१९६७ के कालीकट अधिवेशन में उपाध्याय जी भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। वह मात्र ४३ दिन जनसंघ के अध्यक्ष रहे। १०/११ फरवरी, १९६८ की रात्रि में मुगलसराय स्टेशन पर उनकी हत्या कर दी गई। टखना टूटा था, सिर पर चोट लगी थी, दाहिने बांह पर खून का निशान था और मुट्ठी में ५ रुपये का नोट। ११ फरवरी को प्रातः पौने चार बजे सहायक स्टेशन मास्टर को खंभा नं० १२७६ के पास कंकड़ पर पड़ी हुई लाश की सूचना मिली। प्रातःकाल रेलवे का डाक्टर घटना स्थल पर पहुंचा और जांच-पड़ताल करने के बाद उन्हें मृत घोषित कर दिया। रेलवे पुलिस ने शव का फोटो खींचा। शव को कोई पहचान न सका और उसे लावारिस घोषित कर दिया। लगभग छः घंटे के बाद शव को प्लेटफार्म पर लाकर रखा गया। मुगलसराय नगर के संघ कार्यकर्ता गुरुबक्श सिंह कपाही ने शव की पहचान दीनदयाल उपाध्याय के रूप में की। पल भर में बिजली के करंट की तरह यह समाचार जनता में फैल गया। सभी लोग स्तब्ध रह गये । जनसंघ के अनेकानेक कार्यकर्ता वहां एकत्रित हो गये।
लखनऊ और दिल्ली को इस दुःखद घटना की सूचना तुरन्त फोन द्वारा दी गई। पू० गुरुजी को भी फोन से सूचना दी गई। दिल्ली में संसदीय दल की जो बैठक चल रही थी वह तुरन्त स्थगित हो गई। भागदौड़ शुरू हो गई। चारों ओर शोक की लहर फैल गई। लोगों ने कहा कि ऐसे कर्मयोगी और तपस्वी के प्राणों का दुश्मन कौन बन बैठा। यह रहस्य अभी तक बना हुआ है।
प्रोफेसर विवेकानंद तिवारी धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक विषयों के विद्वान हैं। तिवारी टोला, भभुआ, कैमूर (बिहार) में जन्मे, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से शिक्षित प्रो० तिवारी की १५० से ज्यादा पुस्तकें और २४५ से ज्यादा शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं। अनेक संस्थाओं से प्रो. तिवारी को प्राप्त सम्मानो में 'भारत-भारती सम्मान', 'मालवीय शिक्षा सम्मान', 'राष्ट्र गौरव सम्मान', 'यू०पी० गौरव सम्मान', 'शारदा शताब्दी सम्मान' एवं 'महाशक्ति सम्मान' विशेष उल्लेखनीय हैं। सम्प्रति आप अम्बेडकर पीठ (हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला) के अध्यक्ष हैं।
द्रष्टा, राजनीतिज्ञ, सज्जन शक्ति एका के समर्थक, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अल्प जीवन काल में एक युग पुरुष के रूप में अवतरित ही हुए। सामान्यतः देखने में आता है कि अभाव में पुष्पित पल्लवित होकर समाज में स्थान बनाने वाले विरले पुरुष ही होते हैं। कहते हैं, गरीबी बहुत बड़ी पाठ-शाला है। कदाचित पंडित जी का प्रारम्भिक जीवन भी अत्यंत कठिन, अभावग्रस्त और परिस्थिति जन्य विषमताओं के कारण असामान्य रहा। इस असामान्य जीवन ने उनमें असामान्य प्रतिभा का संचार किया फलस्वरूप वे दृष्टा, चिंतक और समष्टि से परमेष्ठि तक के ताने-बाने को न केवल समझा अपितु उस सुक्ष्म और गूढ-दर्शन को समाज जीवन के व्यवहार पक्ष से जोड़ते हुए सरलतम शब्दों में निरूपित कर एकात्म- मानववाद जैसे समयानुकूल दर्शन को हम सभी के समक्ष रखा। आज के इस जटिल विषम भौतिकोपचारिक समाज के लिए पंडित जी द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानवदर्शन किसी संजीवनी सुधा से कम नही है। इस तरह की संकल्पना को प्रतिपादित करना किसी सामान्य नश्वर के बस की बात नही है। वे कुशाग्र, उच्च कोटी के आदर्शवादी एवं सर्व उदय भाव के प्रणेता थे। एकात्म मानवदर्शन की संकल्पना पंडित जी के जीवन के बहुत ही प्रारम्भिक राजनैतिक और वैचारिक यात्रा के उत्कर्ष काल में अभी प्रारम्भ ही हुआ था, जो उन्होंने मुंबई के यात्रा के दौरान भाषणों में अभिव्यक्त किया था। उस समय ये विचार अपने शैशव अवस्था में ही रहा उन्हें इस मानव दर्शन पर कार्य करने के लिए पर्याप्त समय भी नहीं मिल पाया क्योंकि अध्यक्ष होने के कारण उनका अधिकाँश समय देशाटन और पर्यटन में ही चला जाता था और अगले तीन चार वर्षों में ही उनकी असामयिक मृत्यु हो गयी। जिस कारण उस एकात्म मानव दर्शन सिद्धांत को परिपक्व होने का समय ही नहीं मिला और उनकी निर्मम हत्या हो गयी। उस एकात्म मानव दर्शन के मूल सिद्धांत को समझ कर उसके मूल को व्यवस्थित कर समक्ष रखने का सामर्थ्य अभी की भारतीय जनता पार्टी के नेत्रित्व पीढ़ी में नहीं दिखती है। उनके विचार, सूत्र अवस्था में हैं लेकिन वो ज्यादा व्यवस्थित और विस्तृत रूप में हमारे पास आ सकते थे। उससे वर्तमान समय की राजनैतिक विमर्श में बदलाव भी दीखता। पंडित जी ने लोहिया से गठबंधन की राजनीति और अखंड भारत के सन्दर्भ में भी गंभीर मंत्रणा उस समय की थी जब इस प्रकार के विचार के औचित्य को भी सिरे से नकार दिया जाता, जिसपर लोहिया जी ने प्रखरता से उनका समर्थन किया था। और योजना बनायीं जाने लगी की कांग्रेस के विकल्प के रूप में एक मंच की स्थापना की जा सकती है। दुर्भाग्य से वो उस समय चले गए जब उनके विचार अत्यंत शैशव अवस्था में थे। कई बार ऐसा भी लगता है की उनके रहस्यमय मृत्यु के पीछे उनकी दूरगामी सोच भी एक महत्वपूर्ण कारण रहा होगा।
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