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प्रकाशकीय
भारत के स्वतंत्रता-आंदोलन का असाधारण महत्त्व इस तथ्य में भी है कि इसके दौरान अनेक सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता और नेता ही सक्रिय नहीं थे बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों विशेष रूप से लेखक, कवि, पत्रकार और कलाकार भी भारत माँ की बेड़ियाँ काटने के लिए समर्पित थे । आजादी उनका प्रथम उद्देश्य था और जिस क्षेत्र विशेष मे उनकी सक्रियता थी, उसे भी इस महान लक्ष्य के लिए समर्पित कर दिया । इससे उनकी प्रतिभा और कला को नई ऊँचाइयाँ मिलीं । एक ऐसी ऊँचाई जो महान लक्ष्य और उसकी निश्छल साधना की स्वाभाविक उपज होती है ।
राष्ट्रकवि पंडित सोहनलाल द्विवेदी इसी महान आदोलन की उपज थे । स्वतंत्रता संघर्ष में रचा- बसा उनका व्यक्तित्व उसी समय साहित्य-साधना में भी ऐसा डूबा कि आजीवन समर्पित रहा । कविता उनके लिए आत्म-प्रसिद्धि का माध्यम नहीं बल्कि राष्ट्र-सेवा का एक माध्यम थी । उनकी अनेकानेक कविताओं ने लोगों को जोश और जागरूकता से भर दिया । 'चल पड़े जिधर दो डग मग में, चल पड़े कोटि पग उसी ओर’ जैसे गीत आम जनता के गीत बन गये और गली-गली गूँजने लगे । जन-जागरण की मशाल के रूप में उन्होंने कविता का आजीवन सदुपयोग किया । खासकर आगत पीढी पर उनका विश्वारा अप्रतिम था, सो उन्होंने बाल-साहित्य पर विशेष रूप से अपना ध्यान केन्द्रित किया । अधिकतर बच्चों को समर्पित उनकी लगभग दो दर्जन पुस्तकें इसका प्रमाण है । निधन के समय तक वह अपने इस उत्तरदायित्व के प्रति पूरी तरह समर्पित रहे । बाल-साहित्य आज जिस तरह आरोपित नहीं, स्वाभाविक पहचान के साथ ऊँचाइयाँ छू रहा है, इसका बहुत कुछ श्रेय पंडित सोहनलाल द्विवेदी जी को है । ऐसे मनीषी का लेखन, खासकर कविता-यात्रा से परिचित हुए बिना, हिन्दी साहित्य की कोई गवेषणा पूरी नहीं होती । इसी अनिवार्यता के चलते उत्तर प्रदेश हिन्दी सस्थान राष्ट्रकवि पंडित सोहनलाल द्विवेदी के प्रेरक व्यक्तित्व और अतुलनीय साहित्यिक योगदान को समर्पित प्रख्यात साहित्यकार डॉ.राष्ट्रबन्धु की इस पुस्तक का प्रकाशन अपनी 'स्मृति संरक्षण योजना’ के अन्तर्गत कर रहा है । यह पुस्तक सात अध्यायों में विभक्त है, जिनमे उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व समाहित है । प्रारम्भिक तीन अध्याय जहाँ उनके स्वतत्रता सेनानी और कवि व्यक्तित्व को समर्पित हैं, वहीं बाद के चार अध्याय उनके सर्जक सम्पादकव्यक्तित्व की ऊँचाइयों से परिचित कराते हैं । इन सभी अध्यायो की विशिष्ट सामग्री यह दर्शाने मे पूरी तरह सक्षम है कि भाव-पक्ष के साथ-साथ उनमें समाहित महान लेखक कवि का कलापक्ष भी कितना धीर-गम्भीर था । आशा है न केवल हिन्दी साहित्य के जागरूक पाठक व शोधार्थी इससे लाभान्वित होंगे बल्कि वह छात्र और बाल-पीढी भी उनके प्रेरक व्यक्तित्व व लेखनी से सुपरिचित हो सकेगी, जिसके भविष्य में स्वर्गीय द्विवेदी जी भावी भारत की खुशहाली और ऊँचाइयों की कामना अंतिम साँस तक करते रहे थे ।
निवेदन
