पुस्तक के विषय में
प्रेमचन्द : किसान जीवन सम्बन्धी कहानियाँ और विचार
प्रेमचन्द को किसानों से गहरा लगाव था-उसी प्रकार का लगाव जैसे किसान का अपने खेतों के प्रति और माँ-बाप का अपने बच्चों के प्रति होता है । वे सम्भवत: भारतीय साहित्य में पहले लेखक थे, जिन्होंने जमींदारी प्रथा को समाप्त करने की बात कही और यह प्रश्न उठाया कि किसान और सरकार के बीच यह तीसरा वर्ग ( जमींदारों का) क्यों है? इसकी क्या प्रासंगिकता है? उन्होंने जमींदारों को सुरक्षा देने के प्रश्न पर तत्कालीन सरकार की आलोचना की । प्रेमचन्द अकेले ऐसे बुद्धिजीवी लेखक थे, जिन्होंने किसान जीवन की सूक्ष्म समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित करके लिखा और लोगों तथा सरकार का ध्यान आकृष्ट किया ।
डॉ. रामविलास शर्मा ने ठीक ही लिखा है, ''हर कोई जानता है कि प्रेमचन्द ने समाज के सभी वर्गों की अपेक्षा किसानों के चित्रण में सबसे अधिक सफलता पायी है । वे हर तरह के किसानों को पहचानते थे, उनके विभिन्न आर्थिक स्तर, उनकी विभिन्न विचारधाराएँ उनकी विभिन्न सामाजिक समस्याएँ किसान-जीवन के हर कोने से परिचित थे । जैसी उनकी जानकारी असाधारण थी, वैसा ही किसानों से उनका स्नेह भी गहरा था । किसानों के सम्पर्क में आनेवाली शोषण की जंगी मशीन के हर-कल-पुर्जे से वे वाकिफ थे । '' सन्देह नहीं कि प्रेमचन्द के समय के किसान जीवन को आज के परिप्रेक्ष्य में समझने के लिएइस पुस्तक की अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका रहेगी ।
भूमिका
किसान समस्या और प्रेमचन्द
प्रेमचन्द को किसान जीवन का महान रचनाकार माना जाता है, जो कि उचित भी है। किसान-जीवन की समस्याओं के प्रति जो गहराई और गम्भीरता उनके रचनाकर्म में दिखती है, वह उनकी राष्ट्रीय हित चिन्ता के कारण है । वे अच्छी तरह समझ चुके थे कि समाज में जो दलित हैं, स्त्रियों हैं, किसान-मज़दूर हैं, इनको सुखी रखने और साथ लेकर चलने से ही राष्ट्रीय समस्याओं का हल हो सकेगा । यहाँ कहने की आवश्यकता नहीं है कि प्रेमचन्द के समय में किसानों की स्थिति बड़ी दयनीय थी। उनके ऊपर एक ओर अँग्रेज़ी शासन का दबाव था तो दूसरी ओर जमींदारों का जुल्म । इन दोनों के बीच पिस रहे किसान अपनी मेहनत की कमाई भी खो देते थे । कहना चाहिए कि उनसे उनकी मेहनत की कमाई छीन ली जाती थी । सन् 1932 के दिसम्बर में लिखे अपने एक लेख ' हतभागे किसान ' में प्रेमचन्द ने लिखा था, ' भारत के अस्सी फीसदी आदमी खेती करते हैं । कई फीसदी वह हैं, जो अपनी आजीविका के लिए किसानों के मुहताज हैं, जैसे गाँव के बढ़ई, लुहार आदि । राष्ट्र के हाथ में जो कुछ विभूति है, वह इन्हीं किसानों और मज़दूरों की मेहनत का सदक़ा है । हमारे स्कूल और विद्यालय, हमारी पुलिस और फ़ौज, हमारी अदालतें और कचहरियाँ सब उन्हीं की कमाई के बल पर चलती हैं, लेकिन वही जो राष्ट्र के अन्न और वस्त्रदाता हैं, पेट भर अन्न को तरसते हैं, जाड़े-पाले में ठिठुरते हैं और मक्खियों की तरह मरते हैं ।''1 अगस्त, 1993 के अपने एक अन्य लेख ' कृषि सहायक बैंकों की जरूरत ' में उन्होंने लिखा है कि '' कृषि भारत का मुख्य व्यवसाय है, पर उसे नोंचनेवाले तो सब हैं, उसको प्रोत्साहन देनेवाला कोई नहीं । उसे भूखों मरकर, पैसे-पैसे के लिए महाजन का मुँह देखकर, अपना जीवन काटना पड़ता है ।'2 यह थी प्रेमचन्दयुगीन किसानों की स्थिति । 'गोदान' में भोला होरी से कहता है, '' कौन कहता है कि हम-तुम आदमी हैं । हममें आदमियत कहाँ? आदमी तो वह है, जिसके पास धन है, अख्तियार है, इल्म है । हम लोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं ।"3 बहुत पीड़ा के साथएक ओर किसानों पर लूट और दूसरी ओर उनकी स्थिति का कोई ख़याल नहीं । कृषि की उन्नति के विषय में कोई चिन्ता नहीं । प्रेमचन्द इसको रेखांकित करते हुए एक 'डेटा' प्रस्तुत करते हैं, "लार्ड कर्जन ने 1901 में यहाँ की व्यक्तिगत आय का अनुमान तीस रुपये साल किया था । 1915 में एक दूसरे हिसाबदाँ ने इस अनुमान को पचास रुपये तक पहुँचाया और 1915 में वह समय था, जब योरोपीय महाभारत ने चीजों का मूल्य बहुत बढ़ा दिया था । 1930 में वही हालत फिर हो गई, जो 1901 में थी और हिसाब लगाया जाय तो आज तक किसी ने किसानों की दशा की ओर ध्यान नहीं दिया और उनकी दशा आज भी वैसी है, जो पहले थी, इनके खेती के औजार, साधन, कृषि-विधि, क़र्ज़, दरिद्रता, सब कुछ पूर्ववत् है । '13
