पुस्तक के बारे में
वैशाली की नगरवधू, वयं रक्षाम: सोमनाथ धर्मपुत्र और सोना और खून जैसे हिन्दी के क्लासिक उपन्यासों के लेखक आचार्य चतुरसेन की यह पुस्तक वैवाहिक जीवन में यौन-संबंधों के विषय पर केंद्रित है । विवाह के बाद दंपति दो अलग-अलग रिश्तों में बंध जाते हैं; एक रिश्ता पति-पत्नी का जो पारिवारिक और सामाजिक संबंधों पर आधारित है, और दूसरा रिश्ता स्त्री-पुरुष का जिसका आधार है यौन संबंध। वैवाहिक जीवन में कभी-कभी यौन संबंधी समस्याएं खड़ी हो जाती हैं जिनको यदि समय से न सुलझाया जाए तो वे एक नासूर बन जाती हैं जिससे शादी के मधुर मिलन में निराशा और दूरी आ जाती है। यदि आप अपने वैवाहिक जीवन में यौन सुख का भरपूर आनंद चाहते हैं या फिर किसी यौन-संबंधी समस्या से परेशान हैं तो यह पुस्तक आपके लिए मार्गदर्शक हो सकती है।
आचार्य चतुरसेन शास्त्री साहित्यिक लेखक होने के साथ एक आयुर्वेद चिकित्सक भी थे। जैसे-जैसे उनकी पुस्तकों की लोकप्रियता बढ़ती गई, उन्होंने अपना पूरा समय लेखन में देना शुरू किया, पर आयुर्वेद में उनकी रुचि बराबर बनी रही। यह पुस्तक उनकी आयुर्वेदिक चिकित्सा के दौरान मरीजों की चिकित्सा के अनुभवों पर आधारित है।
लेखक के बारे में
आचार्य चतुरसेन शास्त्री का जन्म 26 अगस्त 1891 में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के पास चंदोख नामक गांव में हुआ था । सिकंदराबाद में स्कूल की पढ़ाई खत्म करने के बाद उन्होंने संस्कृत कालेज, जयपुर में दाखिला लिया और वहीं उन्होंने 1915 में आयुर्वेद में 'आयुर्वेदाचार्य' और संस्कृत में 'शास्त्री' की उपाधि प्राप्त की । आयुर्वेदाचार्य की एक अन्य उपाधि उन्होंने आयुर्वेद विद्यापीठ से भी प्राप्त की । फिर 1917 में लाहौर में डी.ए.वी. कॉलेज में आयुर्वेद के वरिष्ठ प्रोफेसर बने । उसके बाद वे दिल्ली में बस गए और आयुर्वेद चिकित्सा की अपनी डिस्पेंसरी खोली । 1918 में उनकी पहली पुस्तक हृदय की परख प्रकाशित हुई और उसके बाद पुस्तकें लिखने का सिलसिला बराबर चलता रहा । अपने जीवन में उन्होंने अनेक ऐतिहासिक और सामाजिक उपन्यास, कहानियों की रचना करने के साथ आयुर्वेद पर आधारित स्वास्थ्य और यौन संबंधी कई पुस्तकें लिखीं । 2 फरवरी, 1960 में 68 वर्ष की उम्र में बहुविध प्रतिभा के धनी लेखक का देहांत हो गया, लेकिन उनकी रचनाएं आज भी पाठकों में बहुत लोकप्रिय हैं ।
भमिका
यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मुद्दे की बात है कि दाम्पत्य जीवन के दो बन्धन हैं । एक पति-पली का, दूसरा स्त्री और पुरुष का । दोनों सम्बन्धों का पृथक् अस्तित्व है, पृथक् सीमाएँ हैं, पृथक् विज्ञान हैं, पृथक् आकांक्षाएँ और माँगें हैं । आज के सभ्य युग का दिन-दिन गम्भीर होता हुआ प्रश्न दाम्पत्य जीवन की अशान्ति है । विवाह होने के तुरन्त बाद ही पति-पत्नी में 'अनबन' रहने लगती है और कभी-कभी वह घातक परिणाम लाती है तथा आजीवन लम्बी खिंच जाती है। समाजशास्त्रियों ने इस प्रश्न पर विचार किया है और बहुत ग्रन्थ लिखे हैं । पर, पति-पत्नी और स्त्री-पुरुष ये दोनों पृथक् तत्व हैं, इन बातों पर प्राय: विचार नहीं किया गया है ।
