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श्रीमद्भागवत-हृदय (साप्ताहिक-कथा): Srimad Bhagavat Hridya

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Item Code: NZA612
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Bhawan
Author: डॉ० रमाशकर त्रिपाठी (Dr. Ramashankar Tripathi)
Language: Sanskrit Text with Hindi Translation
Edition: 2023
ISBN: 9788189986223
Pages: 867 (8 Color Illustrations)
Cover: PAPERBACK
Other Details 10.0 inch X 7.0 inch
Weight 1.10 kg
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Book Description

ग्रन्थाभिनन्दन

 

प्रो० डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी किसी परिचय की अपेक्षा नहीं रखते । यह सुप्रसिद्ध लेखक, विशिष्ट इतिहासकार, प्रवीण समालोचक, लोकप्रिय व्याख्याकार एवं मेधावी प्रवचन-कर्ता हैं। दक्षिण के कुछ सुदूराचंल को छोड़कर समग्र भारत इनकी मेधाभरी पौराणिक कथाओं और व्याख्याओं का साक्षी है ।

डॉ० त्रिपाठी का समग्र जीवन सारस्वत साधना के लिये पूर्णत: समर्पित है। किसी चिन्तक कवि की यह उक्ति-बाधाएँ कब बाँध सकी हैं, आगे बढ़ने वाले को । विपदाएँकब मार सकी हैं, मर कर जीने वाले को इनके जीवन मे समग्र रूप से चरितार्थ होती है । समय-समय पर आई भीषण कठिनाइयाँ भी इनकी लेखनी के सतत प्रवहमान प्रवाह को अवरुद्ध न कर सकी । यह सब इनके ऊपर कृष्ण-कृपा का ही प्रभाव है, इनकी ईश्वर-साधना का ही फल है ।

"श्रीमद्भागवत-हृदय" डॉ० त्रिपाठी की जीवन-व्यापिनी सारस्वत साधना एवं प्रगाढ चिन्तन-अनुशीलन का सुपक्व मधुर फल है।श्रीमद्भागवत समाधि-भाषा में लिखा गया पुराण-रत्न है, श्री वैष्णवो का परम धन है श्री त्रिपाठी जी समाधि के महासागर मे उतर कर अमूल्य रत्नो को निकालने में सक्षम हैं । इसका प्रबलतम प्रमाण है स्वयं "श्रीमद्भागवत-हृदय" । भागवत की कथाओं के पीछे जो रहस्य छिपा हुआ है, उसे आवश्यकता के अनुसार यत्र-तत्र-सर्वत्र प्रकाशित करने का सफल प्रयास श्री त्रिपाठी जी की चमकती दमकती लेखनी ने किया है । रामचरितमानस एवं भगवती गीता के द्वारा भी भागवत के भावो को अभिव्यक्त करने का प्रयास प्रशंसनीय है । जिनके हृदय को ईर्ष्या-रूपिणी सर्पिणी ने नहीं डँसा है, ऐसे मनीषी विद्वान् अवश्य ही इस "श्रीमद्भागवत-हृदय" की मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा करेंगे ।

सुमधुर सुगठित भाषा, गम्भीर सुप्रसन्न निर्मल भाव एवं चमत्कृत करने वाले तात्पर्यार्थ से संवलित श्रीमद्भागवत किस सहृदय के हृदय को चमत्कृत नही करता, आकृष्ट नही करता? उस पर यदि प्रो० त्रिपाठी के द्वारा हृदय' मे भावों को प्रकाशित करने का सफल प्रयास किया गया हो तो कहना ही क्या है? फिरतो सुवर्ण में सुगन्ध आ गई ।

मैंने "श्रीमद्भागवत-हृदय" को आद्यन्त पढ़ा है अत: साधिकार साभिमान यह कह सकता हूँ किभागवत-हृदय' के रसज्ञ को इसे पूर्ण पड़े बिना, आहार भी अच्छा नहीं लगता "भागवत-रसज्ञानामाहारोऽपि न रोचते" । मैं सकल सुधी-वृन्द से निवेदन करता हूँ कि वे इस ग्रन्थ-रत्न को पढ़कर अपने जीवन को सफल बनावे, धन्य- धन्य करें ।

