प्राक्कथन
प्राय: बीस वर्ष से कुछ अधिक समय बीत चुका है । मैं तब काशी के सिगरा- स्थित अपने मकान में, गुरूपदिष्ट किसी विशेष साधन-कर्म में कुछ दिन के लिए नियुक्त था । उसे महानिशा काल में करना होता था । तब परम श्रद्धेय स्वामी स्व० प्रेमानन्द जी महाराज कुछ दिन के लिए काशी में विश्राम कर रहे थे । वे लक्ष्मीकुण्ड पर एक भक्त के गृहोद्यान में रहते थे । वे वास्तव में ही एक असाधारण महापुरुष थे, इसे उनके भक्त-जनों के अतिरिक्त भी सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति-प्रत्यक्ष अनुभव करते थे । सौभाग्यवशत: उसके कुछ दिन पहले से ही उनके साथ मेरा विशेष परिचय व घनिष्ठता संघटित हुई थी । वे दया करके कभी-कभी मेरे पास आते थे, और मैं भी कभी-कभी उनके पास जाता था । न जाने क्यों किसी अचिन्त्य कारण-सूत्र से वे मुझे बहुत ही स्नेह करते थे । उनमें कभी कोई साम्प्रदायिकता व सङ्कीर्ण भाव नहीं देखने में आया । अवश्य ही, यद्यपि सभी भावों को लेकर वे स्वच्छन्द खेल पाते थे, तथापि अपने अध्यात्म जीवन में उन्होंने श्रीकृष्ण- भाव को ही विशेष रूप से अपना आदर्श माना था ।
प्रसत्रत: एक दिन कुछ समय के लिए उनके अनुरोध से श्रीकृष्णतत्त्व के विषय में उनके साथ मेरी कुछ विचार-चर्चा हुई । इस आलोचना के फलस्वरूप उनके चित्त में गहन व व्यापक जिज्ञासा का उदय हुआ, जिसकी निवृत्ति एक दिन की आलोचना से सम्भव न थी । उन्होने प्रस्ताव किया कि मुझे असुविधा न हो तो यथासम्भव प्रतिदिन, उनके नित्य मनन के लिए कुछ-कुछ श्रीकृष्ण-प्रसङ्ग मैं लिखवा दिया करूँ । मेरे सानन्द सम्मति प्रकट करने पर उनके निर्देश के अनुसार उनका एक प्रिय सेवक व भक्त श्रीमान् सदानन्द ब्रह्मचारी, प्रतिदिन, मेरे महानिशा की क्रिया आरम्भ करने से पहले रात्रि के नौ-दस बजे के लगभग मेरे पास उपस्थित हो जाता था । मैं उसे कुछ-कुछ प्रसङ्ग लिखवा देता था । समय की सुविधा के अनुसार किसी दिन कम किसी दिन कुछ अधिक समय लिखने का काम चलता ।अवश्य ही कदाचित्( किसी दिन प्रतिकबन्धक होने पर वह कुछ समय के लिए नहीं भी हो पाता था ।
सदानन्द धीर, स्थिर व सुलेखक है । इसके अतिरिक्त उसकी सुनकर लिखने की क्षमता भी असाधारण है । इससे मुझे बड़ी सुविधा रही । मैं एकासन से बैठकर एकाग्र चित्त से जो कुछ बोलता जाता था, वह उसे बिना रुके अत्यन्त हुत गति से लिखता जाता था । प्रकरण समाप्त होने पर वह उसे पढ़कर सुनाता था । किसी स्थान पर संशोधन या परिवर्तन आवश्यक प्रतीत होने पर वह किया जाता था ।