संगीत, नाटक का प्राणतत्व है, जैसे आत्मा के बिना शरीर पार्थिव है उसी प्रकार संगीत के बिना नाटक की परिकल्पना निष्प्राण प्रतीत होती है। भाव संप्रेषण को संगीत ही समृद्ध स्वरूप प्रदान करता है। आगिक, वाचिक अभिनय के साथ आहार्य की परिपूर्णता के पश्चात् भावाभिव्यक्ति को पुष्टता प्रदान करने वाला तत्व संगीत ही है। व्यक्ति से अभिनेता तथा अभिनेता से चरित्र तक की यात्रा को सहज प्रतीति कराने में संगीत का सर्वप्रमुख स्थान है।
रंगमंबीय संगीत में कथाक्रम परिप्रेक्ष्य में ध्वनि एवं निःशब्दता, कर्कश व मधुर ध्वनियों, शोरगुल सभी का अपना स्थान है। रंगमंच में मानवीय अनुभूतियों को व्याख्यायित करने में संगीत की महती भूमिका होती है, किसी दृश्य में काल, स्थान, कार्य, व्यापार को संगीत सजीव बना सकता है, वह दृश्यों की संगत करता है और विशिष्टता तो यह भी है कि संगीत पारंपरिक रूप में तथा प्रयोग परिवर्तन नाट्य में ही अधिक पाया जाता है। दृश्य के अनुरूप पारंपरिक संगीत में मौलिक प्रयोग भी न केवल मान्य हैं अपितु सृजनशीलता का पर्याय भी माना जाता है। लय, ताल वाद्य यन्त्रों का प्रयोग, गायन की विभिन्न शैलियाँ, आदिवासी संगीत, लोकसंगीत, व्यवसायिक संगीत, आख्यानिक व कथावाचक शैलियों, लोरियों, शुद्ध संगीत, आनुष्ठानिक उत्सव संगीत शैलियों वह संपदा है जिसके प्रयोग से रंगमंचीय संगीत समृद्ध होता है।
नाट्य में संगीत की जड़ें आदिवासी जीवन में दिखाई देती हैं, नाट या जात्रा गीतों में नाट्यों के मध्य तुमुल ध्वनि व विशिष्ट चीखें नृत्यमंडली की जानवरों से रक्षा के साथ ही दुष्ट आत्माओं से रक्षा का भी प्रयोजन होता था। यही प्रयोग कालान्तर में सुसस्कृत समाज में पूर्वरंग के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। कला जगत में कुड़िआट्टम, यक्षगान, जात्रा, भवई, बिदेसिया, तमासा ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जहाँ नाट्य शैलियों का विशिष्ट संगीत ही उसकी पहचान है।
नाट्य परंपरा में विहंगावलोकन करें तो भरत निर्दिष्ट नाट्य परंपरा बीज रूप में दिखाई देती है, जहाँ उन्होंने गीत को नाट्य की शैय्या कहा उनके अनुसार गीत, वाद्य संगीत के समुचित प्रयोग से नाट्य पर विपत्ति नहीं आती साथ ही नाट्य को मनोरंजन का स्वरूप प्रदान करता है।
मैं मूलतः संगीत सेवी हूँ पर हिन्दी रंगमंच तथा लोकनाट्य रामलीला, रासलीला, नौटंकी, रविन्द्रनाट्य, यक्षगान, हबीब तन्वीर, बी. वी. कारन्थ के नाटकों को देखा तो सम्मोहित हुई, हमेशा से ही नाटकों का संगीत पक्ष मुझे आकर्षित करता रहा, वो कुड़िआट्टम का ताल वाद्यों के साथ अभिनय हो या नौटंकी में दोहा, चैबोला, बहरे तबील की मनमोहक प्रस्तुति, रामलीला में "ऐहाँ" के साथ दोहा चौपाई गाने की शैली मन को हर लेती, तो रासलीला में लोक से लेकर शास्त्रीय संगीत के सुन्दर पक्षों का अद्भुत समन्वय देखने को मिला, लोक नाट्य बिदेसिया तो अपने अद्भुत गायन शैली के कारण तादात्मय स्थापित करे लेता ही है। आधुनिक रंगमंच में बी. वी. कारन्थ जी के नाटकों में संगीत की विविधता ने मुझे मोहा, अब जब मैंने इस विषय पर देखना शुरू किया तो यत्र-तत्र टुकड़ों-टुकड़ों में जानकारी है, समग्र रूप से सांगीतिक तत्वों पर विश्लेषणात्मक चर्चा का अभाव मिलता है, विषय वस्तु बहुत व्यापक एवं बिखरी हुई है, इस पर एकाग्र रूप से सामग्री का संकलन, अध्ययन, चिंतन, मनन, विश्लेषण की आवश्यकता है, इसलिए प्रस्तुत पुस्तक की परिकल्पना की गई।
मैं समस्त लेखकों के प्रति आभारी हूँ, जिन्होंने इस पुस्तक के लिए सारगर्भित लेख प्रदान किए, जो आने वाली पीढ़ी के लिए संग्रहणीय होगा। पुस्तक में सह-सम्पादक के रूप में अपना सहयोग देने के लिए शाम्भवी शुक्ला को धन्यवाद देती हूँ, इस पुस्तक के प्रकाशन हेतु मैं कनिष्क पब्लिकेशन की हृदय से आभारी हूँ।
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