प्रेमचन्द इस बात को लेकर बिल्कुल ही साफ थे कि राष्ट्रीय उन्नति के लिए किसानों-मजदूरों का विकास बहुत आवश्यक है । अपनी इसी विचारधारा के तहत वे किसानों के पक्ष में खड़े होते हैं । उनके लिए यह बड़े दुःख का विषय था कि मुट्ठीभर लोग देश की अस्सी फीसदी से अधिक आबादी को चूस रहे हैं । दिन-रात परिश्रम करनेवाले भूखों मरते हैं और आराम से ' खटिया ' तोड़नेवाले मौज करते हैं । उन्होंने अक्टूबर, 1932 में अपने एक लेख में लिखा कि, '' कौन नहीं जानता कि भारत के किसान बुरी तरह कर्ज के नीचे दबे हुए हैं । उनका प्राय: सभी काम कर्ज से ही चलता है -बीज वह सूद पर लेते हैं या पठानों से । बैल भी वह प्राय: फेरी करनेवाले व्यापारियों से उधार ही लिया करते हैं । शादी-गमी, तीर्थ-व्रत में तो अपने सम्मान-रक्षा के लिए उन्हें कर्ज लेना ही पड़ता है । कितने जमींदार और साहूकार किसानों या किसान-मजदूरों को सौ-पचास रुपया उधार देकर उनसे यावज्जीवन मजदूरी कराते रहते हैं ।'14 उन्होंने ' सवा सेर गेहूँ ' कहानी में भी इसी मार्मिक यथार्थ को उद्घाटित किया है । पिता की मृत्यु के बाद पुत्र से भी बेगार करवाई जाती है और ऐसा कराते हुए मन में कोई हिचक नहीं होती । दुनिया को भगवान का भय दिखानेवाले लोग ऐसे मामलों में भगवान से भी ऊपर हो जाते हैं ।
कर्ज में डूबे भारतीय किसानों के विषय में अपने एक अन्य लेख ' जबरदस्ती ' में प्रेमचन्द ने लिखा, '' भारतीय किसानों की इस समय जैसी दयनीय दशा है, उसे कोई शब्दों में अंकित नहीं कर सकता । उनकी दुर्दशा को वे स्वयं जानते हैं या उनका भगवान जानता है । जमींदार को समय पर मालगुजारी चाहिए सरकार को समय पर लगान चाहिए उधर किसान को खाने के लिए दो मुट्ठी अन्न चाहिए पहनने के लिए एक चीथड़ा चाहिए चाहिए सब कुछ, पर एक ओर तुषार तथा अतिवृष्टि फसल को चौपट कर रही है, एक ओर आँधी उनके रहे-सहे खेत को भी नष्टकर रही है, दूसरी ओर रोग, प्लेग, हैजा, शीतला, उनके नौजवानों को हरी- भरी तथा लहलहाती जवानी में उसी दुनिया से उठाए लिये चली जा रही है, जिस तरह लहलहाता खेत अभी छह दिन पूर्व के पत्थर-पाले से जल गया । गल्ला पैदा हो रहा है, पर भाव इतना मन्दा है कि कोई दो वक्त भोजन भी नहीं कर सकता । स्त्री के तन पर जो दों-चार गहने थे, वो साहूकार के पेट से बचकर सरकार की मालगुजारी के पेट में चले गये । नन्हें बच्चे जो चीथड़ा ओढ़कर जाड़ा काटते थे, वही अब उनका पिता पहनकर तन की लाज ढँक रहा है । माता के पास केवल इतना ही वस्त्र है, जितने से वह घूँघट काढ़ सके- धोती चाहे ठेहुने तक ही क्यों न खिसक आए । "15 यह थी भारतीय समाज में किसान की स्थिति । पूस की रात में हल्कू द्वारा जोड़े गये पैसे साहूकार ले लेता है । उसकी फसल जानवर नष्ट कर देते हैं । ठंड में उसके पास कपड़ा नहीं है, इसलिए मारे ठंड के वह जानवरों को नहीं भगा पाता । इतनी दयनीय स्थिति के बाद भी जमींदार से पीछा नहीं छूटता है । उसकी पत्नी मुन्नी दुःखी होकर कहती है, ' अब मजदूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी । ''16 इससे अधिक अमानवीयता क्या होगी कि भरे पेट के लोग अधिकार समझकर अत्याचार करते हैं । गोदान में होरी कहता है, साठ तक पहुँचने की नौबत न आएगी धनिया । इससे पहले ही चल देंगे । '17 भारतीय किसान का प्रतिनिधित्व करता होरी भारतीय किसान के जीवन के सर्वाधिक कटु पक्ष की ओर इशारा करता है । जिन्हें भूखे रहकर कठिन परिश्रम करना हो, बिना कपडों के पूस की रातें काटनी हों, चैत-बैसाख की धूप-लू में जलना- चलना और ठटना हो, वे भरी जवानी में न मरेंगे तो कौन मरेगा!
