रसिक अनन्य नृपति स्वामी श्री हरिदास जी की रस-सिद्ध वाणी श्री केलिमाल के प्रामाणिक-पाठ के साथ उसकी रस-रहस्य-निधि व्रजभाषा काव्य-टीका का प्रकाशन ब्रज संस्कृति शोध संस्थान से होना; हमारे लिए गौरव की बात है। इस कृति के सटीक प्रकाशन के लिए हम सुदीर्घ-काल से जितने उत्साही थे; उससे अधिक इस कृति के प्रतिपाद्य नित्यविहार को लेकर एक गम्भीर दायित्व बोध भी हमारे मन में निरन्तर बना रहा। क्योंकि; हम जानते थे कि नित्यविहार पर केन्द्रित यह रस-कृति वृन्दावनीय रसोपासना के साधकों की प्राण-प्रिय रही है। अतः ऐसी निगूढ़ कृति के भाव जगत् का आख्यान निश्चित रूप से कतिपय असाधारण संयोगों से ही सम्भव था।
श्री स्वामी हरिदास जी और श्री बिहारी जी महाराज की अचिन्त्य- अहैतुकी कृपा से मार्च, 2014 में संस्थान द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी के क्रम में ब्रजभाषा-साहित्य के ख्याति प्राप्त अध्येता और रसोपासना के अधिकारी विद्वान डॉ० कृष्णचन्द्र गोस्वामी 'विभास' से न केवल हमारा परिचय हुआ अपितुः उनसे निकटता भी बनी। आगे चलकर इसी संयोग में से उनके साथ श्री केलिमाल सम्बन्धी अनेक जिज्ञासाओं पर चर्चा का सिलसिला प्रारम्भ हुआ। इन चर्चाओंने श्री केलिमाल के अनेक गूढ़-पक्षों के लिए कितने ही नवीन गवाक्ष मेरे समक्ष उद्घाटित किये।
डॉ० गोस्वामी केवल कृष्ण-भक्ति साहित्य के विद्वान भर ही नहीं हैं। गोस्वामी कान्तरसिक जी जैसे रस-मर्मज्ञ की सन्निधि में स्वामी हरिदास जी की रसोपासना के अन्तरंग को आत्मसात् करने का सौभाग्य भी उन्हें प्राप्त हुआ है। अतः एक दिन हमने श्री केलिमाल की गद्य-टीका लिखे जाने सम्बन्धी अपनी पुरातन इच्छा उनके समक्ष व्यक्त की। जिसे उन्होंने यह कहकर टाल दिया कि 'नित्यविहार' जैसे सूक्ष्म विषय के रस रहस्य का जिस रूप में उद्घाटन काव्योपकरणों के द्वारा सम्भव है; गद्य उसके लिए समर्थ नहीं है। और अन्ततः श्री केलिमाल की पद्य-बद्ध टीका किये जाने के लिए उनकी सहमति हमें प्राप्त हुई; जिसका परिणाम इस 'रस-रहस्य-निधि' के रूप में आप सबके सामने है। श्री केलिमाल के साथ-साथ उन्होंने स्वामी हरिदास जी के सिद्धान्त के पदों की टीका भी 'सिद्धान्त-सार' के नाम से कर, सम्पूर्ण हरिदासी-वाणी के अवगाहन के पथ को सुगम करने का कार्य किया है। जिसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं।
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