 

आत्म- निवेदन

 

 

मुझे प्रकृति के स्नेह भरे उनमुक्त चंचल आँचल की छाया में शैशव व्यतीत करने का सौभाग्य मिला । यह प्रभु का बेजोड़ वरदान था । अभी प्राइमरी की चतुर्थ क्या का छात्र था, संयोग से सुखसागर' पढ़ने का अवसर मिला । उसे पास के गाँव से मांग कर लाया था । उसके पढते ही कृष्ण' कण्ठ से लिपट गये और आज भी छोड़ाये छोडते नहीं है । इसे उनकी कृपा के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है ? धन्य है करुणा श्रीकृष्ण की!

कालान्तर में विश्व-विश्रुत काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पुराण पढ़ाने का सुअवसर सुलभ हुआ । श्रीमद्भागवत पाठय-ग्रन्थ के रूप में निर्धारित था । प्रारम्भ हुआ विविध व्याख्याओं का सङ्कलन एवं शुरू किया आलोडन उन आचार्यो के मतों का, जिनकी भागवत-सम्प्रदाय में अपनी एक छवि है । भागवत ने मन और बुद्धि को इस प्रकार वशीभूत किया कि खाते-पीते सोते-जागते, उठते-बैठते सर्वदा इसी का चिन्तन और मनन चलने लगा, नित नूतन भाव मन में आने लगे । प्राय: पूरे उत्तर भारत में, यथावसर भागवत का व्याख्यान किया, सप्ताह-कथा कही । लोगो को भागवत के नव-नवायमान भावों से अवगत कराया । लोगों ने कथा-माता की प्रशंसा के पुल बाँध दिये । धीरे-धीरे, डरते-डरते मन ने अकल्प सङ्कल्प लियाभागवत-हृदय' लिखने का, सप्ताह-कथा के गागर मे सागर भरने का । कहा जाता है-भागवत के रसज्ञों को, भागवत-चिन्तन छोड्कर भोजन भी अच्छा नहीं लगता-"भागवतरसज्ञानामाहारोऽपि न रोचते" । भागवत के आनन्द-महासागर का जिसने एक बार भी आनन्द ले लिया उसका चित्त अन्यत्र रम ही नही सकता-"भागवतरसतृप्तस्य नान्यत्र स्याक्लचिद्रति:"

"भागवत- हृदय" की पूर्णता और पूर्ण नवीनता के लिये आधुनिक महात्माओ, चिन्तकों और विद्वान् विचारकों की भागवत-व्याख्याओं को सावधानी से पढ़ा, उनके आकर्षक भावों को आत्मसात् किया, उनकी प्रभावोत्पादिनी भाषाओं को यथावसर ग्रहण किया । पश्चाद्वर्ती का पूर्ववर्ती से प्रेरणा लेना स्वाभाविक है उचित है । एतदर्थ मै उनका अधमर्ण हूँ । इस प्रकार के व्याख्याकारों मे ब्रह्मलीन पूज्य स्वामी करपात्री जी महाराज, वैकुण्ठवासी पूज्य डोंगरे जी महाराज, आराध्य अखण्डानन्द जी महाराज, कल्याण' गोरखपुर, आचार्य पण्डितप्रवर श्री राममूर्ति पौराणिक प्रमुख हैं । यह निःसंकोच स्वीकार किया जा सकता है कि "भागवत-हृदय" इन सबसे प्रभावित है । नित नव-नव भावों की कारयित्री प्रतिभा के महासागर शङ्करावतार-करपात्री जी महाराज जी का सारा विद्वत्समाज ऋणी है, आभारी है । उनके सामने सब वामन प्रतीत होते हैं । शुकावतार सन्त रामचन्द्र डोगरे जी महाराज का भागवत-रहस्य' भी भागवत के भावो के विषय में यत्र-तत्र नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है । अध्येता उनके ग्रन्थ से प्रभावित हुए बिना नही रह सकता । पूज्य अखण्डानन्द महाराज एवं आदरणीय राममूर्ति पौराणिक जी भागवत के तलस्पर्शी विद्वान् रहे हैं । एक श्रीधरी से प्रभावित हैं तो दूसरे वंशीधरी से । प्रात: स्मरणीय तुलसीदास की भांति, मधुमक्षिका की वृत्ति का आश्रय लेकर, मैने सबके सार को ग्रहण कर अपने भागवत- हृदय' को हद्य बनाया है ।