यह सच है कि विवाह हो जाने के बाद स्त्री-पुरुष के बीच पति-पत्नी का सम्बन्ध हो जाता है और यह सम्बन्ध सामाजिक है । विवाह होते ही मनुष्य समाज का एक अनिवार्य अंग बन जाता है । उसे घर-बार, सामान और गृहस्थी की अनेक वस्तुओं को जुटाना पड़ता है । पति-पत्नी मिल-जुलकर गृहस्थी की गाड़ी चलाते हैं ।
मनुष्य अमीर भी है और गरीब भी । गरीब पति के साथ रहकर पत्नी अपने को उसी परिस्थिति के अनुकूल बना लेती है और उतने ही में अपनी गृहस्थी घसीट ले जाती है, जितना पति कमाता है। मैंने इस सम्बन्ध में पत्नियों के असीम धैर्य और सहिष्णुता को देखा है । वे आप ठठा-बासी, रूखा-सूखा खाती, उपवास करती, कष्ट भोगती और पति व बच्चों को अच्छा खिलाती-पिलाती तथा सेवा करती हैं । बहुत कम स्त्रियाँ घर-गृहस्थी के अभावों के कारण पति से लड़ती और असन्तुष्ट रहती हैं । सदैव ही इस मामले में उनका धैर्य और सहनशीलता प्रशंसनीय रहती है ।
परन्तु स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध सामाजिक नहीं-भौतिक है । भिन्न लिंगी होने के कारण दोनों को दोनों की भूख है, दोनों-दोनों के लिए पूरक हैं । दोनों को दोनों की भूख तृप्त करनी होती है । इसमें एक यदि दूसरे की भूख को तृप्त करने में असफल या असमर्थ रहता है-तो स्त्री चाहे जितनी असीम धैर्य वाली होगी, पति को क्षमा नहीं कर सकती और एक असह्य अनबन । का इससे जन्म होता है । साथ ही घातक रोगों की उत्पत्ति भी । इन कारणों से पुरुष की अपेक्षा स्त्री ही अधिक रोगों का शिकार होती है, क्योंकि वह लज्जा और शील के बोझ से दबी हुई अपनी भूख की पीड़ा को जहाँ तक सम्भव होता है-सहती है । जब नहीं सही जाती तो रोग-शोक-क्षोभ, और दारुण दुखदाई 'अनबन' और कलह में परिणत हो जाती है । इस पुस्तक में कुछ पत्र और उनका समाधान है । निस्संदेह मुझे भाषा खोलकर लिखनी पड़ी है । मोटी दृष्टि से ऐसी भाषा को कुछ लोग अश्लील कह सकते हैं, परन्तु वही-जिन्हें इस विषय के दुखदाई अनुभव नहीं हैं ।
भुक्त भोगियों के लिए मेरी यह पुस्तक बहुत राहत पहुँचावेगी । क्योंकि इस पुस्तक में जिन संकेतों पर चर्चा की गई है-उनसे करोड़ों मनुष्यों के सुख-दुःख का सम्बन्ध है । आज के युग का सभ्य तरुण लम्पट नहीं रहा है । वह अपनी पत्नी में स्थायी प्रेम की चाहना करता है । वास्तव में प्रेम एक शाश्वत और जीवन से भी अधिक स्थायी है । मैंने खूब बारीकी से देखा है कि परस्पर प्रेम रखने की उत्सुकता रखने वाले पति-पत्नियों के अन्तःकरण में एक छिपी हुई व्याकुल भावना होती है और वे कभी-कभी यह अनुभव करते है-कि कोई ऐसी बात है; जो अन्त में हमारे प्रेम और आकर्षण को नष्ट कर डालेगी । मैं जानता हूँ कि प्रकृति का कूर और अटल नियम अवश्य अपना काम करेगा, और यदि ऐसे कोई कारण हैं तो पति-पली का प्रेम जरूर घट जाएगा; फिर वे चाहे जैसे धनी-मानी-सम्पन्न और स्वस्थ ही क्यों न हों । पति-पत्नी के कलह और लड़ाई-झगड़े की बातों को लेकर साहित्यकार कथा-कहानियाँ लिखते हैं, पर वे कामशास्त्री नहीं हैं, इससे वे मुद्दे की बात नहीं जानते । वे इस झगड़े की तह में केवल सामाजिक कारण ही देखते और उन्हीं का चित्र खींचते हैं, जो वास्तव में मूलत:असत्य है ।
