प्रकाशक का निवेदन
गांधीजीकी कार्य करनेकी एक विशिष्ट पद्धति थी । उन्हें जो कार्य सच्चा और करने जैसा मालूम होता था, उसे वे स्वयं ही आरंभ कर देते थे । इसके बाद अन्य लोगोंको अपने कार्यके विषयमें समझानेके लिए दे पत्र-व्यवहार करते थे, आवश्यक हो तो भाषण देते थे और उसकी चर्चा भी करते थे । जैसे जैसे उनका कार्य व्यापक होता गया वैसे वैसे अपने कार्यके लिए उन्होंने साप्ताहिक पत्र चलाने शुरू किये । दक्षिण अफ्रीकामें इसके लिए वे 'इंडियन ओपीनियन ' नामक साप्ताहिक निकालते थे । भारतमें लौटनेके बाद अपने उसी कार्यके लिए गांधीजीने अंग्रेज़ीमें ' यंग इंडिया 'गुजरातीमें' नवजीवन 'और हिन्दीमें' हिन्दी नवजीवन नामक साप्ताहिक निकाले। और बादमें अपने इसी कार्यके लिए उन्होंने 'हरिजन ' 'साप्ताहिकोंका प्रकाशन किया । किसी स्थान पर उन्होंने अपने इन साप्ताहिकोंको राष्ट्रके लिए निकाले जानेवाले साप्ताहिक कहा है ।
इस प्रकार पत्र-व्यवहार, समय समय पर दिये गये भाषण, आवश्य- कतानुसार निकाले गये सार्वजनिक वक्तव्य और ये साप्ताहिक पत्र-इन सबके द्वारा गांधीजीने अपार साहित्यका निर्माण किया है ।
जो लोग गांधीजीको, उनके कार्यको, विशेषत: उनके अहिंसाके संदेशको तथा उसके लिए आयोजित उनकी' कार्य-पद्धतिको समझना चाहते हैं, उन्हें इस संपूर्ण साहित्यका श्रद्धासे अभ्यास करना चाहिये।
यह सारा साहित्य इतना विशाल है कि उसमें से अपनी रुचि तथा श्रद्धाके अनुसार गांधीजीके मार्मिक उद्धरण चुनकर अनेक लोगोंने लोटे या बड़े संग्रह प्रकाशित किये हैं ।
संयुक्त राष्ट्रसंघकी एक समितिको, जिसे संक्षेपमें युनेस्को कहा जाता है, संसारकी आजकी विषम परिस्थितिमें गांधीजीके कार्य और संदेशका इतना अधिक महत्व लगा कि उसने भी इन दोनोंका परिचय जगतको करानेके आशयसे गांधीजीके वचनोंसे कुछ महत्त्वपूर्ण वचन चुन कर 'ऑल मैं न आर ब्रदर्स' नामक एक अग्रेजी संग्रह प्रकाशित किया है । इस संग्रहकी रचना ऐसी कुशलतासे की गई है कि जो लोग गांधीजीके विशाल साहित्य तक नहीं पहुंच सकते, वे भी इसके द्वारा उनके कार्य, उनकी विभूति, उनकी कार्य-पद्धति तथा उनके विचारोंसे परिचित हो सकते है।
युनेस्कोने नवजीवन संस्थाको 'ऑल मैं न आर: ब्रदर्स' के अंग्रेजी, हिन्दी तथा भारतकी अन्य भाषाओंके संस्करण प्रकाशित करनेका अनुमति दी है । उसके अनुसार यह हिन्दी संस्करण ' हम सब एक पिताके बालक प्रकाशित किया जा रहा है । आशा है कि हिन्दी जाननेवाले प्रत्येक व्यक्तिके लिए यह संस्करण उपयोगी सिद्ध होगा ।
प्रस्तावना
किसी महान गुरुके दर्शन जगतमें दीर्घकालके पश्चात् एक बार ही होते हैं कभी कभी ऐसे गुरुके प्रादुर्भावके बिना सदियोंका समय भी बीत जाता है ऐसा गुरु अपने जीवनसे ही जगतने जाना और पहचाना जाता है वह गुरु पहले स्वय जीवन जीता है और बादमें दूसरोंसे कहता है कि उसके जैसा जीवन वे किस प्रकार पिता सकते है गांधीजी ऐसे ही महान गुरु थे श्री कृष्ण कृपालानीने ये उद्धरण गांधीजीके लेखों और भाषणोंसे बडी सावधानी और विवेकके साथ एकत्र किये है ये उद्धरण पाठकोको इस बातकी कुछ कल्पना करायेंगे कि गांधीजीका मानस किस प्रकार काम करता था, उनके विचारोका विकास किस प्रकार हुआ था ओर उन्होंने अपने कार्यके लिए कौनसी व्यावहारिक कार्य-पद्धतियां अपनायी थी गांधीजीके जीवनकी जडें भारतकी धार्मिक परपरामें जमी हुई थी - जो सत्यको उत्कट शोध, जीवमात्रके लिए अतिशय आदर, अनासक्तिके आदर्श और ईश्वरके शानके लिए सर्वस्वका बलिदान करनेकी तत्परता पर जोर देती है गांधीजीने अपना सपूर्ण जीवन सत्यकी निरंतर शोधमें ही व्यतीत किया था वे कहा करते थे मैं सत्यकी शोधके लिए ही जीता हूँ इस लक्ष्यको सामने रखकर मैं अपने समस्त कार्य करता हू, और इसी लक्ष्यकी सिद्धिके लिए मेरा अस्तित्व है।