कहते है कि स्थितियाँ ही नेतृत्व का निर्माण करती हैं । स्थितियाँ जितनी भीषण, संघर्षपूर्ण और जटिल होती हैं, उनकी आग में तप कर निकला नैतृत्व भी उतना ही महान होता है । भारतीय स्वातंत्र्य आंदोलन एक ऐसा ही कालखंड था, जिसने न केवल नये सिरे से हममें राष्ट्र-प्रेम की लौ जगाई बल्कि साहित्य पत्रकारिता और कला आदि संवेदनशील क्षेत्रों में अनेक अनूठी और महान प्रतिभाओं को आगे आने का अवरपर दिया ।
पंडित सोहनलाल द्विवेदी हिन्दी साहित्य की एक ऐसी ही विभूति थे । स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में उनके साहित्यकार व्यक्तित्व ने एक बार जो आँखें खोलीं तो पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उन्होंने भैरवी, वासवदत्ता, कुणाल चेतना और जय गाधी जैसी लगभग 24 काव्य पुस्तके लिखी, 'बाल सखा’ जैसी लोकप्रिय बाल पत्रिका का एक दशक तक सम्पादन किया, सजाया-सँवारा । एक ओर 'चल पडे जिधर दो डगमग में, चल पडे कोटि पग उसी ओर । 'जैसी उनकी कविताएँ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के होठों पर प्रयाण गीत सरीखी रही हैं, वहीं दूसरी ओर बाल-पीढ़ी को नई कामनाओं से ओत-प्रोत करते गीत भी कम नही लिखे । 'पर्वत कहता शीश उठा कर, तुम भी ऊँचे बन जाओ । सागर कहता है लहरा कर, मन में गहराई लाओ । धरती कहती धैर्य न छोड़ो कितना भी हो सिर पर भार । नभ कहता है फैलो इतना, ढक लो तुम सारा संसार । 'सरीखी उनकी कविताओं का सिलसिला दूर तक जाता है और अपनी प्रेरकता सरलता और प्रवाह से बाल व वृद्ध सभी को गहरे प्रभावित करता है । ऐसे मनीषी और महान रचनाकार के प्रेरक व्यक्तित्व को शब्दों में राजोने का जो सराहनीय कार्य डॉ.राष्ट्रबन्धु जी ने किया है, उसके लिए उनकी जितनी भी सराहना की जाय, वह कम होगी । डॉ. राष्ट्रबन्धु स्वयं भी वरिष्ठ रचनाकर हैं और उन्हें स्वर्गीय राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी जी का सान्निध्य और सहयोग भी उनके जीवन काल में उपलव्य रहा है । जिसके चलते श्री द्विवेदी जी के कृतित्व और व्यक्तित्व पर केन्द्रित यह पुस्तक अत्यत महत्त्वपूर्ण और उपयोगी बन सकी है ।
आज समय भाग रहा है । जिज्ञासु पाठक अपने गौरवपूर्ण अतीत और उपलब्लियों से परिचित तो होना चाहते हैं, पर अत्यंत विस्तार मे जाने के लिए उनके पास समयाभाव है । यह पुस्तक जहाँ राष्ट्रभाषा के महान पुजारी और शब्दशिल्पी पंडित सोहनलाल द्विवेदी के प्रेरक व्यक्तित्व को समग्र रूप से में समेटने मे सफल रही है, वही समयाभाव में जीते वर्तमान की अपेक्षाओं के अनुरूप सायास विस्तार से बचती है सक्षिप्तता मे सम्पूर्णता की कसौटी पर खरी उतरती है ऐसे मे विश्वास है कि सुधी पाठकजनों विशेषकर बाल व युवा पीढी के बीच यह महत्त्वाकांक्षी प्रकाशन अपनी यशस्वी पहचान बनायेगा।
भूमिका
विधाता ने यह सृष्टि रची तो राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी ने एक ऐसी भावात्मक सृष्टि की जिसमें सभी लोग बन्धनों से मुक्त होकर समरसता से जिएँ । उन्होंने परतंत्रता में अपनी कविताओं से लोगो में उत्साह उत्पत्र किया, वे स्वतंत्र हुए और स्वतंत्र भारत में उन्होंने न्याय और समानता के लिए निरंतर संघर्ष का शंखनाद किया ।