साधारणतया बहुत लोगों की ऐसी धारणा है कि पति-पत्नी में प्रेमऔर आकर्षण सदा एक-सा नहीं बना रह सकता । एक दिन उसका नष्ट होना अनिवार्य ही है । परन्तु ऐसा समझना और कहना 'विवान की मर्यादा को नष्ट करना है ।
वास्तव में यह सत्य नहीं है । मेरा यह कहना है कि यदि काम तत्व को ठीक-ठीक शरीर में पूर्णायु तक मर्यादित रखा जाय तो जीवन एक सफल और सुखी परिणाम में समाप्त होगा ।
'सम्भोग' वह महत्त्वपूर्ण एवं प्रकृत क्रिया है, जो स्त्रीत्व और पुरुषत्व की पारम्परिक भूख को तृप्त करती है । सच पूछा जाय तो यही एक प्रधान कार्य है; जिसके लिए स्त्री-पुरुष का जोड़ा मिलाया जाता है । मैं यहाँ हिन्दु विवाह पद्धति पर विचार नहीं करूँगा, जिसका उद्देश्य पति की सम्पत्ति का उत्तराधिकारी पुत्र उत्पन्न करना है । यह विवाह नहीं-एक घोर कुरीति है, जिसने स्त्री के सम्पूर्ण अधिकारों और प्राप्तव्यों का अपहरण कर लिया है । परन्तु मैं तो केवल 'सम्भोग' ही को महत्व देता हूँ । और इस पुस्तक में उसी की महिमा का वैज्ञानिक बखान है ।
आम तौर पर लोगों की यह धारणा है-कि सम्भोग के बाद पुरुष कुछ कमजोर हो जाता है, और कुछ समय के लिए वह स्त्री से मुँह फेर लेता है, उसे स्त्री से घृणा हो जाती है तथा उसकी यह विरक्ति उस समय तक कायम रहती है; जब तक कि दुबारा कामोत्तेजना की आग उसमें न धधक उठे ।
दूसरे शब्दों में यदि इस विचार को वैज्ञानिक रूप दिया जाय तो ऐसा कहना पड़ेगा कि स्त्री-पुरुष के सम्भोग के बाद पुरुष की उत्सुकता और जीवनी शक्ति घट जाती है तथा उसकी कुछ न कुछ शक्ति इस काम में खर्च हो जाती है । जिसकी पूर्ति उसे बाहर से करनी पड़ती है। इसका अभिप्राय यह हुआ, कि सम्भोग क्रिया से मनुष्य की शक्ति बढ़ती नहीं-प्रत्युत अस्थायी रूप से घटती है। भले ही उसने यह सम्भोग प्रचण्ड कामवासना से प्रेरित होकर या शरीर की स्वाभाविक भूख से तड़पकर ही क्यों न किया हो । परन्तु मैं सब लोगों की इस बात को अस्वीकार करता हूँ। मेरा स्थिर रूप से कहना यह है-कि बड़ी उम्र तक भी यदि स्त्री-पुरुषों में स्वाभाविक सम्भोग शक्ति कायम रहे तो वे दोनों चाहे जिस भी विषम सामाजिक अवस्था में, अखण्ड रूप से अक्षय सुख और अनुराग के गहरे रस का ऐसा परमानन्द-ज्यों-ज्यों उनकी उम्र बढ़ती जाएगी, प्राप्त करते जाएँगे-जिसकी समता संसार के किसी सुख और आनन्द से नहीं की जा सकती ।