प्रेमचन्द किसानों के हित के लिए नये-नये उपाय सोचने में लगे थे, ताकि इस वर्ग का उद्धार हो सके । यहाँ ध्यान देने की आवश्यकता है कि अपने पूरे लेखन में प्रेमचन्द किसानों को जातियों अथवा धर्म में न बाँटकर एक वर्ग के रूप में देखते हैं । इस रूप में देखने पर ही किसानों का हित तब भी था, आज भी है । इस हित-चिन्ता के फलस्वरूप ही वे किसानों के लिए चकबन्दी की बात कर रहे थे । सन् 1932 के अक्टूबर में उन्होंने अपने लेख ' आराजी की चकबन्दी ' में लिखा, 'जब तक चकबन्दी न की जाएगी कृषि में कोई सुधार न होगा, न नयी जिन्सें पैदा की जा सकेंगी । कृषि की उन्नति की यह पहली सीढ़ी है और हमें आशा है, सरकार इसे हाथ में लेने में देर न करेगी ।'18 इसी वर्ष अपने एक अन्य लेख हतभागे किसान में उन्होंने लिखा, ''दूसरी जरूरत जमीन की चकबन्दी है । जमीन का बँटवारा इतनी कसरत से हुआ है और हो रहा है कि जिसकी कोई हद नहीं । दक्षिण में सन् 1771 ई. में औसत जमाबन्दी चालीस एकड़ थी, 1915 ई. में वह केवल सात एकड़ रह गयी । यह डेढ़ एकड़ भी गाँव की चारों दिशाओं में स्थित होता है, इसलिए उसमें बहुत परिश्रम व्यर्थ हो जाता है । चकबन्दी हो जाने से इतना फायदा होगा कि किसान अपने चक के बाड़ों को घेर सकेगा, उसमें कुएँ बनवा सकेगा, खेती की निगरानी कर सकेगा । इससे उपज में कुल बढ़ती होने की आशा हो सकती है । '19 आज चकबन्दी छोटे किसानों के लिए बहुत राहत की बात है । यद्यपि कुछ लोग पैसे के जोर पर इसमें भी फायदा उठाते ही हैं तथापि यह एक उचित व्यवस्था है, जिसने प्रेमचन्द के बाद के समय (आज़ादी के बाद) में अपनी सार्थकता को बखूबी साबित किया है । प्रेमचन्द की मान्यता थी कि ' हमें तो उन्नति के लिए ऐसे विधानों की जरूरत है, जो समाज में विप्लव किये बिना ही काम में लगाए जा सकें । ''20 कहने की आवश्यकता नहीं कि चकबन्दी एक ऐसा ही विधान है ।
प्रेमचन्द अपने आरम्भिक लेखन में जमींदारी व्यवस्था में सुधार की आकांक्षा रखते दीख पड़ते हैं, किन्तु जैसे-जैसे उनका लेखन प्रौढ़ हुआ है, वैसे -वैसे वे जमींदारी प्रथा के उन्मूलन की ओर अग्रसर होते दीख पड़ते हैं । वे साफ-साफ जमींदारों की उपादेयता पर प्रश्न खड़ा कर देते हैं । उनके लिए कृषि व्यवस्था में अगर कोई महत्त्वपूर्ण है तो सिर्फ किसान और मजदूर । वे इन दोनों वर्गों का जमकर पक्ष लेते हैं । अपने लेख ' हतभागे किसान में ही वे लिखते हैं, '' खेती की पैदावार बढ़ाने की ओर अभी तक काफी ध्यान नहीं दिया गया । सरकार ने अभी तक केवल प्रदर्शन और प्रचार की सीमा के अन्दर रहना ही उपयुक्त समझा है । अच्छे औजारों, अच्छे बीजों, आदतों का केवल दिखा देना की काफी नहीं है । सौ में दो किसान इस प्रदर्शन से फायदा उठा सकते हैं । जिनको भोजन का ठिकाना नहीं है, जो नाक तक ऋण के नीचे दबा हुआ है, उससे यह आशा नहीं की जा सकती है कि वह नयी तरह के बीज या औजार या खाद खरीदेगा । उसे तो पुरानी लीक से जी भर हटना भी दुस्साहस मालूम होता है । इसमें कोई परीक्षा करने की, किसी नयी परीक्षा का जोखिम उठाने की सामर्थ्य नहीं है । उसे तो लागत के दामों में यह चीजें किस्तवार अदायगी की शर्त पर दी जानी चाहिए । सरकार के पास इन कामों के लिए हमेशा धन का अभाव रहता है । हमारे विचार में इससे ज्यादा जरूरी सरकार के लिए कोई काम ही नहीं है ।''21