स्वामीजी प्रतिदिन उसे प्राप्त करके एक पृथक् पुस्तिका में अपने हाथ से उसकी एक प्रतिलिपि अपने व्यवहार के लिए बनाते थे । इस प्रतिलिपि को वे नियम से श्रद्धा-सहित पढ़ते व उस पर विशेष रूप से मनन करते थे । वस्तुत: ये प्रसङ्ग स्वामी जी केIntensive study (गहन अध्ययन) के विषय थे । श्रद्धेय स्वामी जी अपनी उन पुस्तिकाओं को अपनी साधना की सङ्गी जैसा समझते थे एवं उन्हें एक गेरुए झोले में बहुत सँभाल कर रखते थेस्वामी जी इन पुस्तिकाओं को कितनी बार और कितनी चिन्ताशीलता के साथ पढ़ते थे यह उसमें बनाये हुई कई प्रकार के रंगीन पेन्सिल-चिह्नों द्वारा तथा Marginal notes(पार्श्व-टिप्पणी) के सङ्कलन की चेष्टा से प्रतीत होता है । इस प्रसङ्ग: के लिखे जाने का समय १९४४ के अम्बर से १९४५ के अगस्त तक समझा जा सकता है । यह ऐतिहासिक अथवा सांस्कृतिक दृष्टिकोण से नहीं लिखा गया । वे श्रीकृष्ण को स्वयं भगवान् मानते थे, एवं मैं भी वैसा ही समझता हूँ । यही श्रीकृष्ण का परम भाव है । किन्तु मनुष्य-देह धारण करके वे किसी समय पृथ्वी पर प्रकट हुए थे-यह ऐतिहासिक आलोचना का विषय है । किसी-किसी वैष्णव आगम- कथ में ऐसा लिखा है कि पुरुषोत्तम की तीन प्रकार की लीला है-पारमार्थिक, प्रातिभासिक व व्यावहारिक । पारमार्थिक लीला होती है निरन्तर अक्षर ब्रह्म के भीतर, प्रातिभासिक लीला का क्षेत्र भक्त के हृदय में है, और व्यावहारिक लीला होती है हमारे इसी धरा- धाम में । उनकी यह पार्थिव लीला ऐतिहासिक आलोचना का विषय है, किन्तु स्मरण रखना होगा कि तीनों लीलाओं में परस्पर सम्बन्ध नहीं है, ऐसी बात नहीं ।
स्वयं भगवान्का मनन करने की अनेक प्रणालियाँ व दिशायें हैं । प्राचीन व मध्य युग के भागवत-जनों ने उनका परिचय दिया है । इस प्रसङ्ग में अति सामान्य कुछ-एक सूत्रों का ही अवलम्बन किया गया है, एवं समझने के लिए विभिन्न दिशाओं से दृष्टि डालने की चेष्टा की गयी है ।
यह प्रसङ्ग किसी विशेष वैष्णव सम्प्रदाय के दृष्टिकोण से लिखित न होने पर भी किसी-किसी वैष्णव-साधक-सम्प्रदाय के भाव इसमें अवश्य हैं । यहाँ तक कि अवैष्णव दृष्टिकोण भी इसके अपरिचित नहीं है । जिनके व्यक्तिगत मनन के लिए इसका सडू:लन हुआ था वे किसी विशेष सम्प्रदाय के अवलम्बी न होने पर भी सभी सम्प्रदायों के दृष्टिकोणों को समान श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे । कहना न होगा, उन्हीं के भाव से भावित होकर मुझे लिखना पड़ा था ।
ये प्रसङ्ग जब लिखे गये तब यह कल्पना मुझे व स्वामी जी को भी बिल्कुल नहीं थी कि बाद में कभी ये प्रकाशित होंगे । स्वामी जी जब तक रहे तब तक ये पुस्तिकायें उनकी साधना की नित्यसङ्गी रूप से साथ-साथ रहती थीं । सन् १९५९ में उनका देहावसान होने के पश्चात् ये उनकी भक्तमण्डली द्वारा यत्न-पूर्वक सुरक्षित कर दी गयी 1 किन्तु सुरक्षित होने पर भी इनका भविष्य अनिश्चित समझ कर स्वामी जी के भक्त व मेरे अपार स्नेहभाजन स्वर्गीय डॉक्टर शशिभूषण दासगुप्त ने तब पुस्तिकायें मुझे सौंप देने की इच्छा प्रकट की । समय की स्थिति के अनुसार कुछ दिन बाद मैंने भी इसे उचित समझा । तदनुसार श्रीमान् सदानन्द इन पुस्तिकाओं सहित