प्रस्तावना
पं. राजमणि तिगुनाइत
बचपन से ही मैं पूज्य श्री स्वामी राम के बारे में कहानिया सुना करना था। उन कहानियो में प्राय पूज्य स्वामी जी की घोर तपस्या, उनकी योग सिद्धियाँ नरक भवाल सन्यासी (जो मृत्यु कै बाट फिर से जीवित हो उठे थे) से सबंधित आदि जैसी आश्चर्य भरी चर्चा हुआ करती थी। कहानियों से ऐसा लगता था कि मानो स्वामी राम कोई सचमुच का आदमी नहीं, बल्कि वे किसी कल्पना जगत में निवास करने वाले कोई प्राणी हो, या तो फिर कोई अवतारी देवी-देवता हो। वाराणसी संस्कृत विश्व विद्यालय के योग तत्र विभाग में एक धुरधर विद्वान थे, जिन्हे लोग आगमाचारी जी कह्ते थे। एक दिन आगमाचारी जी ने मुझे बनाया कि स्वामी राम बनारस के उस पार रामनगर की ओर गंगा जी के किनारे रहकर घोर तपस्या किया करते थे। उस समय उनकी उम्र बहुत छोटी थी और वे ब्रह्मचारी वेश में रहा करने थे। उन दिनों बनारस के एक जानै माने विद्वान जिनकी मृत्यु 90 वर्ष पहले ही हौ चुकी थी-हर रात स्वामी जी के लिए दूध और जलेबी लाया करते थे । आगमाचारी जी के इस बात से कौतूहल तो बहुत हुआ कितु इस कहानी में सच्चाई होगी यह मानने को मेरा मन तैयार न हुआ। आगमाचारी ने यह भी कहा कि उन दिनों स्वामी राम का नाम भोले बाबा हुआ करता था।
जब आगमाचारी जी की बताई हुई इस कहानी को मैं ने अपने पिताजी को सुनाया तो वे हस पड़े और बोले कि भोले बाबा महात्मा थे और1958 के आसपास में विध्यवासिनी के आसपास गेरूआ तालाब नामक स्थान पर अपना शरीर त्याग दिये थे। पिताजी ने यह भी बनाया कि बाबा धर्मदास की तरह भोले बाबा भी एक महान योगी थे। वे मरे नही थे बल्कि योग मार्ग से अपना शरीर त्यागे थे । जब शरीर छोडने का विचार उनके मन में आया तो अपने गुरुदेव की कुटिया के सामने ही एक गढ्ढा खोदकर बैठ गये और अपने साथी महात्माओं से कहा कि उस गढ़ढे को मिटटी से भर दे। उन महात्माओं ने उस गढ्ढे को भोले बाबा की गर्दन तक मिट्टी से भर दिया। भोले बाबा ने अपने प्राण को सिर में खींच लिया और योग शक्ति के द्वारा अपना ब्रह्म रश फोड़ कर शरीर से बाहर निकल आये। इस प्रकार जब उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया तो महात्माओं ने उस गढ़ढे को मिटटी से पूरा भरकर उसके ऊपर उनकी समाधि बना दी। गेरूआ तालाब में अभी भी भोले बाबा की समाधि बनी है। पिताजी के दुम कहानी का मेरे ऊपर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा लेकिन मुझे इस बात का गर्व अवश्य हुआ कि मेरे पिताजी को ऐसी विचित्र, रोचक और रहस्यमयी कहानिया आती हैं।
1972 का समय था। मैं जीवन के एक अज्ञान मोड़ पा खडा हुआ था । सस्कृत पाठशाला से उना मध्यमा की परीक्षा पास करके इलाहाबाद वि.