प्रेमचन्द सम्भवत: अकेले लेखक हैं, जो इतने प्रखर ढंग से किसानों के विषय में सरकार के दायित्व की चर्चा करते हैं । इतना ही नहीं, वे प्रान्तीय कौंसिल में जनता के प्रतिनिधियों से अपील करते हैं कि यदि सरकार किसानों के हित में कोई काम कर रही हो तो उसका सहयोग ही करें, क्योंकि इससे किसानों को फायदा होगा, अर्थात् प्रकारान्तर से राष्ट्र को फायदा होगा । उन्होंने अपने लेख'किसानों का कर्जा' में लिखा है, ''यदि प्रान्तीय कौंसिल में सरकार किसानों के हित के लिए कोई कानून बनाना चाहती है, तो जनता के प्रतिनिधियों को चाहिए कि वे सरकार का समर्थन करें ।'22 प्रेमचन्द जानते थे कि किसी बड़ी उपलब्धि के लिए कुछ घाटा भी सहा जा सकता है । सरकार का सहयोग भी ऐसा ही घाटा था । किसानों के व्यापक हित को देखते हुए वे 'राव कृष्णपाल सिंह' की पाँच बातों का समर्थन करते हैं । ये पाँच बातें हैं -
1. उचित मात्रा में लगान घटा दिया जाए । लगान माफी या किस्त-बन्दी का तरीका चलाया जाए । भूमि-कर जमींदार की वास्तविक वसूली के हिसाब से लगाया जाए न कि उसकी वसूली की सम्भावना पर ।
2. नहर का रेट इतना घटा दिया जाए कि सबके लिए आबपाशी सस्ती पड़े । आजकल की तरह केवल अमीरों के लायक ही न हो ।
3 जमींदारों को उनकी जिम्मेदारी सिखलानी चाहिए तथा जायज वसूली से अधिक वसूली करने की आज्ञा उन्हें नहीं देनी चाहिए ।
4. किसानों का मौजूदा कर्जा जहाँ तक हो, काट दिया जाए और कानून बना कर सूद की दर तय कर दी जाए । साहूकारों को बहीखाता रखने के लिए बाध्य किया जाए तथा उन्हें केवल किसान को खरीद लेने के लिए 'रुपया' देने से रोका जावे ।
5. सरकारी अफसरों को किसानों से नाजायज वसूली से रोका जावे । बड़े सरकारी कर्मचारियों के वेतन में कमी की जावे और उससे रुपया बचाकर बहुत ही कम वेतन पानेवाले सरकारी कर्मचारियों का वेतन बढ़ा दिया जावे । ' 23
इस प्रकार उनके चिन्तन के केन्द्र में छोटे कर्मचारी भी आ जाते हैं । इन बातों की ओर सरकार का ध्यान दिलाते हुए उन्होंने लिखा है, '' इतना हम कह देना चाहते हैं कि यदि राव साहब की योजना को सरकार ने नहीं स्वीकार किया तो, सिद्ध हो जाएगा कि किसानों के हित का विशेष ध्यान नहीं रखती । ' 24
सरकार की बात अपनी जगह पर है । प्रेमचन्द मूल समस्या की और दृष्टि डालते हैं कि किसानों में 'एका' ही नहीं है । 'गोदान' में भोला कहता है, '' हम लोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं । उस पर भी एकदूसरे को देख नहीं सकते । एका का नाम नहीं । एक किसान दूसरे के खेत पर न चढ़े तो जफा कैसे करे, प्रेम तो संसार से उठ गया । ' 25 इसी 'एका' की ओर ध्यान दिलाते हुए उन्होंने अपने लेख 'शक्कर सम्मेलन' में लिखा था, '' जब तक देश के सुदिन नहीं आते और सभी व्यवसायों का राष्ट्रीयकरण नहीं हो जाता, पूँजीपतियों के हाथ में किसानों और मजदूरों की किस्मत रहेगी और सरकार ऊपरी नियन्त्रण करने का स्वाँग भरकरकोई उपकार नहीं कर सकती । हम तो किसानों को यही सलाह देंगे कि वे खुद अपना संगठन करें । '' यहाँ याद रखने की बात है कि सन् 1933 में जब प्रेमचन्द ये बातें लिख रहे थे, उससे पूर्व बारदोली और अवध में किसान आन्दोलन कर चुके थे । यह बात साफ है कि उनके ऊपर इन आन्दोलनों का पर्याप्त प्रभाव पड़ा था । बारदोली किसान आन्दोलन का प्रभाव कर्मभूमि में दिखता है । 'कर्मभूमि ' की रचना के कुछ ही समय पूर्व 1928 ई. में बारदोली के किसानों का आन्दोलन सफलतापूर्वक समाप्त हो चुका था । 'कर्मभूमि' पर बारदोली के किसानों की इस विजय का भी अप्रत्यक्ष प्रभाव देखा जा सकता है । संयुक्त प्रान्त के किसानों के लगान-बन्दी आन्दोलन को तो प्रेमचन्द ने अपनी आँखों से देखा और अनुभव किया था ।