स्वामीजी का गेरुआ झोला मुझे दे गये । सदानन्द के अपने हाथ के लिखे कागज भी मेरे पास थे । एक वर्ष से कुछ अधिक समय तक ये मेरे पास आकर भी पड़े ही रहे । इन प्रसङ्गों के प्रकाशन के लिए कभी-कभी मेरी इच्छा होती थी । ऐसा प्रतीत होता था कि रुचि-विशेष होने पर किसी-किसी को ये अच्छे लग सकते हैं, किन्तु इच्छा होने पर भी वह कार्यान्वित नहीं हुई । इसी बीच श्रीमान् सदानन्द ने स्वामीजी केयज्ञ नामक ग्रन्थ के प्रकाशन के पश्चात् मेरे पास इच्छा प्रकट की कि श्रीकृष्ण- प्रसङ्ग प्रकाशित हो जाय तो अच्छा हो, एवं यह भी कहा कि वे स्वयं ही प्रकाशन का भार लेंगे, एवं ग्रन्थ मेरे ही पास काशी में मुद्रित होगा । ये लेख स्वामीजी के प्रिय थे, अत: उनके भक्तों द्वारा भी ये सम्भवतः सादर गृहीत होंगे । मैंने भी सोचा कि इतने दिनों के परिश्रम के फल का उपेक्षित होकर नष्ट हो जाने की अपेक्षा प्रकाशित होना ही युक्तिसड़इत है । इसीलिए प्रकाशन के लिए न लिखे गये होने पर भी, इनके प्रकाशनार्थ मैंने अनुमति दे दी ।
कहना न होगा कि यह ग्रन्थ स्वत: पूर्ण होने पर भी एक प्रकार से असम्पूर्ण है । क्योंकि किसी विषय पर विशद आलोचना बाद में की जायेगी-कहा होने पर भी, करने का अवसर नहीं आया है । एवं ऐसा लगता है कि किसी-किसी विषय में किसी- किसी स्थल पर थोड़ी पुनरुक्ति भी हुई है । अवश्य ही वह विषय के स्पष्टीकरण के लिए की गई होने से क्षन्तव्य है ।
बँगला में मुद्रण आरम्भ होते ही मैंने अशेष स्नेहभाजन सुश्री प्रेमलता शर्मा से इसका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत करने के विषय में अनुरोध किया । उन्होंने सहर्ष इस कार्य को अपनी देख-रेख में अपनी अनुजा कु० ऊर्मिला शर्मा द्वारा आरम्भ करा दिया और मूल बँगला-प्रकाशन के पाँच मास के भीतर ही हिन्दी अनुवाद सम्पन्न हो गया । मूल में शब्दानुक्रमणिका नहीं दी जा सकी थी, हिन्दी अनुवाद के साथ इसके भी समावेश से अनुवाद की उपयोगिता में अवश्य वृद्धि हुई है । अनुवाद, मुद्रण और प्रकाशन की निरीक्षिका सुश्री प्रेमलता शर्मा और अनुवादिका कु० ऊर्मिला शर्मा मेरे हार्दिक आशीर्वाद की पात्री हैं ।
निवेदन
सदास्मरणीय परमपूज्यपाद बाबूजी बाबा स्वनामधन्य श्रीश्री गोपीनाथ कविराज जी का अजल स्नेह हम दोनों बहनों के जीवन की अनुपम निधि रहा है । इया बहिनजी (प्रेमलता शर्मा जी) की स्नेहमयी छाया में मुझे भी परम पूज्यपाद के दर्शन-सत्सङ्ग- अनुकम्पा का पीयूष-प्रसाद इस जीवन के १९ - २०वें वर्ष ( १९६३ - ६४) से लेकर १९७६ (पूज्यपाद के तिरोधान) पर्यन्त सतत मिलता रहा, वही जीवन-दृष्टि का अञ्जन बना, इस से अन्तःकरण धन्यता से भरा है ।