इतना सब होने पर भी यहॉ मै यह बतला देना अपना पावन कर्तव्य समझता हूँ कि-भावो के अवगाहन में, तात्पर्यों के निर्धारण मे और रूपकों के पर्यालोचन में मैने न तो अपने विवेक को किसी के हाथो गिरवी रक्खा है, न प्रशा को किसी का ऋणी बनाया है एवं न स्वतन्त्र चिन्तन-सरणि को किसी की अनुगामिनी होने दिया है । मैं साधिकार एवं साभिमान यह कह सकता हूँ कि श्रीमद्भागवत-हृदय' को प्राणवान् तथा मौलिक बनाने के लिये जिन तथ्यों की आवश्यकता होती है, वे सब मेरे हैं, अपने है और हैं अपनी निजी बुद्धि की ठोस कमाई । इसके लिये भले ही मुझे वर्षों व्यास की उपासना करनी पड़ी हो, श्री शुकदेव जी की समाराधना करनी पड़ी हो और सूत जी की प्रार्थना करनी पड़ी हो । श्रीमद्भागवत- हृदय' का अवलम्बन लिये बिना भागवत के हृदय का यथार्थ दर्शन करना किसीके लिये भी सम्भव नही है-यह मेरा दावा है, विनम्र निवेदन है । इसके विषय में मुझे विशेष कुछ कहना नहीं है एतदर्थ निर्मत्सर गुणग्राही विद्वज्जन प्रमाण है, निर्णायक है ।

"श्रीमद्भागवत-हृदय" को वर्तमान रूप देने में वर्षों की साधना, दशकों का चिन्तन सहायक हुआ है । समय-समय पर कठिनाइयों के अम्बार ने कार्य में अवरोध किया। किन्तु आराध्य राधाकृष्ण की कृपा ने सबकों धता बताते हुए इसे पूर्णता के द्वार तक पहुँचा ही दिया । धन्य है, कृष्ण-कृपा! जिसके अभाव में इस कार्य की पूर्णता की कल्पना ही संभव नही थी। इसके लिये मैं बारम्बार श्रीकृष्ण-चरणों मे प्रणामाञ्जलि अर्पित करता हूँ राधा-चरण- चारण-चक्रवर्ती के चरणों की विभूति को मस्तक पर धारण कर रहा हूँ ।

इस ग्रन्थ को तैयार करने में परम सेविका अर्द्धाङ्गिनी शान्ति त्रिपाठी समवाय कारण रही हैं, उनकी सहायता सेवा के अभाव में मैं इस महान् कार्य को पूर्ण न कर पाता । हाँ! यदा-कदा अशान्ति मचा देना भी उनका स्वभाव है- "स्वभावो हि दुरतिक्रम:" । इस सहयोग के लिये तो मै केवल उन्हें इतना ही कह सकता हूँ- "भगवान् तुम्हारा आँचल खुशियों से भर दै" । यथावसर विविध प्रकार से सहायता करने वाले बालक डी बालकृष्ण त्रिपाठी एडवोकेट, आनन्द कृष्ण त्रिपाठी, डॉ. श्रीकृष्ण त्रिपाठी वरिष्ठ प्रवक्ता, संस्कृत-विद्या धर्म-विज्ञान सद्वाय, काहिविवि, प्रिय राधाकृष्ण त्रिपाठी और गोपाल कृष्ण त्रिपाठी आशीर्वाद के पात्र है । उनके लिये मेरा यही कहना है- सफल मनोरथ होंहि तुम्हारे'

