पुस्तक के विषय में
एलुत्ततिकारम् और र्चाल्लतिकारम् द्वारा लिखी गई पुस्तक हिन्दी ताल्काप्पियम् मूल तमिल का अनुवाद है । पुस्तक की रचना उन संस्कृतज्ञ विद्वानों के लिए गई थी जो तमिल के प्राचीन काव्यों का रसास्वादन करना चाहते थे पर भाषा से अनभिज्ञ थे । प्रस्तुत पुस्तक में लिपि, व्याकरण, कोश, वाक्चातुर्य, काव्यतत्व आदि सभी का समावेश किया गया है । पुस्तक में जहां तमिल शब्द अथवा वाक्य उद्धृत किए गए हैं वहां तमिल अक्षरों का अक्षर-प्रत्यक्षर लिप्यंतरण परिवर्धित देवनागरी में किया गया है ।
प्रतिष्ठित साहित्यकार एवं अनुवादक श्री काशीराम शर्मा अनुवाद क्षेत्र में एक जानी मानी हस्ती हैं। इनका जन्म 1 फरवरी 1925 में हुआ । इन्होंने संस्कृत एवं हिंदी में स्नातकोत्तर और एल.एल.बी. की उपाधि प्राप्त की हुई है । इन्हें संस्कृत, अंग्रेजी, गुजराती, पंजाबी, मराठी, तमिल आदि भाषाओं का ज्ञान है ।
मौलिक लेखन : भारतीय वाड्मय पर दिव्यदृष्टि हिंदी व्याकरण मीमांसा द्रविड़ परिवार की भाषा हिंदी आदि ।
अनूदित कृतियां : अंग्रेजी से हिंदी : डॉ: नगेंद्र संपादित भारतीय साहित्य के लिए मराठी और तेग साहित्य का इतिहास-)1956। संस्कृत से हिंदी: डॉ: नगेंद्र संपादित भारतीय शास्त्र के लिए दशरूपक और व्यक्ति विवेक के स्वचयनित अंश-1956। अंग्रेजी से संस्कृत : भारतस्य संविधानम् -1984-85। सम्मान/पुरस्कार : भारत के विधि मंत्रालय द्वारा भारतस्य संविधानम् के लिए रजतपत्र-1985 नटनागर शोध संस्थान, सीतामऊ द्वारा मानपत्र-1984 हिंदी सेवा संसद चुरू द्वारा प्रशंसा पत्र और स्वर्णपदक-1991, राजस्थान शासन द्वारा हिंदी सेवा के लिए सम्मान-2003, केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो दिल्ली द्वारा विशिष्ट सम्मान-2003 आदि सम्मान प्राप्त हुए ।
आत्म-निवेदन
इस निवेदन में विगत सत्तर वर्षो की पूंजीभूत पीड़ाओं की अत्यल्प अभिव्यक्ति है । इसमें यत्र-तत्र मंगल-उत्सव-पर्व भी दृष्टिगोचर होंगे अन्यथा केवल वेदनाओं से पाठक उद्विग्न हो जाएंगे ।
जीवन के आठवें वर्ष के मध्य में नगर के अंग्रेजी शिक्षा-समन्वित विद्यालय का छात्र बना । उससे पूर्व पिताश्री की पाठशाला में तथा उससे कहीं अधिक घर पर संस्कृत की शिक्षा पाता रहा था । नौ वर्ष पूरे होते होते लघु सिद्धांत कौमुदी पढ़ चुका था । सारस्वत व्याकरण पढ़नेवाले छात्रों के पास बैठ कर उसका भी परिचय पा चुका था । पिताश्री बार बार कहते : यद्यपि बहु नाधीषे तथापि पुत्र पठ व्याकरणम् । यह भी बताते कि इससे भाषा पर पूर्ण अधिकार प्राप्त होगा। इसमें कुछ भी अनावश्यक नहीं है, निरर्थक तो हो ही नहीं सकता । सब कुछ परम उपयोगी है । दस वर्ष का होने पर