दो शब्द :-
सन् 1918 व ई० का अप्रैल या मई का महीना था । रात्रि के शेष प्रहर में विश्वबन्धु का यह भ्रमण-वृतान्त, स्वप्र और जागृत दोनों अवस्थाओं में से नहीं कहा जा सकता कि किस अवस्था में, दृष्टिगोचर हुआ। उसी समय क्रमानुसार इसका एक संक्षिप्त विवरण लिख लिया गया था; किन्तु समयाभाव से उसे विस्तारपूर्वक प्रकाशनोपयोगी न किया जा सका था । वह संक्षिप्त विवरण एक मित्र की असावधानी से जो गया । कितने ही समय तक प्रतीक्षा करने पर भी जब उसके मिलने की आशा बिल्कुल न रही, तब ,स्मृति से जहाँ तक हो सका, बहुत संक्षेप में यह निबन्ध हजारीबाग जेल में 9-2-24 से लिखा गया। यद्यपि मूल अंशों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ होगा, किन्तु बाहरी बातों में अनेक हेरफेर होना बिल्कुल सम्भव किस अभिप्राय से यह पुस्तक लिखी गई, एवं कहीं तक इसमें सफलता हुई, यह पाठकों ही पर छोड़ा जाता है।
तृतीय संस्करण
इस संस्करण में भी बिना भारी परिवर्तन के कितने ही संशोधन कर दिये गये है । बाइसवीं सदी की पूर्वगामिनी ''सोवियत् भूमि'' मौजूद है, उससे पता लगता है, कि दुनिया किधर जा रही है ।
प्रकाशकीय
हिन्दी साहित्य में महापंडित राहुल सांकृत्यायन का नाम इतिहास-प्रसिद्ध और अमर विभूतियों में गिना जाता है । राहुल जी की जन्मतिथि 9 अप्रैल, 1893 और मृत्युतिथि 14 अप्रैल, 1963 है । राहुल जी का बचपन का नाम केदारनाथ पाण्डे था । बौद्ध दर्शन से इतना प्रभावित हुए कि स्वय बौद्ध हो गये। 'राहुल' नाम तो बाद मैं पड़ा-बौद्ध हो जाने के बाद । 'साकत्य' गोत्रीय होने के कारण उन्हें राहुल सास्मायन कहा जाने लगा। राहुल जी का समूचा जीवन घूमक्कड़ी का था। भिन्न-भिन्न भाषा साहित्य एव प्राचीन संस्कृत-पाली-प्राकृत-अपभ्रंश आदि भाषाओं का अनवरत अध्ययन-मनन करने का अपूर्व वैशिष्ट्य उनमें था । प्राचीन और नवीन साहित्य-दृष्टि की जितनी पकड और गहरी पैठ राहुल जी की थी-ऐसा योग कम ही देखने को मिलता है । घुमक्कड जीवन के मूल में अध्ययन की प्रवृत्ति ही सर्वोपरि रही । राहुल जी के साहित्यिक जीवन की शुरुआत सन् 1927 में होती है । वास्तविक्ता यह है कि जिस प्रकार उनके पाँव नही रुके, उसी प्रकार उनकी लेखनी भी निरन्तर चलती रही । विभिन्न विषयों पर उन्होने 150 से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया हैं । अब तक उनक 130 से भी अधिक ग्रंथ प्रकाशित हौ चुके है । लेखा, निबन्धों एव भाषणों की गणना एक मुश्किल काम है।
राहुल जी के साहित्य के विविध पक्षी का देखने से ज्ञात होता है कि उनकी पैठ न केवल प्राचीन-नवीन भारतीय साहित्य में थी, अपितु तिब्बती, सिंहली, अग्रेजी, चीनी, रूसी, जापानी आदि भाषाओं की जानकारी करते हुए तत्तत् साहित्य को भी उन्होंने मथ डाला। राहुल जी जब जिसके सम्पर्क मे गये, उसकी पूरी जानकारी हासिल की । जब वे साम्यवाद के क्षेत्र में गये, तो कार्ल मार्क्स लेनिन, स्तालिन आदि के राजनातिक दर्शन की पूरी जानकारी प्राप्त की । यही कारण है कि उनके साहित्य में जनता, जनता का राज्य और मेहनतकश मजदूरों का स्वर प्रबल और प्रधान है।
राहुल जी बहुमुखी प्रतिभा-
