ वें पद्यों के आगे भी एक पद्य मातृका में अधिक प्राप्त होता है

 

वि० वि० की मातृका में ११ वें अध्याय के ११-१७ तक श्लोक अनुपलब्ध हैं तथा ११ वें पद्य के स्थान पर जो पद्य था उसका समावेश १८ वें में किया है यह १८ वाँ प्रकाशित ग्रन्थों में नहीं मिलता है

 

१२ दी'' अध्याय के ८।१३।१४। पद्यों का मातृका में अभाव है इसी प्रकार जो भी पाठान्तर मुझे प्राप्त हुए है उनका समावेश तत्तत् स्थानों पर किया है

 

मेरी दृष्टि में इस ग्रन्थ के उद्धरण बृहज्जातक की भट्टोत्पली में, होरारत्न में तथा जातकसारदीप में प्रचुर- मात्रा में मिलते है कहीं-कहीं पर पद्यों में अधिक असमानता मिलती है उनका समावेश यहाँ कठिन है पाठकों को स्वयं देखकर उचित का उपयोग करना चाहिये

 

मैंने अपनी होरारत्न की टीका में यत्र तत्र निर्देश किया है इस ग्रन्थकार ने किन- किन ग्रन्थों की सहायता से इसका निर्माण किया है यह विषयवस्तु पाठकों को सहसा ज्ञात हो जाय इसलिये उनका समावेश हिन्दी टीका के पश्चात् इसमें किया गया है तथा इसका आश्रय किसने ग्रहण किया है, ऐसे वाक्य भी कुछ इसमें दिये गये हैं

 

इस द्वितीय संस्करण में मैंने इस ग्रन्थ के वाक्य होरारत्न नामक ग्रन्थ में कहाँ-कहाँ प्राप्त होते हैं, उनका भो टिप्पणी में निर्देश कर दिया है

 

अन्त में मैं निवेदन करता हूँ कि यदि इसमें मेरी कहीं असावधानी अज्ञान वश कोई त्रुटि अवशिष्ट हो तो विद्वान् पाठक गण उसे सुधार कर मुझे सूचित करने का कष्ट करें

 

 

 






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