विद्यालय की चौथी कक्षा में हिंदी व्याकरण पढ़ने को मिला । पहला संशा प्रकरण था । संस्कृत व्याकरण में भी वही पढ़ा था । पर यह तो संसार ही भिन्न था। संस्कृत का संज्ञा प्रकरण परम उपयोगी था । हिंदी के संज्ञा प्रकरण की उपयोगिता समझ में नहीं आई। संज्ञाओं के तीन भेद-जातिवाचक, व्यक्तिवाचक, भाववाचक; तीनों की परिभाषाएं जाति का बोध कराती है, व्यक्ति का बोध कराती है, भाव कां बोध कराती है । यह तो नाम से ही स्पष्ट था । वाक्य के शेष पदों के साथ संज्ञा के संबंध को समझने में इनकी कोई भूमिका नहीं। न लिंग निर्णय में कोई सहयोग; न आख्यात पद या विशेषण पद के साथ संबंध जानने में कोई सहायता । सब कुछ कोरा बुद्धिविलास । पिताश्री को पुस्तक दिखाई तो बोले यह व्याकरण नहीं, ग्रामर होगा । वर्गीकरण संस्कृत में भी था । रूप रचना में पुंल्लिंग-स्त्रीलिंग-नपुंसकलिंग का भेद था । अजंत-हलंत का भेद था । अकारान्त-इकारान्त आदि के उपभेद थे । सभी की महत्वपूर्ण भूमिका थी । हिंदी में सर्वनाम-विशेषण-क्रियाविशेषण सब के भेदोपभेद पर रूप विचार में उपयोगिता अज्ञात । पुरुषवाचक सर्वनाम के तीन उपभेद-उत्तम, मध्यम, अन्य (प्रथम नही) । संस्कृत में ये पुरुष भेद धातुरूपों में पड़े, वे सर्वथा उपयोगी थे । उत्तम पुरुष का प्रयोग अस्मद् के साथ; मध्यम का युष्मद् के साथ; शेष सब के साथ प्रथम का । एकवचन आदि का भी तत्तत् वचन के साथ आवश्यक संबंध । हिंदी में मैं-तुम तो केवल तथाकथित वर्तमान काल में और केवल हूं-हो सहायक आख्यातों के रूप में प्रयुक्त होंगे । पर शेष सभी सर्वनाम-संज्ञा-विशेषण तो जो आख्यात रूप ग्रहण करेंगे केवल वचन के आधार पर या लिंग के आधार पर, जो आधार संस्कृत में नहीं था । पुरुष भेद की उपयोगिता यदि थी तो वह केवल मैं हूं तुम हो में अन्यत्र कहीं किसी काल में नहीं । फिर भी सर्वनाम और क्रिया पदों के प्रसंग में पुरुष भेद पढ़े, दी हुई मनमानी परिभाषा के साथ कि यह कहने वाला, वह सुनने वाला और तीसरा अन्य जन । हम जानते हैं कि 'हम' के अर्थ में सुनने वाला भी सम्मिलित हो सकता है, अन्य जन भी । पर व्याकरण नहीं मानता । हम ने मान लिया व्याकरण का आदेश क्योंकि उत्तीर्ण होना था । सातवीं कक्षा में गुरुदेव पुल्लिंग को स्त्रीलिंग में परिवर्तित करने की विधि पढ़ा रहे थे । लंबी सूची रटनी थी-बाप-मां भाई-बहन, बैल-गाय आदि । जिज्ञासावश पूछ बैठा-गुरु जी, गाय का पुल्लिंग तो सांड होना चाहिए, बैल तो नपुंसक है । गुरु जी ने हाथ पर कस कर डंडा मारा । हाथ सूज गया; पीड़ा भी हुई । वह पीड़ा तो सायंकाल तक मिट गई । किंतु दिल में लगी चोट अब तक कचोट रही है । एक दिन पोती पुल्लिंग-स्त्रीलिंग की सूची याद करके सुनाने