आचार्य विष्णुकांत शास्त्री। आलोचना, निबंध, संस्मरण, यात्रावृत्तांत, रिपोर्ताज, कविता आदि विधाओं में साधिकार लेखन करने वाले बहुआयामी साहित्य सर्जक । धर्म, संस्कृति एवं अध्यात्म के प्रभावी व्याख्याता-प्रवचनकार। पेशे से विश्वविद्यालय के प्राध्यापक-अध्यापन कौशल एवं छात्र-वत्सलता के कारण अत्यंत लोकप्रिय । साहित्यिक-सामाजिक संस्थाओं में सक्रियता के साथ राजनीति के क्षेत्र का जाना- पहचाना नाम। विधायक, सांसद से लेकर राज्यपाल जैसे उच्च संवैधानिक पद का दायित्व निर्वहन। यानी शिक्षा, साहित्य, समाज, अध्यात्म, राजनीति आदि क्षेत्रों को समृद्ध करने वाली विरल विभूति। स्वयं विष्णुकांत शास्त्री की पंक्तियाँ हैं-
"रुक गया मैं जिस जगह बस हो गया वह ठाँव मेरा, हारकर ही जीत पाता जो सदा वह दाँव मेरा। हूँ वही पंछी, अकेला ही रहा जो झुंड में भी, क्या करोगे पूछकर प्रिय, नाम मेरा गाँव मेरा ॥" 2 मई, 1929 को कोलकाता में जन्मे विष्णुकांत शास्त्री के पूर्वज जम्मू के मूल निवासी थे। उनके पिता पं. गांगेय नरोत्तम शास्त्री काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक थे। असहयोग आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्होंने अध्यापन छोड़ दिया तथा काशी के युवा-वर्ग को स्वाधीनता संग्राम में सम्मिलित होने के लिए संगठित-प्रेरित करते रहे। डॉ. भगवानदास ने अपने नवगठित शिक्षण संस्थान 'काशी विद्यापीठ' में उन्हें संस्कृत-हिंदी का प्राध्यापक नियुक्त किया। गर्मदल में काम करने के कारण अंग्रेज सरकार ने उन्हें बनारस छोड़ने का आदेश दिया और गांगेयजी काशी विद्यापीठ में डेढ़ वर्ष कार्य करने के बाद कलकत्ता चले आए, जहाँ विनायक मिश्र के समृद्ध घराने में श्रीमती रूपेश्वरी देवी के साथ दांपत्य सूत्र बंधन में आवद्ध हुए।
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