'कर्मभूमि' के लगानबन्दी आन्दोलन के मूल में 1929 ई. का विश्वव्यापी आर्थिक संकट है, जिसका सर्वाधिक प्रत्यक्ष दुष्प्रभाव किसानों पर पड़ा । प्रेमचन्द ने 1929 ई. की आर्थिक मन्दी से उत्पन्न परिस्थितियों के चित्रण का प्रयत्न किया है और लगानबन्दी आन्दोलन के चित्र खींचकर सरकारी दमन-नीति की कूरता और नृशंसता का नग्न नृत्य दिखाया है । किसान- आन्दोलन में उग्र-दल का प्रतिनिधि आत्मानन्द है और समझौते की राह चाहनेवालों का प्रतिनिधि अमरकान्त । वह जमींदारों और किसानों के मध्य समझौता कराना चाहता है, किन्तु परिस्थितियाँ उसका साथ नहीं देतीं और उसे आन्दोलन करना पड़ता है । उसकी जेल यात्रा भी आन्दोलन-कालीन नेता की भांति ही चित्रित की गई है । 'में' कहने का आशय यह है कि किसान संघर्षो के जीवन्त चित्रण में प्रेमचन्द को समाज में हो रहे आन्दोलनों से भी बल मिला । यद्यपि उन्होंने अवध-किसान आन्दोलन के पूर्व लिखे गये 'प्रेमाश्रम 28 में किसानों के व्यापक संघर्ष को चित्रित किया था । यहाँ यह लिखना जरूरी है कि ' प्रेमाश्रम ' की रचना से ठीक पहले चम्पारण में किसान संघर्ष हुआ था ।' प्रेमाश्रम में किसानों पर हो रहे जुल्म और उनके विरुद्ध किसानों के संघर्ष, दोनों का प्रभावशाली चित्रण है । किसानों की दयनीय स्थिति को समाप्त करने का प्रेमचन्द को एक ही मार्ग दीख पड़ता है-विद्रोह का मार्ग! वे जान चुके थे कि अत्याचारी जमींदार रास्ते पर आनेवाले नहीं हैं । 'प्रेमाश्रम' में गर्मी के मौसम में कारिन्दा गौस खाँ तालाब का पानी रोक लेता है, गाँववाले इसका विरोध करते हैं । बात बढ़ती देखकर कादिर वहाँ से हटने लगते हैं तो कभी जमींदार का आदमी रह चुका सुक्खू चौधरी उनका हाथ पकड़कर रोक लेता है, ' कहाँ जाते हो कादिर भैया । जब तक यहाँ कोई निपटारा न हो जाए तुम जाने न पाओगे । जब जा-बेजा हर एक मामले में इसी तरह दबना है तो गाँव के सरगना काहे को बनते हो' कादिर खाँ-तो क्या कहते हो लाठी चलाऊँ ? सुक्खू-और लाठी है किस दिन के लिए कादिर-किसके बूते पर लाठी चलेगी ' गाँव में रह कौन गया है ' अल्लाह ने पट्ठों को चुन लिया ।
सुक्खू-पट्ठे नहीं हैं न सही, बूढ़े तो हैं ' हम लोगों की जिन्दगानी किस रोज काम आएगी '29
इस प्रकार परिस्थिति की माँग के फलस्वरूप सुक्खू चौधरी जैसे किसान भी विद्रोह की ओर बढ़ते हैं । इस प्रसंग में सुक्खू का संघर्ष रंग लाता है और उन्हें डिग्री मिल जाती है । कहने का आशय यह है कि प्रेमचन्द के समय में किसानों की स्थिति बिल्कुल ही अच्छी न थी, लेकिन जो सकारात्मक बात थी, वह यह कि किसान अपने हक के प्रति सजग होने लगे थे । प्रेमाश्रम में ही बलराज कहता है, जबसे दुनिया का थोड़ा-बहुत हाल जानने लगा हूँ मुझसे अन्याय नहीं देखा जाता । जब किसी जबरे को किसी गरीब का गला दबाते हुए देखता हूँ तो मेरे बदन में अहा-सी लग जाती है ।' 