लगी । मैंने सुनी । सब सही थी-यादृशं पुस्तके दृष्टम् । फिर मैंने पूछा-बेटी, भाई का स्त्रीलिंग बहन, तो बहनोई का बताओ । बोली-पुस्तक में नहीं है, आप बताएं । मैंने कहा-तो कुछ नहीं होता होगा । कहता कि यह सब रटाई व्यर्थ है तो पोती को पचास अंकों में से पांच की निश्चित हानि होती । जो चीज भाषा शिक्षा में निरर्थक है, वह अंक प्राप्ति में परम सार्थक थी । अस्तु, आठवीं कक्षा के बाद मेरा व्याकरण से पिंड छूट गया ।
विद्यालय में एक और विषय पढ़ा-इतिहास । दसवीं कक्षा तक पढ़ना आवश्यक था । गुरुदेव बताते थे कि हमारे देश को इतिहास गौरवमय है । किंतु पुस्तकों से कुछ और ही जानकारी मिली। मनु पुत्र मानव ने धरा धाम पर अवतार कोई पांच लाख वर्ष पूर्व धारण किया । यह वैज्ञानिकों का कथन है । वे ही बताते हैं कि कोई तीन लाख वर्ष पूर्व प्रोमेथियस स्वर्ग से अग्नि चुरा लाया । दो लाख वर्ष पूर्व पहिये का आविष्कार कर चुका किंतु चार लाख पचानवे हजार वर्ष तक उसने भारत की अपावन भूमि को अपनी चरण रज से पूत नहीं किया, यह इतिहासविदों का कथन है पहला कृपालु मानव था हबश जो अंधमहाद्वीप से भटकता हुआ आ गया । फिर किरात-निषाद-द्रविड-आर्य आदि आते गए । परंतु भारत में आया मानव इतना असभ्य था कि ढंग से लड़ना भी नहीं जानता था । पूर्व पाषाण काल में अनगढ़ पत्थर फेंकता था । उत्तर पाषाण काल में नुकीले पत्थर से निशाना साधने लगा । धीरे-धीरे धातु के हथियार भी बनाना सीखने लगा । लड़ाई के साधन ही सभ्यता का इतिहास बताते हैं । आज से पांच हजार वर्ष पूर्व भारत में आ बसने पर भी यहां का मानव कोई दो हजार छ: सौ पचहत्तर वर्ष तक प्रागैतिहासिक काल में ही रहा । पता नहीं कब तक रहता किंतु यवनान के सिकंदर महान् ने आकर कृपा कर दी और ऐतिहासिक काल का आरंभ हो गया । इतिहास तो उत्पन्न ही यवनान में हुआ था । वहीं के हेरोदोतस जन्मदाता थे । फिर इतिहास तो बना, पर विदेशियों के हाथों सतत पराजय का या लूट-पाट का । इतिहास में सतत पराजयों के कारण भी पढ़े । देश में कुछ ब्राह्मण थे । बिलकुल निकम्मे पर' परलोक सुधारने का आश्वासन देकर माल-मलीदा खाते थे । कुछ क्षत्रिय थे जो उतने ही निकम्मे पर रक्षा का आश्वासन देकर राजमहलों का सुख भोगते थे । कुछ वैश्य थे, जो औरों का परिश्रम बेच कर समाज के लिए अन्न-वस्त्र जुटाने का वचन दे कर सबको लूटते थे और स्वयं विलासमय जीवन बिताते थे । शेष जनता अन्न उपजाती, पीसती किंतु स्वयं पिसती । सेवा ही उसका धर्म था । अत: वह यही मानती थी कि कोउ नृप होउ हमहि का हानी । जो भी शासन करने बाहर से आ जाता उसी की जय-जयकार बोली जाती । किंतु जो यहां आकर बस जाता वह यहां का अन्न-जल भोग कर निर्वीर्य हो जाता । जो भी नया बाहर से आता उसे पददलित कर देता । यह था हमारा इतिहास । इसे चाहे गौरवमय कहें चाहे लज्जाजनक । मन में ग्लानि होती थी । अत: महाविद्यालय में इतिहास का विषय नहीं लिया क्योंकि उसे पाठ्यक्रम में छोड़ने का विकल्प था । तीन साहित्यों के साथ लोजिक पढ़ा ।
