कश्मीर की भूमि साक्षात् शक्ति स्वरूपा है जिसने अपने गर्भ से कई दर्शनों को प्रसूत किया जिससे जीववर्ग का कल्याण हो सके। अणु के रूचि वैभिन्न्य के कारण परमशिव अनुग्रह कर द्वैत, द्वैताद्वैत तथ अद्वैतवादी दृष्टि के प्रतिपादक आगमों का प्राकट्य करते हैं। कश्मीर की धरा से क्रम, कुल, त्रिक, प्रत्यभिज्ञा, स्पन्द आदि सहोदर अद्वयवादी मतवादों का उद्भव हुआ। इन दर्शनों में परतत्त्व के विषय में विशिष्ट अवधारणाओं का प्रचलन है। इनमें भी 'त्रिकमत' का अपना वैशिष्ट्य है। त्रिकदर्शन को अनुत्तरनय, अनुत्तरदर्शन, षडर्धशास्त्र आदि विविध अभिधाओं से जाना जाता है। इस दर्शन में परतत्त्वरूप महाभैरव तथा उनकी तीन प्रधान शक्तियों की उपासना की जाती है।
परमशिव की अनेक शक्तियां कही गई हैं परन्तु इन सभी शक्तियों का समाहार परा, अपरा तथा परापरा इन तीन मुख्य शक्तियों में किया गया है। 'भैरवागम' में इन्हें ही अघोरा, घोरा तथा घोरघोरतरा कहा गया है। 'सिद्धान्तशैवमत' में इन्हें इच्छा, क्रिया तथा ज्ञान शक्ति की अभिधा से कहा गया है। 'चण्डीसप्तशती' में इन्हें ही महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती कहा गया है। इनकी उपासना के लिए सर्वप्रथम त्रिकपरम्परा के आचार्य से दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए। आचार्य दीक्षा के बल पर अणु के तत्त्वों तथा अध्याओं का शोधन कर उसे परतत्त्व में योजित करता है जिससे शिष्य कृतकृत्य हो जाता है। दीक्षा महोत्सव में त्रिशूलाब्ज आदि मण्डलों का निर्माण कर उनका पूजन किया जाता है तथा शिष्य को दर्शन करवाया जाता है। एक लम्बे समय से त्रिकनय की पराम्परा का हास होता रहा जिसे वर्तमान में पुनर्जीवित करने का श्रेय श्रद्धेय गुरूवर शिवाचार्य स्वामी लक्ष्मण जू को जाता है।
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