अमृतके घूँट
हमारा सुधार क्यों नहीं होता? हम क्यों मोहनिद्रामें पड़े रहते हैं? वास्तवमें हमें अपनी त्रुटियों और कमजोरियोंका ज्ञान ही नहीं होता! जो व्यक्ति किसी भी प्रकारकी नैतिक भूल करता है, उस अल्पज्ञको यह ज्ञान नहीं होता कि वह गलत राहपर है । अन्धकारमें वह गलत राहपर आगे बढ़ता ही चला जाता है । अन्तमें किसी कठोर शिलासे टकरानेपर उसे अपनी गलती या दुर्बलताका ज्ञान होता है और तब ज्ञानके चक्षु एकाएक खुल जाते हैं । यहींसे उन्नतिका प्रभात प्रारम्भ हो जाता है ।
जो अपनी दुर्बलताका दर्शन करता है, उसके लिये सच्चा पश्चात्ताप कर उसे दूर करनेकी इच्छासे सतत उद्योग प्रारम्भ करता है, उसका आधा काम तो बन गया ।
दुर्बलताके दर्शन, सच्ची आत्मग्लानि, फिर उस दुर्बलताको हटानेकी साधनायही हमारी उन्नतिके तत्त्व हैं । जिसका मन गलत राहसे हटकर सन्मार्गपर आरूढ़ हो जाता है उसीको आध्यात्मिक सिद्धियाँ मिलनी प्रारम्भ हो जाती हैं । हमारे वेदोंमें ऐसे अनेक अमूल्य ज्ञानकण बिखरे पड़े हैं, जिनमें मनकी कल्याणकारी मार्गपर चलनेके लिये प्रार्थनाएँ की गयी हैं
भद्रं नो अपि वातय मन: । (ऋ० १० । २० । १)
अर्थात् हे परमात्मन्! मेरे मनको कल्याणकी ओर ले चलो ।
असंतापं मे हृदयमु्र्वी । (अथर्व० १६ । ३ । ६)
हे परमात्मन्! मेरा हृदय सन्तापसे हीन होता चले अर्थात् अपनी दुर्बलताके दर्शन कर मेरे मनमें जो ग्लानि उत्पन्न हो, वह सत्कर्म और शुभ विचारके द्वारा दूर होते चले।
वि नो राये दुरोवृधि । (ऋ० ९ । ४५ । ३)
हे प्रभो! ऐश्वर्यके लिये हमारे आन्तरिक मनके द्वार खोल दो । (हमें निकृष्ट विचारोंसे मुक्ति दो और दैवी एकता, विपुलता, आत्मकल्याणके विचारोंसे परिपूर्ण कर दो ।)
स्वामी दयानन्दजीने ' सत्यार्थप्रकाश ' में एक स्थानपर दुर्बलताके दर्शन कर उसे निवारणके सम्बन्धमें कहा है सज्जनों और उन्नति करनेवालोंकी यह रीति है कि वे गुणोंको ग्रहणकर दोषोंका परित्याग सदा करते रहते हैं ।
'शील हि शरणं सौम्य: । (अश्वघोष)
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