बी. ए. में लोजिक का स्थान दर्शन ने ले लिया । एक प्रश्न पत्र का विषय एथिक्स था । यूरोप में चर्चित हुए आचार-नीति-कर्तव्य के सिद्धांतों की जानकारी मिली । भारतीय तो इन तत्वों से अनभिज्ञ थे, अत: उनका क्या उल्लेख होता । दूसरे प्रश्न पत्र में आधे में मनोविज्ञान था, आधे में भारतीय दर्शन जिसे कृपाकर के उसी वर्ष चतुर्थाश का वैकल्पिक अधिकारी बनाया गया था मेटाफिजिक्स के साथ । मनोविज्ञान तो यूरोप में ही विकसित हुआ था । हम लोग तो मन को ही सारे दोषों का मूल मानते थे अत: उसमें क्यों उलझते । रही बात भारतीय दर्शन की जिसे दो सौ में से पचास अंकों का अधिकारी बना दिया गया था । उसे पढ़ने पर विदित हुआ कि वेदो में दिशाहीन चिंतन था; यह भी नहीं, वह भी नहीं-नासदासीन्नोसदासीत् । उपनिषदों में ऊबड़खाबड़ झाड़-झंखाड़ थे । उससे देश के जैन-बौद्ध ऊब चुके थे । अपनी खिचड़ी अलग पका चुके थे । यों व्यवस्थित दर्शन जैसा कुछ नहीं था । फिर वही सिकंदर महान् काम आया । यवनान के व्यवस्थित तत्व-चिंतन का परिचय हुआ तो यहां भी थोड़े बहुत व्यवस्थित दर्शन उत्पन्न हुए-कुछ आस्तिक, कुछ नास्तिक । किंतु प्रस्तुति संश्लिष्ट ही रही-सब कुछ एकमेक, गड्ड मड्ड । यूरोप जैसी विश्लिष्टता नहीं थी ।
एम. ए. के लिए हिंदी विषय चुना । उसमें एक प्रश्न पत्र भाषा-विज्ञान का था । पूरी तरह विदेशी भाषाविदों की शोधनिपुण बुद्धि का परिणाम था । भारत का मंदबुद्धि पंडित कल्पना के घोड़ों को इतनी दूर तो क्या कुछ दूर भी नहीं दौड़ सकता । आचार्य नरोत्तमदासजी स्वामी पढ़ाते थे । उन्होंने छात्रों के लिए परीक्षोपयोगी टिप्पणियां बना रखी थीं । कक्षा में बहुत अच्छा पढ़ाते, फिर मुद्रित तुल्य सुवाच्य अक्षरों में लिखी टिप्पणियां पकड़ा देते । छात्र उनकी प्रतिलिपि करके लौटा देते । मैं प्रतिलिपि नहीं करता था । तीन बार बांच कर लौटा देता था । कक्षा में अत्यधिक अनुशासित और मौन छात्र था। किंतु मास दो मास में एक बार आचार्य जी के घर जाता और उन से उलझ जाता कि यह निरर्थक बुद्धि विलास शास्त्र के नाम पर छात्रों पर क्यों थोपा जाता है । वे धैर्य से समझाते कि जब आचाय-प्राचार्य बन जाओ तब अपने विचार पुस्तकबद्ध कर देना किंतु अभी तो ध्यान रखो कि उत्तीर्ण ही नहीं होना है, कम से कम प्रथम श्रेणी में होना है अत: यही सब पढ़ो और परीक्षा में यथावत् लिखो । अस्तु, परीक्षा में