30 एक अन्य स्थल पर वह कहता है, ' जमींदार कोई बादशाह नहीं कि चाहे कितनी जबरदस्ती करे और हम मुँह न खोलें । इस जमाने में बादशाहों का भी इतना अख्तियार नहीं, जमींदार किस गिनती में हैं ।'' 31 बलराज अन्याय के विरूद्ध खड़ी होनेवाली युव पीढ़ी का प्रतीक है । वह रूस की वोल्शेविक क्रान्ति से प्रभावित है । वह जानता है कि, रूस में काश्तकारों का ही राज है, वह जो चाहते हैं, करते हैं । उसी के पास कोई और देश बालगारी है । वहाँ अभी हाल ही की बात है, काश्तकारों ने राजा को गद्दी से उतार दिया है और अब किसानों और मजदूरों की पंचायत राज करती है । '32 किसानों की दयनीय स्थिति के विरुद्ध विद्रोह करते हुए कादिर जैसा सहिष्णु व्यक्ति कहता है,' हम भी इसी धरती पर पैदा हुए हैं और एक दिन इसी में समा जाएँगे । फिर यह चोट क्यों सहे ' धरती के लिए छत्रधारियों के सिर गिर जाते हैं, हम भी अपना सिर गिरा देंगे । ये प्रेमचन्द के समय के बदलते हुए किसान थे. जो प्रथम विश्वयुद्ध के मोर्चे से लौटते हुए अपने साथ जनतन्त्र की भावना और देश-दुनिया की खबरें लेकर आये थे । अब उनको बहुत दिनों तक दबाना सम्भव न था । प्रेमचन्द किसान जीवन पर केन्द्रित अपने इस पहले उपन्यास में ही इस नतीजे पर पहुँच चुके थे कि जब तक जमींदारी व्यवस्था रहेगी, तब तक सामाजिक व्यवस्था में कोई ठोस फर्क नहीं आ पाएगा । यह समझ उन्होंने टालस्टाय से हासिल की थी । कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रेमचन्द टालस्टाय के बड़े प्रशंसकों में थे और उन्होंने उनकी कई कहानियों का अनुवाद भी किया था । यहाँ यह लिखना जरूरी लगता है कि टालस्टाय किसानों के प्रसंग में क्रान्तिकारी थे और लेनिन ने उन्हें 1905 की रूसी क्रान्ति का दर्पण कहा था । वैसे कुछ मार्क्सवादी विचारक उन्हें प्रतिक्रियावादी लेखक भी मानते थे । प्रेमचन्द किसान-जीवन के यथार्थ को गहराई से पकड़ते हैं । वे किसानों की पीड़ा को शिद्दत से महसूस करते हैं । ' गोदान ' की सारी महाकाव्यात्मकता ही होरी की पीड़ा में है । यहाँ तक आते- आते प्रेमचन्द ने जान लिया था कि किसानों की समस्याओं को टुकड़े में नहीं समाप्त किया जा सकता । इसके लिए व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता है ।
किसान जीवन की समस्याओं को लेकर प्रेमचन्द ने दो अन्य मार्मिक कहानियाँ भी लिखी हैं । क्रमश: ये कहानियों 'बलिदान' (1918) और ' विध्वंस ' (1921) नज़राना और बेगार प्रथा पर आधारित अत्यन्त प्रभावशाली कहानियों हैं । 'बलिदान शीर्षक कहानी का नायक गिरधारी अपने पिता की मृत्यु के बाद जमींदार को उसकी इच्छानुकूल नजराना न दे पाने की स्थिति में खेत से हाथ धो बैठता है । प्रेमचन्द ने अपनी इस कहानी में किसान के खेतों से लगाव को चित्रित करते हुए दिखलाया है कि गिरधारी की आत्मा खेतों पर मँडराने लगी, जिससे कोई भी किसान उस खेत को लेने से इनकार करने लगा । यहाँ गिरधारी की आत्मा मँडराने के प्रश्न को भूत- प्रेत से जोड़ना उचित नहीं है । दरअसल यह गिरधारी के दुःखों और कष्ट का ही विस्तार है । अमृतराय के अनुसार ' गाँधी के सत्याग्रह ' का एक प्रयोग है । यह भी कहा जा सकता है कि निर्बल की आह का परिणाम है । वे खेत बंजर पड़े रह जाते हैं । कथाकार ने दिखलाया है कि अगर ' वे खेत गिरधारी के नहीं हो सकते तो किसी के नहीं होंगे । '33 कहानी के विस्तार को