परम श्रद्धा-भाजन ठाकुर श्री सीतारामदास ऊँकारनाथ जी ने "श्री श्री नादलीलामृत" नामक एक उपादेय ग्रंथ उपनिषद-पुराण-तंत्रादि और विविध सम्प्रदाय के महानुभावों की संग्रहीत एवं प्रकाशित वाणी के द्वारा साधकों के कल्याणार्थ संकलन किया है। बावाजी महाराज के प्रति हमारी आन्तरिक गंभीर श्रद्धा का सन्धान पाकर उनके भक्तजनों ने इस ग्रंथ की भूमिका लिखने का भार हमारे कन्धे पर डाल दिया है। हमारी अयोग्यता के विषय को वे श्री ठाकुर की महिमा की उज्वलता के कारण भूलगए हैं। फिर भी हम उनके अनुरोधकी रक्षा का यथाशक्ति प्रयत्न करते हैं और नादतत्त्व के सम्बन्ध में अपने क्षुद्र अनुभव के आधार पर शास्त्रीय परिभाषा का अवलम्बन करते हुए किंचित् रहस्य की चर्चा भी कर रहे हैं। विषय अत्यंत गहन है। भूमिका की परिमित सीमा में उसकी सम्यक् आलोचना हो सकना संभव नहीं। तथापि ग्रंथकार की पुण्यस्मृति और श्री गुरु की स्वतः स्फूर्त अनुकम्पा हमें पद-पद पर शक्ति प्रदान करती हुई चला ले जायगी, यह विश्वास है।
आत्मस्वरूप में पुनः प्रतिष्ठित होने के लिए शास्त्र में जो जो उपाय निर्दिष्ट हुए हैं उनमें नाद-साधना अथवा नादानुसन्धान की गणना उत्कृष्ट उपायों में की जाती है। महापुरुषों ने मुक्तकण्ठ से नाद की महिमा वर्णन की है। प्राचीन काल में वाक्-योग को मुमुक्षु जनों के आश्रययोग्य और सवपिक्षासरल राजमार्ग माना जाता था। परवर्ती काल में उसी को "सुरत-शब्द-योग" के नाम से तथा वैष्णवादि सम्प्रदाय के भक्तगण ने नामकीर्तन के माहात्म्य के रूप में घोषणा करके प्रकारान्तर से मनःस्थैर्य-साधना के निमित्त एवं मूढ़ चित्त को बोध कराने के लिए नाद की परम उपयोगिता स्वीकार की है। योग और होकर तत्वरूप में प्रस्फुटित होते हैं। इनका अपना सामर्थ्य कुछ भी नहीं है, किंतु पूर्व वर्णित शुद्ध परामर्श-समूह द्वारा इनको उञ्जीवित करने पर ही ये कार्यक्षम होते हैं। उस समय ये सभी वर्ण वीर्यसम्पन्न होकर भोग और मोक्ष प्रदान करते हैं। जो पुरुष अपनी आत्मा को साक्षात्कार करने के अवसर पर देखता है कि परामर्श अथवा शक्ति के एकमात्र वही विश्राम स्थल है और उसमें ही समस्त तत्व और भुवन प्रभृति प्रतिविम्वित हो रहे हैं वे विना परिश्रम के ही निर्विकल्प भगवत-स्वरूप में समावेश कर सकते हैं। उनके लिए अन्य किसी भी साधना की आवश्यकता नहीं रहती। यहाँ तक कि विकल्प-संस्कार के कारण भावना की भी आवश्यकता नहीं रह जाती।
अन्य जो आत्माएँ अधिक निम्नकोटि की हैं उनके अधिकार और भी संकुचित होते हैं। पूर्ववत्ती स्तरों में विकल्प संस्कारों के कारण कोई क्रम नहीं रहता-वह तो क्षण भर में भी सम्पन्न हो सकता है; किन्तु निम्नस्तर में क्रम अवश्य होता है और उसी का नाम भावना है। किंतु भावना से पूर्व सद्-तर्क, सद्-आगम और सद्गुरु के उपदेश की आवश्यकता होती ही है। वर्तमान क्षेत्र में शुद्ध विकल्प द्वारा अशुद्ध विकल्प का संस्कार-कार्य किया जाता है। अनादि काल से प्रत्येक जीव के हृदय में इस प्रकार की धारणा बद्ध हो रही है कि "मैं बद्ध हू" । वही अशुद्ध विकल्प है और उसी से संसार उत्पन्न हुआ है।
भगवान की अनुग्रह-शक्ति का अधिक तीव्र मात्रा में संचार होने पर सद्-आगम प्रभृति क्रम का अवलंबन करके विकल्प शोधित होता है और परतत्व में प्रवेश लाभ होता है। किंतु परतत्व शुद्ध विकल्प का भी विषय नहीं है। शुद्ध विकल्प द्वारा अशुद्ध द्वैतवासना (भेदाभेद का ज्ञान) निवृत्त होती है। फिर भी परतत्व के प्रकाशन में यह किसी प्रकार भी कारण रूप नहीं होती। परतत्व सर्वत्र और सव रूप में होने से स्व-प्रकाशित है; अर्थात् उस पर विकल्प का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। पर शक्तिपात के अत्यंत अधिक होने पर अपने आप ही हृदय के भीतर सत्तर्क का उदय होता है। उसे साधारणतः "दैवीदीक्षा" के नाम से वर्णन किया गया है। शक्तिपात की मात्रा अपेक्षाकृत कम होने पर साक्षात् भाव से सत्तर्क का उदय नहीं होता, यह ठीक है;
किंतु आगम का आश्रय लेने पर वह अवश्य हो सकता है। आगम का निरूपण करने वाले ही गुरु हैं। आगम शंकाहीन, सजातीय विकल्पात्मक होने से ही उससे समुचित विकल्प उत्पन्न होते हैं। ये समस्त विकल्प विशुद्ध विकल्प हैं। इनका अविच्छिन्न प्रवाह ही सत्तर्क का स्वरूप है। प्रचलित भाषा में जिसे भावना कहा जाता है, वह इस सततर्क की ही धारामात्र है। जो भूतार्थ अस्फुट होने से अभूतवत् विद्यमान है, वह भी इसी के द्वारा परिस्फुट होता है। यही वस्तुतः शुद्ध-विद्या का प्रकाश एवं योग का एकमात्र अङ्ग है। यही साक्षात् योगाङ्ग है-अन्य योगाङ्ग अल्पाधिक परिमाण में व्यवधान विशिष्ट हैं।
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