भाषा-विज्ञान का प्रश्न पत्र अंतिम था, सोमवार को था । आचार्य जी ने रविवार को घर बुलाया । मेरे हित की बात समझाई। परीक्षा में वही सब लिखना जो हमने पढ़ाया है, पुस्तकों में लिखा है । खुराफात मत लिखना । डॉ. धीरेन्द्र वर्मा जी का प्रश्न पत्र है । अंक देने में कुछ कृपण हैं । कठोर परीक्षक है । तुम्हें परीक्षाफल को ध्यान में रखना है । उसी में हम दोनों का हित है । दूसरे दिन चार प्रश्नों के उत्तर लिखते समय आचार्य के आदेश का पूरा ध्यान रखा । तब लगा कि इन चार में कम से कम पचास अंक तो आ ही जाएंगे, साठ भी संभव है । अत: पांचवें प्रश्न में मन की पूरी भडांस निकाली । प्रश्न था आधुनिक आर्य भाषाओं का वर्गीकरण । ग्रियर्सन, सुनीति बाबू धीरेन्द्र वर्मा के मतों की स्थापना में परस्पर कुछ-कुछ मतभेद थे । मैंने तीनों के मतों का मृदुमर्दन किया । सायंकाल आचार्य जी से मिला । दुःखी हुए । बोले कम से कम पंद्रह अंकों की हानि होगी । पचपन से अधिक नहीं आएंगे । परीक्षाफल आया तो पूरे पचपन ही थे । लगा कि आचार्य जी का ही प्रश्न पत्र रहा होगा । वे बोले-मेरा प्रश्न पत्र विशेष कवि तुलसी का था । वह तो डी. वर्मा का ही था । मुझे विश्वास हो गया क्योंकि तुलसी में पचासी ही अंक मिले थे । मेरी वेदना भाषा विज्ञान तक सीमित नहीं थी । साहित्य का इतिहास भी कदाचित् विदेशी विद्वानों के मार्गदर्शन में ही लिखा गया था । उसके अनुसार यदि विदेशी आक्रान्ता न आते तो हम वीरगाथा साहित्य से पूर्णत: वंचित रहते । चारण-भाटों की लेखनियां जंग खाती । पृथ्वीराज रासो की प्रेरणा ही नहीं मिलती । थोड़े बहुत जैन लेखक नीरस उपदेश रसायन लिखते रहते । खैर सौभाग्य से विदेशी आए । वीरगाथा काल का प्रवर्तन हुआ । फिर विजयी-आक्रान्ता देश में जम गए । जनता निराश हुई । भगवान की शरण ही बन गया गन्तव्य । भक्तिकाल ने साहित्य के स्वर्णयुग का विरुद पाया । जम चुके बादशाहों-नवाबों को भोगविलास की प्रभूत सामग्री मिली । यों शृंगार अथवा रीतिकाल का प्रवर्तन हुआ । अंत में आए अंग्रेज । वे तो जितनी दूरी से आए उतना ही उत्तम साहित्य साथ लाए । भारतीय लेखकों ने भी गद्य लिखना सीखा, सरस काव्य रचना सीखी, प्रकृति प्रेम सीखा । यूरोप में उत्पन्न वादों को आदर्श माना । कहानी-उपन्यास-निबंध एकांकी, पता नहीं कितनी विधाओं से परिचित हुए । अनुकृति कला अर्थात् काव्य चौर्य कला तो भारतवासी सिकंदर के समय ही सीख गए थे । अब क्यों चूकते । ये केवल इतिहासों के मंतव्य नहीं है, अनेक लेखक स्वयं सगर्व घोषित करते हैं । यही वेदना है कि विश्ववंद्य गुरु अब अनुकर्ता-अभिनेता ही उत्पन्न करता है ।
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