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वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदीरत्नाकरः-Vaiyakaran Siddhanta Kaumudi Ratnakara Compiled by Bhattashri Ramakrishna (Critical Editing of the Ratnakaravyakhya)

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Item Code: HBC298
Author: Edited By Azad Mishra Madhukar
Publisher: Satyam Publishing House, New Delhi
Language: Sanskrit Only
Edition: 2024
ISBN: 9789359095813
Pages: 1929
Cover: HARDCOVER
Other Details 9.00 X 6.00 inch
Weight 2.92 kg
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Book Description
पुस्तक परिचय
सिद्धान्तरत्नाकर सिद्धान्तकौमुदी की प्रथम समीक्षात्मक व्याख्या है। इसमें अनावश्यक विस्तार नहीं है तथा प्रत्येक सूत्र के उद्देश्य, विधेय और उदाहरणों की प्रक्रिया भी नहीं बताई गयी है, किन्तु जिन सूत्रों में दीक्षित जी ने प्राचीनों से अलग विचार रखा है, रामकृष्ण जी ने उन विचारों की समीक्षा अवश्य की है। उन्होंने जिनके विचार लिए हैं, आदर के लिए उन आचार्यों के नाम का संकेत भी किया है। कुछ सूत्रों में जटिल व्याख्यान की स्पष्ट व्याख्या की गयी है। उनकी उस व्याख्या से तत्त्वबोधिनीकार तथा परवर्ती हरिदीक्षित, नागेश एवं अन्य व्याख्याकार बहुत प्रभावित हैं। भैरव मिश्र एवं शब्देन्दुशेखर के अन्य व्याख्याकारों ने रामकृष्ण की सभी उ‌द्भावनाओं को अपनी-अपनी शैली में प्रस्तुत करने का पूरा प्रयास किया है। इस प्रकार सिद्धान्तरत्नाकर को हम प्राच्य और नव्य वैयाकरणों के सिद्धान्त-रत्नों का रत्नाकर की भाँति गुरु गभीर आकर कह सकते हैं।

लेखक परिचय
जन्म: 25 अक्टूबर 1949, ग्राम पत्रालय- परसिया मिश्र, जनपद-देवरिया, उ.प्र.

शिक्षा: आचार्य, एम.ए., पीएच-डी (भाषाशास्त्र)

अनुभव: प्रवक्ता सितम्बर 1971 मार्च 1987 बीकानेर, इलाहाबाद

मई 2002 से अक्टूबर 2014 तक भोपाल, म.प्र.

पुरस्कार एवं सम्मानपत्र : विश्वविद्यालयी स्वर्ण एवं रजत पदक

प्रवाचकः अप्रेल 1987-2002 के.सं.वि.पी., लखनऊ

उ.प्र.सं.अ.-महर्षिव्यास पुरस्कार, नामित पाणिनि पुरस्कार, विशेष पुरस्कार।

उ.प्र.हि.सं. विशेष पुरस्कार, म.प्र. लेखक संघ पुरस्कार, नागकूपशास्त्रार्थ समिति, वाराणसी-आचार्य शिवकुमार शास्त्री

पुरस्कार एवं अभिनन्दन ग्रन्थ सम्मान आदि।

पुरोवाक्
अर्थप्रवृत्तितत्त्वानां शब्दा एव निबन्धनम्। तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति व्याकरणदृते ।।

इति भर्तृहरि प्रतिपादितसिद्धान्तरीत्या कस्यचिदपि वस्तुनः स्वरूपपरिज्ञानस्य जागतिकव्यवहारस्य च निमित्तकारणं शब्दा एव भवन्ति । यतोहि एतदाकृ तिविशिष्टमां सपिण्डस्य कृते गोशब्दव्यवहारः, तदाकृतिविशिष्टमांसपिण्डस्य कृते च अश्वशब्दव्यवहार इत्यादि समस्तव्यवहारविषयकारणं शब्दा एवाऽनुभूयन्ते। एवमेव घटव्यक्तौ पटव्यवहारनिवारणाय यद् घटत्वरूपं तत्त्वं स्वीकृतं तस्य घटत्वतत्त्वस्याश्रयः शब्दः एव भवति । एतादृशस्यैकपदात्मकविद्याप्रतिपादकस्य शब्दमाध्यमेन सकलव्यवहारनियामकस्य निखिलतत्त्वज्ञानप्रतिपादकस्य सर्वशास्त्र- कारकस्य व्याकरणशास्त्रस्य परम्परा अनादिकालात् प्रवहमाना विद्यते । ब्रह्मा बृहस्पतये प्रोवाचेत्याद्याख्यानमत्र भजते प्रामाण्यम्।

निवेदनम्
तत्र वै वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदीशिरोमालिकायां प्रथमं प्रसूनायितं रत्नाकरान्वितं ग्रन्थरत्नमिदमैदम्प्राथम्यं भजते कौमुदीटीका ग्रन्थप्रकाशनविधाविति सर्वथोपपन्नमेतत्; अस्य वै शास्त्रशिरोमणिव्याकरणसिद्धान्तरत्नविषयत्वात्। तदुक्तं हि पस्पशायाम्-प्रधानं च षट्स्वङ्गेषु व्याकरणमिति । तत्र विदितमेवात्रभवतां भवतामशेषविश्ववन्द्यदेववाणीवदनविभूषणायमानो वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदीनामा ग्रन्थो भाष्योदधिं समवगाह्य सकलजनोपकाराय श्रीमता बुधकुल- कमलिनीकलेन्दुना भट्टोजिदीक्षितेन विरचितः पठनपाठनविधौ सर्वासु प्राच्यार्वाच्यशिक्षाशोधसंस्थासु समादृतो मनोरमाशब्देन्दुशेखरतत्त्वबोधिनी- प्रमुखाभिष्टीकाभिस्सह बहुधा प्रकाशितो वेदवेदाङ्गविद्वन्मनस्तोमुपजनयतीति । अतस्तस्य कौमुदीग्रन्थस्य प्रकाशने नास्ति मे पिष्टपेषणीयं तात्पर्यम्, प्रत्युत कौमुदीव्याख्यान भूतस्याद्यावधि प्रकाशन-तिरोहितस्य सर्वथा प्रकाशनीयस्य सर्वांशेनोपलब्धस्यासेतुहिमालयं प्रसृतस्यालोडनविधौ स्थानान्तरितस्याकरस्येव वैयाकरण सिद्धान्तरत्नाकरस्य सन्दीप्तदीप्रप्रभाभास्वरस्याभिभूतमतान्तर प्रकाशस्य प्रकाशनेऽभिनिविष्टा मेऽणीयसी मतिः।

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