आठवें दशक के दौरान लघुकथा की विधागत मान्यता के लिए कथाजगत में विभिन्न स्तरों पर जो हलचल हुई उसमें राजस्थान के सृजनधर्मियों के अवदान को विशेष रूप से रेखांकित किया जाना चाहिए। यह टिप्पणी इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि अवदान का यह सिलसिला विशेष रूप से कथा-लेखिकाओं से सम्बद्ध रहा। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि महिला कथा लेखिकाओं ने रचना, आलोचना या प्रकाशन के मोर्चों पर महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।
पुष्पलता कश्यप, अंजना 'अनिल', आभासिंह, अर्चना 'अर्ची', विभा 'रश्मि', शकुन्तला 'किरण', उषारानी माहेश्वरी, सायास लब पर आने वाले ऐसे नाम हैं जिनकी निरन्तर सक्रियता ने भूगोल क्षेत्रफल से परे लघुकथा को विशेष पहचान दी। महेन्द्रसिंह महलान के साथ अंजना 'अनिल' ने संकलनों के जरिये पूरे देश के रचनाकारों को एक मंच पर इकट्ठा कर लघुकथा की रचना-प्रक्रिया, उसके स्वरूप से परिचित कराया, वहीं शकुन्तला मित्तल 'किरण' ने लघुकथा पर सर्वप्रथम पीएच.डी. उपाधि प्राप्त कर लघुकथा से जुड़े विधागत मुद्दे को शक्ति प्रदान की। यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है कि इन लेखिकाओं में से अधिकांश चेहरे बहुत जल्दी गुमनामी में खो गये। महत्वपूर्ण यह है कि जब तक दिखे, अपनी मेधा की आभा से पूरे लघुकथा जगत को आकर्षित करते रहे। इसे संयोग ही माना जाना चाहिए कि अंजना जी के विधागत कार्यों के तेवर की गति में ब्रेक लगते न लगते राजस्थान की महिला लघुकथा लेखिकाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले 'सरला अग्रवाल' नाम से हिन्दी कथा-संसार को पत्रिकाओं के जरिये साक्षात्कार का मौका मिलने लगा। सुखद यह है कि अपने ही प्रदेश की कुछ महत्वपूर्ण लेखिकाओं की तरह सरला अग्रवाल ने भी लघुकथा की रचना-प्रक्रिया, उसके तात्विक विवेचन, अपने लघुकथा-लेखन के शुरुआती दौर तक की संपूर्ण स्थितियों का केवल अध्ययन ही नहीं किया, उस पर आलेख भी लिखे। यही वजह, उनके लेखन को कसावट या रचना को अपनी शैली-शिल्प में पहचान देने का कारण बनी।
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