जो लोग स्त्रियों को घर के काम-काज करने वाली दासी या बच्चे पैदा करने वाली मशीन समझते हैं, वे मेरी इस महामूल्यवान् बात को नहीं समझेंगे । पर मैं यह फिर कहना चाहता हूँ कि सम्भोग-विधि को जो ठीक-ठीक जानता है, उसे वह उदासी और विरक्ति-जिसका आभास लाखों-करोड़ों रति-रहस्य के सच्चे ज्ञान से रहित पुरुष अनुभव करते हैं-कदापि अनुभव न करेगा। और मेरे इस कथन की सत्यता उसे प्रमाणित हो जाएगी, कि विरति और उदासी सच्चे सम्भोग का परिणाम नहीं । सच्चे सम्भोग का परिणाम आनन्द और स्फूर्ति है । उपर्युक्त भ्रामक धारणा ने पति-पत्नी के सम्बन्धों का बहुत कुछ आनन्द छीन लिया है और स्त्रियों का महत्व बहुत कम हो गया है । वे केवल पुरुष की सामाजिक साझीदार बन गई हैं, और उनका जीवन आनन्द से परिपूर्ण नहीं है, गृहस्थी और बाल-बच्चों का बोझा ढोने वाली गदही के समान हो गया है । मैं सारे संसार के पशु-पक्षी, कीट-पतंगों की नर-मादाओं को जब आनन्द से प्रेम-विलास करते और स्त्रियों को आँसुओं से गीली आँखों सिसकते हुए घर के काम-धन्धों में पिसते देखता हूँ तो मैं मनुष्य के दुर्भाग्य पर, उसकी मूर्खता पर, हाय करके रह जाता हूँ । क्योंकि उसने अपनी जोड़ी का आनन्दमय जीवन अपने ही लिए भार रूप बना लिया है ।
मैं आप से फिर कहता हूँ कि स्थिर गृहस्थ जीवन, अक्षय और स्थायी प्रेम, गहरी आन्तरिक एकता तथा आनन्द का पारस्परिक समान आदान-प्रदान इससे बढ़ कर संसार में दूसरी कोई न्यामत नहीं है । सात बादशाहत भी इसके सामने हेच हैं ।
हमारे जीवन की सफलता शरीर-मन और आत्मा, इन तीन वस्तुओं की तृप्ति पर निर्भर है । इनके प्रयोजनों और आवश्यकताओं की राह पेचीदी अवश्य है, परन्तु अत्यन्त व्यवस्थित है ।
इस छोटी-सी पुस्तक में मैंने आपस में उलझी हुई उन तीनों चीजों की गुत्थियाँ सुलझाने की चेष्टा की है । अब यह आप का काम है कि आप इससे जितना चाहें लाभ उठाएँ ।
स्त्री और पुरुषों की जननेन्द्रियों में साम्य हुए बिना स्त्री और पुरुष
के प्रेम का चरम उत्कर्ष उस प्रचण्ड हर्षोन्माद को उत्पन्न नहीं कर सकता,जिसमेंप्रेम को अखण्ड करने की सामर्थ्य है । जहाँ स्त्री-पुरुष में शारीरिक साम्य नहीं है; वहाँ सदैव कठिनाइयों के बढ़ जाने का भय ही भय है । कामशास्त्रियों ने इन बातों पर विचार किया है । स्त्री-पुरुषों को उचित है कि ऐसी अवस्था होने पर उस विषय में ध्यान दें तथा यथोचित रीतियों से इस वैषम्य को दूर करें, और सम्भोग-क्रिया को सुखकर और फलदायक बनाएँ ।
मैं यहाँ एक अत्यन्त गम्भीर तथ्य की ओर आप का ध्यान आकर्षित करता हूँ । वह यह-कि यह युग जिसमें हम जीवित हैं-संसार के इतिहास में पहला युग है, जब कि मानव-समाज सामूहिक रूप से ऐसे मानसिक धरातल पर पहुँचा है जिसने वह परिस्थिति उत्पन्न कर दी है-जिसमें स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों में प्रेम-परिणय की चरम प्रधानता हो गई है । यदि आप सामन्तकालीन बातों पर विचार करें, जहाँ कन्यायें बलात् हरण की जाती थीं तथा जहाँ प्राय: शत्रु-कन्या को प्रेयसी का पद उसके माता-पिता, परिजनों को मार कर दिया जाता था । यदि हम विचार करें तो देख सकते हैं कि आज जिन कारणों से पति-पली में प्रेम स्थापित होता है, वे उन कारणों से बिल्कुल भिन्न हैं, जो प्राचीन काल में प्रचलित थे । इस युग में स्त्री-पुरुष के बीच जब तक गहरी एकता और प्रेम के भाव-जिनमें सम्मान भी सम्मिलित है, नहीं हो जाते-तब तक स्त्री-पुरुष का वह सम्बन्ध सुखकर नहीं हो सकता ।