वि में प्रविष्ट हुआ था । उन्हीं दिनों भाग्यवश एक महान सत के दर्शन हुए। उनका नाम था स्वामी सदानन्द । मैं प्राय, ही विश्वविद्यालय की कक्षाएँ समाज होने पर स्वामी सदानन्द महाराज के पास चला जाया करना था । ये महापुरूष कृपा करके मुझे योग की रहस्यमयी विद्याओं का उपदेश दिया करते थे। मैंने बार-बार उनसे प्रार्थना की कि वे मुझे श्री विद्या नामक योग विद्या का उपदेश दें और मुइाए अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करें। कई महीनो तक उन्होंने मेरी प्रार्थना पा कोई ध्यान नहीं दिया और एक दिन बोले कि अगर श्री विद्या का ज्ञान प्राप्त करना हो तो योगेश्वर श्री भोले बाबा की शरण में जाओ । पूज्य स्वामी सदानन्द जी महाराज के मुख से भोले बाबा के विषय में सुनकर मेरे मन में इन महापुरूष को जानने की बड़ी उत्सुकता हुई। जब मैं ने सदानन्द जी महाराज से बहुत प्रार्थना की तो वे बोले कि भोले बाबा एक दिव्य पुरूष है वे योगियो के भी योगी है। साक्षात् योगेश्वर है; भूमण्डल पर मनुष्य रूप में विचरण करने वाले ब्रहम-ऋषि है। उन्हे एकांत बहुत प्रिय है किसी भी स्थान पर ज्यादा दिन तक टिकते नहीं है । इसलिए उन्हे खोज पाना कठिन हए सबसे बड़ी बात तो यह है कि वे बहुत ही रस्यमय जीवन बिनाने है । इसलिए मिलने के बाद भी उन्हें पहचानना कठिन हो जाता है । यह सुनकर मेरा दिल उत्सुकता और उल्लास से भर गया । और तीव्र इच्छा जगी कि मैं इन महापुरूष से कितनी जल्दी मिलूँ । किंतु मेरे पिताजी के अनुसार भोले बाबा तो बहुत पहले ही या चुके थे । मैं किसकी बान का विश्वास करूँ- पिताजी की बात का या स्वामी सदानन्द जी की बात का । कई वर्ष बीत गये । जब-जब स्वामी सदानन्द जी महाराज से बात होती तो ऐसा लगता कि भोले बाबा अभी भी जीवित हैं किंतु मेरे पिताजी कहते कि वे तो महा समाधि ले चुके हैं । चार साल में मैं एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करके इलाहाबाद विश्व विद्यालय के सरकन विभाग में शोध कार्य करने लगा । मेरे शोध प्रबंध के निदेशक डा. महावीर प्रसाद लखेड़ा थे । एक दिन बातचीत के प्रसंग में डॉ.लखेड़ा ने बताया कि स्वामी राम अब अमेंरिका में रहते है, और उन्होंने वहां पर हिमालयन इस्टीट्यूट नामक सस्था की स्थापना की है । लखेड़ा जी की बात को सुन कर मेरे मन में भाव आया कि ये स्वामी राम और कोई महात्मा होंगे। भला कोई सच्चा महात्मा विदेश क्यों जायेगा । सच्चाई तो ये थी कि इतने दिनों में मैंने स्वामी राम के विषय में इतनी सारी कहानियाँ सुरन ली थी कि मेरे मन में भ्रांति और संशय के अतिरिक्त स्वामी राम के प्रति किसी भी श्रद्धा और विश्वास के लिये जगह ही नहीं रह गयी थी। स्वामी राम के जन्म मृत्यु,तपस्या और योग शक्ति के विषय में जो कुछ भी सुना उसके बारे में सोच-सोच कर कभी-कभी ऐसा लगता कि स्वामी राम कोई महात्मा कै वेश में लोगों को भ्रमित करने वाले मायावी हैं । फिर कभी ऐसा लगता था कि पुराणो में वर्णित कोई सनातन ऋषि हैं। दोनों ही परिस्थितियों में भला मुझे क्या मिलेगा । एक दिन तो स्वामी सदानन्द जी के आश्रम में लगे-पीपल के पेड़ के नीचे बैठे-बैठे श्रद्धा और अविश्वास के अन्तर्द्वन्द में ऐसा उलझ गया कि मैं यह निश्चित ही नहीं कर पा रहा था कि जिन्हें लोग भोले बाबा भी कहते हैं-खोजूँ या भूल जाऊँ। किंतु मेरे इस सोचने