उन्होंने व्यक्ति के चरित्र-निर्माण का प्रात:काल बाल्यावस्था में देखा और बालविकास के लिए मधुर, रोचक और प्रेरक रचनाएँ लिखी । उनकी कविताओ की कुण्डली मे यह लिखा है कि कवि संघर्षशील रहेगा और उसके खून-पसीने रो तैयार की गयी रचनाएँ यशस्विनी बनेंगी और कवि को देहेतर जीवित रखेंगी । द्विवेदी जी ने गांधी जी को राष्ट्र-देवता माना, उनकी आराधना मन से की लेकिन उनके अतिरिक्त सभी स्वतंत्रतासंग्राम सैनिकों के प्रति नमन और श्रद्धा भावना रखी । उन्होंने गांधी जी की उँगली पकड़ कर युग सघर्ष देखा, उसमे प्रतिभागिता की और उनकी भी जयजयकार की जो भारतमाता को स्वतंत्र करने के लिए प्राण-प्रण से सन्नद्ध थे ।
अपने समसामयिक रचनाकारों की तरह द्विवेदी जी ने छायावादी काव्य रचना परंपरा का निर्वाह किया और इस यात्रा में वे किसी भी मील के पत्थर पर रुके नही चलते गये आगे बढ़ते गये । उन्होंने भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता अवतरित करने का यत्न अपनी रचनाओ से किया और चरित्रप्रधान नायकों की अवधारणा से आदर्श चरित्र प्रस्तुत किए जिससे साधारण लोग भी उनसे सीखें और वैसे गुण ग्रहण कर सके ।
द्विवेदी जी ने यह अनुभव किया कि बालकल्याण रमे ही राष्ट्र सुदृढ बन सकता है । इराके लिए उन्होंने बाल-साहित्य को समृद्ध किया । उनकी मान्यता थी कि बच्चों के तन को स्वस्थ रखना एकाड्गी यत्न है । बच्चों के मन को सजाना-सँवारना हमारा प्रधान कर्तव्य है । तन और मन अनन्योन्याश्रित हैं । किसी एक की अवहेलना से पंगुता आती है और बचपन-यात्रा को आनन्दमय नहीं बनाया जा सकता है । अपने मोहक बालगीतों से द्विवेदी जी ने शिक्षाप्रसार को भी महत्त्व दिया ।
अच्छी शिक्षा के लिए रोचक बालसाहित्य की आवश्यकता मे उनका प्रदेय सदैव उपयोगी माना जाएगा ।
कुछ साहित्यकारों की तरह, द्विवेदी जी के जन्म की तारीख भी विवादारपद है । प्राय: उल्लेखन के अनुसार यह 4/5-6 मार्च सन् 1905 है किन्तु द्विवेदी जी की कुण्डली के अनुसार यह 5 मार्च सन् 1905 होनी चाहिए । द्विवेदी जी के आत्मजवत् पं.बद्रीनारायणा तिवारी ने यह बताया है कि सन् 1905 के पत्रानुसार यही मान्य होनी चाहिए । अनेक विद्वान भी इसे स्वीकार कर रहे हैं ।
द्विवेदी जी का संपूर्ण प्रकाशित और अप्रकाशित साहित्य एक जगह पर शायद ही कहीं मिले । इरा कमी के कारण विद्वानों ने उनकी प्रकाशित पुस्तकों की सही संख्या अलग-अलग बतायी है। उनकी कृतियाँ इतस्तत: बिखरी हैं । डॉ. रमणलाल तलाटी सोहनलाल द्विवेदी का काव्य में वर्णित पुस्तकों के अतिरिक्त मुझे उनकी रची पुस्तकें और मिली हैं, तुलसीदल और मैं कहता आँखों की देखी । इनका उल्लेख डॉ. अलका प्रदीप संपादक ने 'एक कवि एक देश’ में किया है । अत: मैंने अपने अध्ययन और समीक्षा परिधि में इनका सन्निवेश किया है ।
द्विवेदी जी की बालसाहित्य की चौबीस उपलब्ध पुस्तकों की तालिका डॉ. सुरेन्द्र विक्रम ने अपनी पुस्तक हिन्दी बालसाहित्य विविध परिदृश्य में प्रस्तुत की है । इनमें यह मेरा हिन्दुस्तान (1974) जय जय स्वदेश (1974) तितलीरानी (1974) एक गुलाब (1976) गीत भारती (1979) सुनो कहानी (1983) रामू की बिल्ली (1983) फूल हमेशा मुस्काता (1983) शिशु गीतिका (1985) प्यारे प्यारे तारे चमको (1985) का संदर्भ है ।