छोड़े तो मूल प्रश्न नजराना है । जमींदारों के द्वारा शोषण का एक नया हथियार । इस प्रथा के खिलाफ 9 फरवरी, 1920 के ' प्रताप में अवध के एक किसान जगदत्त सिंह ने लिखा, '' अवध की भोली प्रजा यह पुकारकर कहती है कि काश्तकारान से जमींदार खेत छीन लेते हैं । किसान जब खेती के लिए ज़मींदारान के पास जाते हैं, तब ज़मींदारान किसानों से पूछते हैं कि कितने रुपये नजर दोगे ' किसान कहते हैं कि जो आप फरमावें । इस प्रकार अधिक रुपये नजर लेकर किसी दूसरे किसान पर बेदखली लगाकर जमीन छीनकर, जमींदार उस किसान को जमीन दे देते हैं । कुछ वर्षो के बाद दूसरे से जमीन छीनकर तीसरे किसान को दे देते हैं और नजर तथा मालगुजारी उससे और अधिक तय करते हैं । किसान की मृत्यु के पश्चात् जमीन का किसान के लड़के-बच्चों से छीन लिया जाना भी अधर्म है । इस प्रकार का अन्याय बाराबंकी, लखनऊ, उन्नाव, रायबरेली आदि में बहुतायत से दिखलाई पड़ता है । क्या जमींदार लोग इधर ध्यान देंगे न ' 34
ध्यान देने की बात है कि उस काल में नजराना चुकाने के लिए किसानों को बेटियों तक बेचनी पड़ीं । आत्महत्याएँ करनी पड़ीं । प्रेमचन्द ने शोषण की इस प्रथा पर प्रश्न खड़ा किया है । इसी प्रकार उन्होंने 'विध्वंस' शीर्षक में 'बेगारी प्रथा' का मार्मिक चित्रण किया है । कहानी की नायिका भुनगी बेगार में जमींदार उदयभानु पांडे का चना समय पर नहीं पुन पाती है । जमींदार इसे अपना अपमान समझते हुए उसका पाडू खुदवाकर फिंकवा देता है । वह फिर बनाती है तो जमींदार उसके नाद पर लात चलाता है जो उसकी कमर पर लगती है । बुढ़िया झुकने के बजाय तनकर खड़ी हो जाती है जमींदार उससे गाँव छोड़ने को कहता है तो बलिदान के गिरधारी के ठीक विपरीत उसे चुनौती देती हुई कहती है, क्यों छोड्कर निकल जाऊं बारह साल खेत जोतने से आसामी भी काश्तकार हो जाता है । मैं तो इस झोपड़ी में बूढ़ी हो गई । मेरे सास-ससुर और उनके बाप-दादे इसी झोंपड़े में रहे । अब इसे यमराज को छोड्कर कोई मुझसे नहीं ले सकता । '35 वह सामन्ती व्यवस्था को चुनौती देती है और अपने कथन को सत्य सिद्ध करती हुई जमींदार द्वारा झोपड़ी में आग लगाए जाने पर उसी में कूदकर जान दे देती है, लेकिन कहानी यहीं तक नहीं है । आग बढ़ती है और पूरे गाँव को अपने चपेट में ले लेती है फलस्वरूप जमींदार का घर परिवार भी जलकर भस्म हो जाता है और परिजन भी उसी में जलकर मर जाते हैं प्रेमचन्द ने लिखा है, ज्वालाएँ और भड़कीं कर पंडितजी के विशाल भवन को दबोच बैठीं । देखते ही-देखते वह भवन उस नौका की भााrत. जो तरंगों के बीच में झकोरे खा रही हो, अग्नि- संसार में विलीन हो गया और वह क्रन्दन- ध्वनि, ने उसके भस्मावशेष में प्रस्फुटित होने लगी, भुनगी के शोकमय विलाप से भी अधिक करुणाकारी थी । '36 प्रेमचन्द दिखलाना चाहते थे कि जो आग गरीबों को जलाती है, वही आग लगानेवालों को भी नष्ट कर देती हे । उस व्यवस्था को जड़- मूल से साफ कर देती है । कहानी के प्रसंग में तो ठीक है कि भुनगी तनकर खड़ी हो गयी. लेकिन बहुतायत में ऐसा नहीं होता था । यह बेगार व्यवस्था न सिर्फ किसानों को, बल्कि नाई, धोबी. जुलाहे, गड़रिये आदि को भी त्रस्त किए हुए थी । प्रेमचन्द ने इस ओर प्रभावशाली ढंग से लोगों का ध्यान आकृष्ट किया ।