से क्या होता। होता वही है जो ईश्वर चाहता है । ईश्वर की इच्छा के आगे मेरे सशय, और अविश्वास की क्या कीमत। दैवी शक्ति ने अनायास ही मुझे खींच कर पूज्य स्वामी राम के चरणों में लाकर पटक ही दिया । यह था 1978 वर्ष और स्थान भी क्या! दिल्ली का फाइव स्टार होटल अकबर-जहाँ पर किसी महान संत से मिलने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता । यह मिलन भी ऐसा वैसा नहीं बल्कि इसी मिलन से उस रहस्यमय यात्रा की शुरूआत होती है जिस की समाप्ति अनन्त और अज्ञात में । ईश्वर की कैसी लीला कि जब मिला भी तो घटे लग गये यह जानने में कि ये महापुरूष हैं कौन । मैं दो घंटे तक इन महापुरूष से बाते करता रहा और ये महापुरूष मुझसे बातचीत करके वैसे ही आनन्द लेते रहे जैसे प्रेम, कारूण्य,ज्ञान और वात्सल्य से भरे हुए माना-पिता अपने बटनों के साथ बातचीत करके खुश हुआ करते है । जिनके विषय में इतने दिनों से विरोधाभास से भरी आध्यात्मिक कहानियाँ सुना करता था आज मेरे मामने मूर्तिमान होकर बैठे थे किंतु मैं उन्हें उस रूप में जान न सका । आप कल्पना कर सकते है कि एकाएक उनको पह्चानने पर मेरी क्या हालत हुई होगी। वह एक वर्णनातीन स्थिति थी । मेरा हृदय उन कुछ क्षणों के लिए आनन्द और लज्जा के समुद्र में डूब सा गया । अभी कुछ क्षण पहले खुब चैन से उनके माथ गये लगा रहा था और अब मेरी बोलती बंद हो गयी । मैं किंकर्त्तव्य विमूढ सा हो गया। समइा नहीं पा रहा था कि करूँ नो क्या करूँ, कहूँ तो क्या कहूँ। उनके पैरों को देखूँ कि मुख को, पूरे शरीर को देखूँ या अपनी आँखें बद कर लूँ । फिर ऐसा लगा जैसे मेरा पूरा शरीर एक नेत्र के रूप में बदल गया हो और क्षण भर में ही मैंने उन्हें ऊपर से नीचे भीतर-बाहर, हर जगह और हर तरफ से देखा । उनकी बड़ी-बड़ी आँखों से मानों करूणा का समुद्र उमड़ रहा था। मिलन के उस प्रथम क्षण में जो प्यार मिला उसका अभी तक कभी अनुभव भी न हुआ था। निश्चित ही पूज्य स्वामी जी यह समझ लिये कि मेरे पैरो तले की धरती खिसक गयी है। और मैं आनन्द और आश्चर्य के अपार बोझ से अपनी ही चित्त की भूमि में धसा जा रहा हूँ। उस समय न तो मेरे अंदर शक्ति थी और न ही इच्छा कि मैं उनसे कुछ बातचीत करूँ। मैं मन वाणी और शरीर से परे किसी महान शून्य की तरह शून्य सा लटक रहा था। इसी समय स्वामी जी बोल पड़े- 'मैं' तुम्हारी बहुत दिनों से प्रतीक्षा कर रहा हूँ। अमेरिका कब आ रहे हो। तुम्हें बहुत काम करना है।' फिर ऐसा लगा जैसे स्वयं स्वामी जी भी एक दो मिनट के लिए किसी शून्य में जाका लीन हो गये हो। वहाँ से लौटे तो सांसारिक विषयों पर बात करने लगे। थोड़ी देर बाद बोले-अच्छा अब जाओ, कल फिर आना।
विषय-सूची
1
स्तावना - पं० राजमणि तिगुनाइत
ix
अध्याय-1
2
बाल्यकाल
अध्याय-2
3
हिमालय के सिद्ध संत- बंगाली बाबा
41
अध्याय-3
4
सन्तों के संग निवास
79
5
ही स्वामी राम के बारे में
133
6
लेखक के बारे में
135
7
प्रकाशक के बारे में
137
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