भूमिका
काव्य दृश्य एवं श्रव्य
संस्कृत अलंकारशास्त्रियों में वामन सर्वप्रथम एवं अग्रगण्य है जिन्होंने अन्थ-रचना में रूपक (दृश्यकाव्य) को श्रेष्ठ माना है। अपने में पूर्ण होने से चित्र की तरह रूपक आश्रर्यजनक होता है। चित्रवत्ता के कारण ही दृश्यकाव्य श्रेष्ठ है। यह रूपक ही है जिससे कथा, अख्यायिका एवं महाकाव्य आदि नियत है'।
रूपक अपने में पूर्ण है, आख्यायिका और महाकाव्य आदि इसी के रूप परिवर्तन हैं । रूपकों को अधिक श्रेय देने का वामन ने एक ही कारण दिया है । रूपक प्रत्येक वस्तु में वर्तमान रहने से पूर्ण है, अत: रूपक चित्र के समान विचित्र है । परन्तु रूपक का चित्र के साथ तुलना करने में क्या महत्त्व है? विशेष साकल्य का क्या अर्थ है? इसको वामन ने समझाने का प्रयत्न नहीं किया है। वे विशेषताएँ क्या है, जो महाकाव्य एवं आख्यायिका आदि में नहीं प्राप्त होतीं, परन्तु जो रूपक में वर्तमान हैं, इन सब प्रश्नों कों वामन ने विस्तृत रूप में समझाने का अल्प प्रयास भी नहीं किया है।
वामन के मत का अनुसरण करते हुए सस्कृत साहित्य एवं दर्शन के प्रौढ़ विद्वान एवं आलोचक अभिनवगुप्ता ने नाटक को रसास्वाद की दृष्टि से अन्य की अपेक्षा पूर्ण माना है । अभिनवगुप्त का कथन है कि जहां तक रस के आनन्द कार-रसास्वाद का-सम्बन्ध है, मुक्तक में उतना आनन्द नहीं आता हे, क्योंकि विभाव एवं अनुभाव आदि का वर्णन इसमें नहीं होता है । अत: एक पूर्ण प्रबन्ध में ही सम्यक् रूप से रसास्वाद की प्राप्ति सम्भव है । ब्रह्मानन्द स्वाद सहोदर रस का आनन्द प्रबन्ध काव्य की अपेक्षा नाटक से ही होता है, वह चम मज पर प्रस्तुत किया जाता है'। वेष-भूषा, चाल-ढाल और प्रवृत्ति आदि का काव्य मे, केबल वर्णन मात्र होता है। परन्तु नाटक में सामाजिक प्रत्यक्ष रूप से इन सबको चक्षु इन्द्रियों से देखता है। अत: रसास्वाद का अन्तिम उत्कर्ष नाटक से ही प्राप्त होता है । नाटक की अपेक्षा कम रसास्वाद महान काव्य से प्राप्त होता है । सबसे कम रसास्वाद मुक्तक से होता हैं।
यद्यपि अभिनवगुप्त ने भाषा, वेष आदि की प्रत्यक्षता के कारण दृश्य का अविलम्ब प्रभाव स्वीकार किया है, फिर भी श्रव्यकाव्य में इसकी योजना का अभाव प्रमाणित नहीं होता है । अभिनवगुप्त ने स्पष्टरूप से इस बात का उल्लेख किया है कि काव्यानुभूति सहृदय से सम्बन्धित है। सहृदय ने यदि काव्य का अनुशीलन कर लिया है, जिसके कुछ प्राक्तन संस्कार है तो भाव आदि के उन्मीलन के द्वारा काव्य के विषय का साक्षात्कार किया जा सकता है । इने का सारांश यह है कि यदि दृश्यकाव्य समस्त बातों को प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित कर देता है तो श्रकाव्य में इसकी उपस्थिति के लिए सहृदय की कल्पना अपेक्षित है।
अभिनवगुप्त के बाद 'श्रृंगार प्रकाश' और 'सरस्वतीकण्ठाभरण' के रचयिता भोज ने कवि और काव्य को नट और अभिनय की अपेक्षा उच्च स्थान प्रदान किया है । भोज ने अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ से ही इस बात का उल्लेख किया है कि रसास्वादन सामाजिक व श्रोतागण के द्वारा तभी किया जाता है, जब वहएक प्रवीण नट के द्वारा अभिनीत होता है या प्रबन्ध काव्य में महाकवि के द्वारा वर्णित होता है । किसी पदार्थ के श्रवण मात्र से जितना आनन्द आता है, उतना उस पदार्थ के साक्षात्कार करने पर नहीं । इसीलिये भोज ने कवि को नट की अपेक्षा उच्च स्थान प्रदान किया है एवं काव्य को अभिनय की अपेक्षा 'अधिक महत्व दिया है'।
संस्कृत अलंकारशास्त्र में नाटककार के लिए अन्य शब्द नहीं प्रयुक्त होता। है। नाटककार को भी कवि ही कहा जाता है। नाटक को भी 'काव्य' ही नाम से सम्बोधित करते हैं। भोज का यहाँ यह कथन कि कवि और काव्य को नट एवं अभिनय की अपेक्षा अधिक महत्त्व देना चाहिए, अभिनवगुप्त के मत से सूक्ष्म विरोध प्रकट करता है । भोज के अनुसार नाटयकार कवि का, जिसने रस के आनन्द के लिए काव्य लिखा है-जिसमें आनन्द प्राप्त करने के लिए नट के योग की आवश्यकता नहीं प्रतीत होती, नट की अपेक्षा विशेष महत्व है-जो (नट) रङ्गमत्र पर सामाजिक के समक्ष अभिनयों के द्वारा उसे अभिनीत करता है । यहाँ काव्य का तात्पर्य नाटय की पाम पुस्तक से है। नाटक को दृश्य काव्य की भी संज्ञा दी गई है । नाटक का जब तक रंगमंच पर प्रदर्शन नहीं किया जाता है-जब नाटक के अध्ययन से ही आनन्द की प्राप्ति होती है, तब न नाटक काव्य ही कहा जाया करता है । भोज ने कवि और काव्य का जो प्रयोग किया है, वह नाटककार और उसके 'नाटक' के लिए ही है । भोज इन्हीं को नट और उसके अभिनयों की अपेक्षा विशेष महत्व देते हैं।
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