प्रेमचन्द को किसानों से गहरा लगाव था-उसी प्रकार का लगाव जैसे किसान का अपने खेतों के प्रति और माँ-बाप का अपने बच्चों के प्रति होता है । वे सम्भवत: भारतीय साहित्य में पहले लेखक थे. जिन्होंने जमींदारी प्रथा को समाप्त करने की बात कही और यह प्रश्न उठाया कि किसान और सरकार के बीच यह तीसरा वर्ग (जमींदारों का) क्यों है? इसकी क्या प्रासंगिकता है? उन्होंने जमींदारों को सुरक्षा देने के प्रश्न पर सरकार की आलोचना की । कहने का आशय यह है कि किसान भारतीय अर्थव्यवस्था के आधार हैं और उन दिनों इनकी हालत बहुत दयनीय थी. ऐसे में प्रेमचन्द अकेले ऐसे बुद्धिजीवी लेखक थे, जिन्होंने किसान जीवन की सूक्ष्म समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित करके लिखा और लोगों तथा सरकार का ध्यान आकृष्ट किया ।
डॉ. रामविलास शर्मा ने ठीक ही लिखा है, हर कोई जानता है कि प्रेमचन्द ने समाज के सभी वर्गों की अपेक्षा किसानों के चित्रण में सबसे अधिक सफलता पायी है । वे हर तरह के किसानों को पहचानते थे, उनके विभिन्न आर्थिक स्तर, उनकी विभिन्न विचारधाराएँ, उनकी विभिन्न सामाजिक समस्याएँ, वे किसान जीवन के हर कोने से परिचित थे। जैसी उनकी जानकारी असाधारण थी, वैसा ही किसानों से उनका स्नेह भी गहरा था । किसानों के सम्पर्क में आनेवाली शोषण की जंगी मशीन के हर कल-पुर्जे से वे वाकिफ थे । '37 कहने की आवश्यकता नहीं कि अपनी इसी जानकारी और स्नेह के फलस्वरूप उन्होंने इतना जीवन्त साहित्य सृजित किया । फिर भी उन्हें लगता था कि अगर व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन नहीं हुआ तो बड़े किसान बड़े होते जाएँगे और छोटे किसान मजदूर । आज उनकी मृत्यु के पचास वर्ष बाद हरित क्रान्ति के प्रदेशों-गुजरात, आन्ध्र और अन्य जगहों में किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं । वे अपनी वर्तमान स्थिति से असन्तुष्ट हैं । आज़ाद भारत में भी प्रेमचन्द के प्रिय किसान छोटे -छोटे सुखों के लिए मोहताज हैं । आज भी वे 'होरी' की तरह यह गाने को मजबूर हैं, 'हिया जरत रहत दिन-रैन' ।
अनुक्रम
1
5
2
पूस की रात
21
3
बलिदान
27
4
सुजान भगत
35
बाबाजी का भोग
46
6
अलग्योझा
48
7
नशा
66
8
उपदेश
73
9
पछतावा
92
10
पंच-परमेश्वर
104
11
ईश्वरीय न्याय
115
12
बाँका जमींदार
133
13
खून सफ़ेद
142
14
दो बैलों की कथा
152
15
मुक्ति-मार्ग
164
16
मुक्तिधन
174
17
सवा सेर गेहूँ
184
किसान जीवन सम्बन्धी विचार
18
नयी परिस्थिति में जमींदारों का कर्तव्य
193
19
जमींदारों की जायदाद की रक्षा
194
20
किसानों की क़र्ज़ा कमेटी के प्रस्ताव
196
आराज़ी की चकबन्दी
199
22
हतभागे किसान
201
23
हड़ताल
205
24
ज़बरस्ती
206
25
महाजन और किसान
209
26
किसानों का क़र्ज़ा
210
शक्कर सम्मेलन
213
28
ऊख के किसानों का संघ
215
29
कृषि सहायक बैकों की ज़रूरत
216
30
काशी में जमींदारों की सभा
217
31
छोटे जमींदार या बड़े
218
32
बस्ती में ईख संघ सम्मेलन
219
33
किसान सहायक क़ानूनों की प्रगति
220
34
जमीन्दारों की दुर्दशा
221
देहातों पर दया-दृष्टि
225
36
आगरा ज़मींदार-सम्मेलन
226
37
निरक्षरता की दुहाई
229
38
यू.पी. काउंसिल में कृषकों पर अन्याय
231
39
जमींदारों ने फिर मुँह की खायी
233
40
किसान सहायक एक्ट
234
41
मुम्बई के मजूरों की हड़ताल
235
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