इसी बीच १९६६ में पूज्यपाद के विशेष अनुग्रह से उनके अतीव विशिष्ट लेखनश्रीकृष्ण-प्रसङ्ग का हिन्दी रूपान्तर प्रभु ने मेरे द्वारा करवा लिया; १९६७ में इस जीवन के २३वें जन्मदिन पर पूज्यपाद के स्नेहाशीर्वचन इस प्रकाशन-सन्दर्भ में पाकर यह जीव धन्य हुआ; यही ऊर्मिला के नाम से प्रथम प्रकाशन था, वह भी अपने आराध्य प्रभु के नाम एवं उन्हीं के स्वरूप तथा लीला का अनुभव-रसित दर्शन कराने वाले तत्सम गुरुदेव के नाम से युक्त प्रकाशन था- अत: हृदय पुलकित होना स्वाभाविक था ।
कुछ ही वर्षों बाद वह प्रथम संस्करण दुर्लभ होते हुए क्रमश: अप्राप्य हो गया । अब विश्वविद्यालय प्रकाशन के आध्यात्मिक- उत्साह से यह पुन: प्रकाशित हो रहा है, इस अवसर पर सर्वतोव्यापी परम पूज्यपाद श्री कविराज जी के स्नेहाशीष एवं मेरी मातृस्वरूपा बहनजी की, दिव्यलोक से व्यक्त होती हुई, आनन्दाभिव्यक्ति अवश्य हम सबके साथ है, यह श्रद्धा है ।
श्रीकृष्ण-विषयक सम्बन्ध- अभिधेय--प्रयोजन अर्थात् साध्य-साधन तत्त्व इस गम्भीर ग्रन्थ का प्रतिपाद्य-विषय है । यह ग्रन्थ आठ प्रकरणों में विभक्त है ।
अद्वय तत्त्व के प्रकाश-स्वरूप-ब्रह्म, परमात्मा और भगवत्ता के आविर्भाव में श्रीकृष्ण का सर्वेाच्च स्थान-यह प्रथम प्रकरण का विषय है। फिर शक्ति, धाम,एवं भाव-इन चार तत्वों के निरूपण के लिए चार प्रकरण हैं । अन्तिम तीन प्रकरणों में भावराज्य तथा लीला-रहस्य का विशद प्रतिपादन है ।
श्रीराधा-तत्त्व, सखी-तत्त्व, कुञ्ज-निकुञ्ज-लीला, रति के स्तर भेद, जीव का स्वरूप इत्यादि अनेक रहस्यों का इस में उद्घाटन किया गया है । श्रीकृष्ण के आगम- सम्मत तात्त्विक विवेचन एवं तत्सम्बन्धी साधना के जिज्ञासुओं और रसिकों के लिए यह ग्रन्थ परम उपादेय है ।
अध्यात्म साधना के इच्छुक प्रत्येक पथिक के लिए उसके अभीष्ट लक्ष्य की ओर बढ़ने की दिशा-दृष्टि-शक्ति देने वाला पाथेय श्रीश्री कविराज जी की वाणी से सहज ही मिलता रहा । अभी भी उनकी वह अक्षरकाया अध्यात्मपथिकों का श्रद्धास्पद सम्बल बनी हुई है । हम बछड़ा हों तो वह पयस्विनी कामधेनु हमारी सभी स्तरों की भूख-प्यास का क्षोभ मिटा कर प्रभु-रस से हमें आप्यायित करने को सदा प्रस्तुत है । प्रभु के नाम- धाम-लीला और जन वस्तुत: नित्य हैं, दुर्लभ है उनसे सम्पर्क साधने की चेतनागत अभीप्सा और योग्यता या पात्रता ।
श्रीकृष्ण-प्रसङ्गका लेखन क्यों, किस प्रकार, किन के लिए हुआ था-यह स्वयं पूज्यपाद के ही शब्दों में (प्रथम संस्करण के प्राक्कथन में) सुस्पष्ट व्यक्त हुआ ही है । श्रीगुरुस्थानीय अनुभवी के द्वारा, अतिविशिष्ट साधना- भूमि में स्थित अनुभविता के प्रति, दोनों के ही चैतसिक आधार-अधिकार-संस्कार एवं अभिव्यञ्जना-प्रकार के अनुरूप यह तत्त्व का यथातथ्य व्याख्यान है । हम जैसे पाठक अपनी जिज्ञासा का जहाँ- जितना समाधान इसमें से पा सकें, उतना ग्रहण करें, और जो कुछ हमारी सीमित समझ से परे रहे उसे उनके प्रति अर्पित रहने दें-जो इसे समझते हों, किसी भी प्रकार इस कथ के शब्दों को वृथा-तर्क का विषय न बनायें यह सभी से अनुरोध है ।
