विचारशील व्यक्ति अगर ज्यादा बीमार रहने लगे तो इस बात को ज्यादा संभावना वह देर-सबेर एक अच्छा चिकित्सक भी बन जाए। मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ है। दरअसल, मेरी बीमारियों ने ही मेरी रुचि चिकित्सा में पैदा की। शायद मेरी यह आपबीती आपको भी मुश्किलों में जीने का हौसला दे, इसलिए बताता हूँ।
होश सँभालने से लेकर 18-20 वर्ष की उम्र तक ऐसा कोई समय याद नहीं आता, जब मैं पूरी तरह स्वस्थ रहा होऊँ। कई बार हालत इतनी गंभीर हुई है कि गाँव-परिवार के लोग मेरे जीवित बचने की आस तक छोड़ बैठे हैं। कितनी अंग्रेजी दवाएँ हलक के नीचे उतार चुका हूँ, इसका अनुमान लगाना मेरे लिए भी मुश्किल ही है। एक दौर ऐसा भी रहा, जब इंजेक्शन, टेबलेट और कैप्सूल ही जिंदगी के पर्याय लगने लगे थे। असल में बचपन में ही कुछ ऐसे हादसों से गुजरना पड़ा कि मेरा यह हाल हुआ। डॉक्टरी अनुमान यह था कि मैं तीस वर्ष की उम्र शायद ही पार कर पाऊँ। आँतें, यकृत, फेफड़े और गुरदे एक ऐसे बीमार शरीर की तसवीर प्रस्तुत कर रहे थे, जो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लिए भी असाध्य था। कम उम्र में ही अम्लपित्त, अल्सर, मेनिनजाइटिस, डायबिटीज, पोलीपस और नजला जैसी कई-कई बीमारियों का दंश सहना पड़े तो आखिर शरीर भी कितना साथ देगा?
खैर, मौत प्रश्नचिह्न बनकर मेरे सामने खड़ी थी, लेकिन असल बात यह कि हिम्मत मैंने बनाए रखी। मुसीबतें निजी हों या दूसरों की, परेशान तो करती हैं, बल्कि दूसरों के दुःख मुझे ज्यादा परेशान करते हैं, पर हताशा या निराशा जैसी चीज को कभी मैंने पास नहीं फटकने दिया है। यह मेरा कोई जन्मजात गुण नहीं है, बल्कि अभ्यास से इसे मैंने हासिल किया है। बचपन में जितने डरपोक स्वभाव का मैं रहा हूँ, शायद कम लोग वैसे होंगे। लेकिन पुस्तकें जुटाने और स्वाध्याय की प्रवृत्ति मेरी शुरू से रही तो महापुरुषों और क्रांतिकारियों की जीवनियाँ भी मैंने खूब पढ़ीं। जीवन को सार्थक बनाने की प्रेरणा मुझे इन युगपुरुषों के समाज परिवर्तन के लिए किए गए संघर्षों से ही मिली।
ह सच है कि अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति के यह नाम कई क्रांतिकारी उपलब्धियाँ दर्ज हैं, पर इस पद्धति के अनगिनत दुष्प्रभाव इसकी सार्थक उपादेयता पर प्रश्नचिह्न लगा देते हैं। मेरा निश्चित मत है कि यह चिकित्सा पद्धति मनुष्य को जितना स्वस्थ बनाएगी, उससे कहीं ज्यादा उसे नई-नई बीमारियों की सौगात देगी। पश्चिम की इस चिकित्सा पद्धति पर मेरे आरोप की वजह यह नहीं है कि मैं स्वदेशी भक्त हूँ, वरन् यह मेरे जीवन का भोगा हुआ यथार्थ है, जिसे मैं पीछे बयान कर चुका हूँ। वैसे निष्पक्ष मानसिकतावाले आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पुरोधाओं की भी यह स्वीकारोक्ति है कि चिकित्सा के क्षेत्र में तमाम नई-नई खोजों के बावजूद एलोपैथी बीमारियों पर काबू पाने में नाकाम रही है। उल्टे इसने स्वास्थ्य संबंधी कई गंभीर जटिलताएँ पैदा की हैं। एकमात्र वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति के रूप में सारे संसार में प्रचारित की गई एलोपैथी के दुष्प्रभाव अब आम लोग भी महसूस करने लगे हैं। यही वजह है कि बार-बार हाशिये पर धकेले जाने के बावजूद आयुर्वेद, यूनानी, प्राकृतिक चिकित्सा, होम्योपैथी, एक्यूप्रेशर, सिद्ध आदि चिकित्सा पद्धतियों की ओर लोगों का ध्यान अब ज्यादा जाने लगा है। आयुर्वेद का तो स्थापना सिद्धांत ही है-प्रयोगः शमयेद व्याधिं यो नैवान्यमुदीरयेत्। नासौ विशुद्धः शुद्धस्तु शमयेद यो नः कोपयेत् ॥ अर्थात् जो औषधीय प्रयोग रोग का शमन तो करता है, परंतु दूसरी किसी व्याधि को उत्पन्न नहीं करता, वही शुद्ध प्रयोग है।
भारतीय समाज के अनुकूल निरापद चिकित्सा पद्धतियों की दृष्टि से आयुर्वेद, योग, होम्योपैथी, एक्यूप्रेशर तथा प्राकृतिक चिकित्सा पर मेरे विशेष अनुभव रहे हैं। अलबत्ता, आयुर्वेद में मेरी विशेष रुचि रही है। इसलिए कि यह सिर्फ रोगों के इलाज का ही नहीं, बल्कि एक पूरी जीवन पद्धति का विज्ञान है। थोड़ी गहरी दृष्टि डाली जाए तो योग, एक्यूप्रेशर और प्राकृतिक चिकित्सा भी आयुर्वेद से इतर नहीं हैं। अगर प्राकृतिक चिकित्सा की कुछ अव्यावहारिकताओं को छोड़ दिया जाए तो यह आयुर्वेद के पथ्य- अपथ्य तथा पंचकर्म विज्ञान का ही एक तरह से विस्तार है।
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