अपने सहयोगात्मक कृत्यों के लिये चौखम्भा संस्कृत भवन के भूतपूर्व संचालक गोलोकवासी श्री ब्रजरत्न दास जी गुप्त के द्वितीय आत्मज ब्रजेन्द्र कुमार एवं उनकी धर्मपत्नी सुश्री नीता गुप्त साधुवाद एवम् आशीर्वाद के पात्र है । संशोधन में समर्थ सहायक अग्रज कपिल देव गिरी जी भी मेरे साधुवाद के सत्पात्र हैं । सबके अन्त में, ग्रन्थ में अनुशंसा लिखकर मेरा सम्मान बढ़ाने वाले अनुज आचार्य -प्रवर प्रो डॉ. कृष्णकान्त शर्मा के प्रति आभार व्यक्त करना मै अपना परम पावन कर्तव्य समझता हूँ । अन्त में मैं राधाकृष्ण के चरणो में प्रणति-पुर:सर भक्ति-गड़ा का यह अगाध स्रोत मानव-समाज के परम कल्याण के लिये समर्पित करते हुए अमन्द परमानन्द का अनुभव कर रहा हूँ।

 

माहात्म्य सहित श्रीमतद्भागवत हृदय (साप्ताहितक कथा ) की विषयानुक्रमणिका

 

1

प्रथम स्कन्ध सप्ताहके पहले दिन की कथा प्रारम्भ

25

2

द्वितीय सकन्ध ध्यान विधि और भगवान के विराट् रूप में मन की धारणा का वर्णन

72

3

तृतीय स्कन्ध विदुर के द्वाराकौरवों का त्याग और विदुर-उद्धव संवाद

92

4

सप्ताह के दूसरे दिन की कथा प्रारम्भ कर्दम और देवहूति का विहार

136

5

चतुर्थ स्कन्ध स्वायम्भुव मनुकी कन्याओं के वंश का वर्णन

159

6

पंचम स्कन्ध प्रियव्रत को नारद से ज्ञान की प्राप्ति, ब्रह्मा के समझाने से राज्य का उपयोग और अन्त में वैकुण्ठ गमन

230

7

सप्ताह के तीसरे दिन की कथा का प्रारम्भ भरत चरित्र

243

8

षष्ठ स्कन्ध अजामिल का उपाख्यान

282

9

सप्तम स्कन्ध नारद युधिष्ठिर संवाद और जय विजय के तीन जन्मों का कथन

325

10

सप्ताह के चौथे दिन की कथा प्रारम्भ अष्टम स्कन्ध

367

11

नवम स्कन्ध वैवस्वत मनु के पुत्र राजा सुद्वयुम को स्त्रीत्व की प्राप्ति

421

12

दशम स्कन्ध पूर्वार्द्ध भगवान् के द्वारा भूमि को आश्वासन, वसुदेव देवकी का विवाह और कंस के द्वारा देवकी छ: पुत्रों का वध

469

13

सप्ताह के पाँचवें दिन की कथा का प्रारम्भ कंस के हाथ से छूटकर योगमाया का आकाश-गमन

483

14

राजपञाच्ध्यायी प्रारम्भ वंशी बजाकर गोपियों का आह्रान और उनके साथ रास विहार का आरम्भ

579

15

दशम उत्तरार्ध श्रीकृष्ण का जरासन्ध से भीषण युद्ध और दुर्ग के रूप में द्वारकापुरी का निर्माण

646

16

सप्ताह के छठवे दिन की कथा का प्रारम्भ प्रद्युम्न का जन्म और शम्बरासुर का वध

661

17

एकादश स्कन्ध यदुवंश को ऋषियों का शाप

744

18

सप्ताह के सातवें दिन की कथा का प्रारम्भ भक्तियोग की महिमा तथा ध्यान- विधि का वर्णन

780

19

द्वादश स्कन्ध कलियुग के राजाओं का वर्णन

716

 

 

 

 

 

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