अतिप्रश्न(कुतर्क) अपराध होता है, इसमें उपनिषत् प्रमाण हैं । वैष्णव- सिद्धान्त-वाड्मय में भी कहा गया है-
अचिन्त्या: खलु ये भावा न ताँस्तर्केण योजयेत् ।
उसका स्मरण इस स्वानुभूत-रहस्य-ख्यापक ग्रन्थ को पढ़ते समय सतत रखना चाहिये । (पुन: ध्यान में रहे कि) यहाँ प्रतिपादित एवं व्याख्यात तत्त्व-रहस्य बाह्य खोखले तर्क-युक्तियों का विषय नहीं, अपितु अनुभवी द्वारा, अनुभवी के प्रति, अनुभवगम्य ही समग्र-सघन तत्व का व्याख्यान है, अत: जो विदग्ध जिज्ञासु साधक इस से लाभान्वित हो सकेंगे-उन्हीं के लिये पूज्यपाद ने इसे प्रकाशित होने दिया है । अनधिकार टिप्पणी के लिये यहाँ अवकाश नहीं है । निरक्षर या अर्धसाक्षर व्यक्ति के लिये जैसे वेदान्त का अद्वैतसिद्धि -ग्रन्थ, या आधुनिक भौतिक व सांख्यिकी आदि विज्ञानों के ग्रन्थ दुरूह हैं वैसे ही परमयोगी की वाणी को भी समझें । किन्तु सामान्य- बुद्धि के लिये दुरूह होना किसी भी कथ को अनुपयोगी नहीं बनाता-यह कहना न होगा । अत: इस ग्रन्थ का अध्ययन करते समय एक पथ्य-पालन आवश्यक है कि दृष्टि अर्थ के मूल-मर्म पर टिकी रहे, शब्दों के छिलकों में ही अटक कर भटके नहीं ।
इस कथ के प्रस्तुत हिन्दी अनुवाद के विषय में निवेदन है कि पहले तो बँगला भाषा में हुई अभिव्यक्ति को प्राय: अक्षुण्ण रखते हुए केवल भाषान्तरण किया गया था; बँगला में संस्कृत-तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक सह्य था, और उनकी सूक्ष्म- अर्थच्छटा ज्यों की त्यों ग्राह्य थी, किन्तु अब, वर्तमान पाठकों की दृष्टि से भाषा में कुछ सरलता लाने का प्रयास हुआ है ।
संस्कृतनिष्ठ बँगला-वाक्यों का भीतरी भाव हिन्दी में प्रकट हो पाये इसके लिये भी कहीं-कहीं मूल शब्द बदल कर निकटतम दूसरे शब्द आये हैं ।ग्रन्थ के आवरण-चित्र में त्या बहिनजी (प्रेमलताजी) की ही साङ्केतिक दृष्टि को यथावत् रखा गया है ।
कथ के इस नवीन संस्करण में रह गई हुई सभी त्रुटियों के लिये सुधी पाठकों से क्षमायाचना करती हूँ । इस संस्करण के सुरुचिर प्रकाशनार्थ सम्मान्य श्री मोदीजी (सपरिवार-सपरिजन) के प्रति अशेष आभार व्यक्त करती हूँ एवं इस अवसर पर हया बहिनजी को सविशेष स्मरण करते हुए ग्रन्थप्रणेता परम पूज्यपाद सहज-सद्गुरुदेव श्रीश्री कविराज जी के श्रीचरणों में अनन्त भावमय सश्रद्ध प्रणाम निवेदित करती हूँ ।
अनुक्रमणिका
1
अद्वयतत्त्व-ब्रह्म-परमात्मा- भगवान् जीव-जगत्-शक्ति
1-20
2
शक्ति- धाम-लीला- भाव (क)
21-43
3
शक्ति- धाम-लीला- भाव (ख)
44-63
4
शक्ति- धाम-लीला- भाव (ग)
64-82
5
शक्ति- धाम-लीला- भाव (घ)
83-103
6
भावराज्य व लीलारहस्य (क)
104-112
7
भावराज्य व लीलारहस्य (ख)
113-159
8
भावराज्य व लीलारहस्य (ग)
160-197
उपसंहार
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