सम्पन्न विचारक हैं । धर्म, दर्शन, लोकसाहित्य, यात्रासाहित्य इतिहास, राजनीति, जीवनी, कोश, प्राचीन तालपोथियो का सम्पादन आदि विविध सत्रों मे स्तुत्य कार्य किया है। राहुल जी ने प्राचीन के खण्डहरों गे गणतंत्रीय प्रणाली की खोज की । सिंह सेनापति जैसी कुछ कृतियों मैं उनकी यह अन्वेषी वृत्ति देखी जा सकती है । उनकी रचनाओं मे प्राचीन के प्रति आस्था, इतिहास के प्रति गौरव और वर्तमान के प्रति सधी हुई दृष्टि का समन्वय देखने को मिलता है । यह केवल राहुल जी जिहोंने प्राचीन और वर्तमान भारतीय साहित्य-चिन्तन को समग्रत आत्मसात् कर हमे मौलिक दृष्टि देने का निरन्तर प्रयास किया है । चाहे साम्यवादी साहित्य हो या बौद्ध दर्शन, इतिहास-सम्मत उपन्यास हो या 'वोल्गा से गंगा की कहानियाँ-हर जगह राहुल जा की चिन्तक वृत्ति और अन्वेषी सूक्ष्म दृष्टि का प्रमाण गिनता जाता है । उनके उपन्यास और कहानियाँ बिलकुल एक नये दृष्टिकोण को हमारे सामने रखते हैं।
समग्रत: यह कहा जा सक्ता है कि राहुल जी न केवल हिन्दी साहित्य अपितु समूल भारतीय वाङमय के एक ऐसे महारथी है जिन्होंने प्राचीन और नवीन, पौर्वात्य एवं पाश्चात्य, दर्शन स्वं राजनीति और जीवन के उन अछूते तथ्यों पर प्रकाश डाला है जिन पर साधारणत: लोगों की दृष्टि नहीं गई थी । सर्वहारा के प्रति विशेष मोह होने के कारण अपनी साम्यवादी कृतियों में किसानों, मजदूरों और मेहनतकश लोगों की बराबर हिमायत करते दीखते है।
विषय के अनुसार राहुल जी की भाषा- शैली अपना स्वरुप निधारित करती है। उन्होंने सामान्यत: सीधी-सादी सरल शैली का ही सहारा लिया है जिससे उनका सम्पूर्ण साहित्य विशेषकर कथा-साहित्य-साधारण पाठकों के लिए भी पठनीय और सुबोध है।
प्रस्तुत पुस्तक ''बाईसवीं सदी" राहुल जी की श्रेष्ठतम कृतियों में एक है । इस पुस्तक में राहुल जी ने एक परिकल्पना की है जिसके अनुसार आज से दो सौ वर्षों बाद अर्थात् बाईसवीं सदी तक संपूर्ण वर्तमान व्यवस्था में अमूलभूत परिवर्तन होकर धर्मरहित समाज की स्थापना होगी विज्ञान की उत्रति अपनी चरम सीमा पर होगी । जनसंख्या वृद्धि, पर्यावरण, अशिक्षा आदि की वर्तमान समस्यायें नहीं रहेंगी। इसी प्रकार फलों,फूलों एवम् अत्रों की खेती सहज, सुलभ और अधिक उत्पादन देने वाली होगी। विभित्र भाषाओं के स्थान पर मात्र एक सर्वग्राह्य भाषा, सभी चीजों पर राष्ट्र का स्वामित्व होगा। पुलिस के स्थान पर सेवक, जाति उन्मूलन तथा "एक वर्ण मिदं सर्मत" को स्थाइत्व स्वरूप मिलेगा । उन्हीं के शब्दो में 'संसार का उपकार अनेक भाषाओं को सुदृढ़ करने में नहीं है बल्कि सबके आधिपत्य को उठाकर एक को स्वीकार करने में है। प्रस्तुत पुस्तक में राहुल जी ने बड़े ही कौशलपूर्ण ढंग से वर्तमान समाज में व्याप्त कुरीतियों को उजागर करते हुये उन पर करारा प्रहार किया है तथा विभित्र आयामों को विस्तृत भूगोल एवम् विज्ञान के मानचित्रों पर एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी को सामने रखते हुये देखने, समझने की कोशिश की है । यह कार्य अत्यन्त कठिन था जिसे राहुल जी ऐसे महान् विद्वान् ही कर सकते थे।
पुस्तक की पाठ्य सामग्री अत्यन्त ही सरल भाषा व रोचकपूर्ण है जो इसके पाठकों को अपनें साथ बड़ी सहजता से शुरू से अंत तक जोड़े रहती है।
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