द्विवेदी जी की एक रचना उनकी दूसरी पुस्तक में दुहरायी गयी है । उनकी यह प्रवृत्ति बालसाहित्येतर पुस्तकों में भी विद्यमान है । अत: मैंने बालसखा, बालभारती और अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित रचना-नदियों में डुबकियाँ लगायी, हर-हर गंगे कह कर । वीणा, नवनीत, वागर्थ, कादंबिनी आदि पत्रिकाओं और समाचारपत्रों के साहित्य परिशिष्टों में कई विद्वानों के आलेख द्विवेदी जी और उनके साहित्य पर प्रकाशित हैं ऐसे सभी आलेखों को भी, एक जगह एक पुस्तकालय मे रखना व्यावहारिक होगा । इस प्रकार हम हिन्दी और अन्य भगिनी भाषाओं के कवियों के कीर्ति-रक्षण के साथ आत्मकल्याण भी करेगे । वैज्ञानिक आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल इसलिए होना ही चाहिए । मैंने इस रचना में सर्वश्री डॉ. बद्री नारायण तिवारी, डॉ. अलका प्रदीप, अमर बहादुर सिह अमरेश, मगन अवस्थी, विनोदचन्द्र पाण्डेय, विनोद, डॉ. सुरेन्द्रविक्रम, डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, डॉ. शमशेर अहमद खान, डॉ. प्रतीक मिश्र आदि की कृतियों से जो 'नवनीत’ प्राप्त किया है उसे ही मै प्रसाद रूप मे कुछ कुछ वितरित करने का आनन्द ग्रहण करता हूँ ।
इन विद्वानों के साथ-साथ, उ. प्र. हिन्दी संस्थान लखनऊ के निदेशक और सस्थान परिवार तथा मुद्रक महोदय और डॉ. सरोजनी पाण्डेय डी० लिट्० आदि के प्रति बहुत आभारी हूँ । संस्थान ने अपनी शुभ योजनान्तर्गत इस पुस्तक का प्रकाशन किया, उससे मैं उपकृत हुआ हूँ । अनुजा डॉ. पाण्डेय ने तो मुझे अनुग्रहीत कर दिया, सराहनीय पुरोवाक् लिख कर ।
अनुक्रम
1
प्रथम अध्याय
(अ)
चिनगारियों की पृष्ठ भूमि
(आ)
गांधीवाद के अनुयायी कवि
2
(क)
राष्ट्रकवि
(ख)
बालसाहित्य के महावीर प्रसाद द्विवेदी
4
द्वितीय अध्याय
स्वातंत्र्यपूर्व की जीवन्त भैरवी
6
मिठाई नहीं आजादी
गांधी जी का जादू
7
प्रारंभिक कविताएँ
9
(ग)
काव्यपाठ का प्रभाव
10
(घ)
क्रान्तिमार्ग के यात्री
12
(ङ)
गांधी जी की आराधना में
13
तृतीय अध्याय
स्वराज्य मे सुराज्य का ऊँचास्वर
18
बदलो यह इतिहास रे
साधनास्थली बिन्दकी
19
व्यक्तित्व तथा स्वभाव
20
प्रोत्साहक तथा प्रेरक
22
पहला बालकवि सम्मेलन
25
सराहनीय क्षमाशीलता
(च)
एक मृत्यु और
26
(छ)
श्रद्धाञ्जलियँ
27
चतुर्थ अध्याय सृजन और संपादन पद्य
भैरवी
34
वासवदत्ता
36
3
कुणाल
37
चित्रा
38
5
वासन्ती
40
प्रभाती
पूजागीत
41
8
युगाधार
विषपान
42
सेवाग्राम
43
11
चेतना
सुजाता
44
जयगांधी
45
14
मुक्तिगन्धा
15
तुलसीदल
गद्य
16
मैं कहता आँखो की देखी सम्पादितग्रन्थ
46
17
अधिकार
47
गाँधी अभिनंदन ग्रन्थ
बालसखा
गाँधी शतदल
21
झण्डा ऊँचा रहे हमारा
पंचम अध्याय बालसाहित्य की प्रतिष्ठा में योगदान
स्वतंत्र्यपूर्व और पश्चात् का बालसाहित्य
50
शिशुओं की कविताएँ और गीत
51
बाल कविताएँ और गीत
55
प्रकृति विषयक कविताएँ
56
देशभक्ति की कविताएँ
कविताओं में त्योहार और पर्व
57
अप्रतिम योगदान
58
पष्ठ अध्याय भावपक्ष के साथ कलापक्ष भी
भावपक्ष
59
कलापक्ष
61
छंद
62
अतुकान्त छन्द
63
मुक्त छन्द
भाषा एवं शब्द-योजना
तत्सम शब्दावली
नादात्मक ध्वनि सौन्दर्य
64
तद्भव एवं देशज शब्द
विदेशी शब्द
मुहावरे
66
अलंकार
(ज)
बिम्ब
67
(झ)
प्रतीक
68
सप्तम अध्याय समग्रत: तथा परिशिष्ट
71
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