शारीरिक, मानसिक और आत्मिक, तीनों ही मूलाधारों पर स्त्री-पुरुषों का संयोग सम्बन्ध होना चाहिए । 'सम्भोग' में तो पशु और मनुष्य समान ही हैं । उसमें जब स्त्री-पुरुष दोनों का प्रगाढ़ प्रेम गहरी एकता उत्पन्न कर देता है, तब सम्भोग गौण और प्रेम मुख्य भूमिका बन जाता है तथा जीवन में अनिर्वचनीय आनन्द और तृप्ति प्रदान करता है । परन्तु यह प्रेम साधारण नहीं । शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक सम्पूर्ण चेतनाओं से ओत-प्रोत होना चाहिए ।
इसके लिए हमें पुरानी परम्परा के विचार बदलने पड़ेंगे । स्त्रियाँ हमारी आश्रित, कमजोर और असहाय हैं, वे हमारी सम्पत्ति हैं, हम उनके स्वामी हैं, कर्ता-धर्ता हैं, पूज्य परमेश्वर हैं, पतिदेव हैं, ये सारे पुराने विचार न केवल हमें ही त्याग देने चाहिए, अपितु हमें स्त्रियों के मस्तिष्क में से भी दूर कर देने चाहिए । तभी दोनों में परस्पर सम्मानपूर्वक गहरी एकता-जो प्रगाढ़ और सच्चे प्रेम की पराकाष्ठा है-उत्पन्न होगी ।यह बात आपको माननी होगी कि विवाह-सम्बन्ध दूसरे सब सम्बन्धों से निराला है । लोग समझते हैं कि विवाह करके हम गृहस्थी बसाते हैं । इसका आदर्श साधारणतया लोग इन अर्थों में लगाते हैं, कि दम्पति आनन्दपूर्वक मिलकर अपनी घर-गृहस्थी की व्यवस्था चलाएँ । कहानी-नाटक-उपन्यासकार भी प्राय: यही अपना ध्येय रखते हैं । एक सफल और सुखी-सुव्यवस्थित गृहस्थ को वे आदर्श मानते हैं । पर मेरा कहना यह है, कि पति-पत्नी के सम्बन्ध में घर का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । विवाह का मूलाधार 'हृदय' है, 'घर' नहीं । संक्षेप में, वैवाहिक जीवन में स्थायी सुख और उत्तम स्वास्थ्य पति-पत्नी के सम सम्भोग पर निर्भर है । विषम अवस्थाओं में युक्ति और यत्न से 'समरत' बनाया जाना ही चाहिए । जहाँ सम्भोग की क्रिया ठीक-ठीक है, वहाँ दम्पति के बीच दूसरे मामलों में चाहे जैसा भी मतभेद हो, चाहे दुनिया भर की हर बात पर उनके विचार एक दूसरे से न मिलते हों, फिर भी वहाँ खीझ, चिड़चिड़ापन और क्रोध के दर्शन नहीं होंगे । न उनमें एक दूसरे से अलग होने के विचार ही उत्पन्न होंगे । वे एक दूसरे के मतभेदों का मजाक उड़ाने का आनन्द प्राप्त करेंगे ।
परन्तु यदि उनमें परस्पर सम्भोग क्रिया ठीक-ठीक नहीं चलती है या सम्भोग के आधारभूत नियमों को वे नहीं जानते हैं, तो फिर उनके स्वभाव, आदत, विचार, चाहे जितने मिलते हों, संसार की सारी बातों में वे एक मत हों, तो भी उससे कुछ लाभ न होगा । उनके मन एक दूसरे से फट जाएँगे और एक दूसरे से दूर रहने की तीव्र लालसा उन्हें चैन न लेने देगी।
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