जिस जीवनका कोई मूल नहीं है, जिसकी नींव गहरी नहीं है, वह जीवन छिछला है, व्यर्थ है कुछ लोग ऐसा मानकर चलते है कि जब हम सत्यका दर्शन कर लेंगे तब उस पर आचरण करेंगे लेकिन ऐसा नहीं होता जब हम सही और सच्ची वस्तुको जान लेते है तब भी उसका परिणाम यह नहीं होता कि हम सही वस्तुको ही पसंद करे और सही काम ही करे हम शक्तिशाली आवेगोंके प्रवाहमें बह जाते है, गलतकाम करते हैं और अपने भीतरके दिव्य प्रकाशसे द्रोह करते हैं । '' हिन्दू सिद्धांतके अनुसार हम अपनी वर्तमान स्थितिमें केवल आशिक रूपमें ही मानव हैं; हमारा निचला भाग अभी भी पशु है । प्रेम जब हमारी निम्न वृत्तियों पर विजय पा लेगा तभी हमारे भीतरके पशुका नाश होगा ।'' कसौटियों और गलतियों तथा आत्म-निरीक्षण और कठोर अनुशासनकी प्रक्रियामें से पार होकर ही मानव पूर्णताके मार्ग पर एकके बाद दूसरा कष्टकर कदम उठाता है ।
गांधीजीका धर्म बुद्धि और नीतिके आधार पर खडा था । वे ऐसे किसी विश्वासको स्वीकार नहीं करते थे, जो उनकी बुद्धिकी कसौटी पर खरा नहीं उतरता था; अथवा वे ऐसी किसी शास्त्राज्ञाको स्वीकार नहीं करते थे, जिसे उनकी अंतरात्मा स्वीकार नहीं करती थी ।
यदि हम केवल अपनी बुद्धिसे नहीं बल्कि अपनी संपूर्ण चेतनासे ईश्वरमें विश्वास रखते हैं, तो हम जाति या वर्ग, राष्ट्र या धर्मके किसी भदके बिना समूची मानव-जातिसे प्रेम करेंगे । हम संपूर्ण मानव-जातिकी एकताके लिए प्रयत्न करेंगे ।' मेरे सारे कार्योंका जन्म मानव-जातिके प्रति रहे मेरे अखंड और अविच्छिन्न प्रेमसे हुआ है ।'' मैं ने सगे-संबंधियों और अपरि-चितोंके बीच, देशबंधुओं और विदेशियोंके बीच, काले और गोरेके बीच, हिन्दुओं और मुसलमानों, पारसियों, ईसाइयों या यहूदियों जैसे दूसरे धर्मको माननेवाले भारतीयोंके बीच कभी कोई भेद नहीं जाना । मैं कह सकता हूं कि मेरा हृदय ऐसे भेद करनेमें असमर्थ रहा है । ''प्रार्थनापूर्ण अनु-शासनकी दीर्घ प्रक्रिया द्वारा मैंने किसीसे घृणा करनेके विचारको सर्वथा छोड़ दिया है । इसे आज 40 वर्षसे ज्यादा समय हो गया है । 'सारे मानव भाई भाई हैं, एक पिताके बालक हैं, और कोई भी मनुष्य दूसरे मनुष्यके लिए पराया नहीं होना चाहिये । सबका कल्याण, 'सर्वोदय' हमारा ध्येय होना चाहिये । ईश्वर वह सामान्य बंधन है, जो सारे मानवोंको एकताके सूत्रमें बांधता है । अपने बड़ेसे बड़े शत्रुके साथ भी इस बंधनको तोड्नेकाअर्थ है स्वयं ईश्वरको तोड़कर उसके टुकड़े टुकड़े कर देना । बड़ेसे बड़े दुष्टमें भी मानवता होती है ।
यह दृष्टिकोण हमें स्वभावत: सारी राष्ट्रीय और आन्तर-राष्ट्रीय समस्यायें कून करनेके उत्तम साधनके रूपमें अहिमाकी अपनानेकी दिशामें ले जाता है । गांधीजीने दृढ़तासे यह कहा था कि वे कल्पना-विहार करनेवाले आदर्शवादी नहीं, किन्तु एक व्यावहारिक आदर्शवादी है । अहिंसा केवल संतों और ऋषि-मुनियोंके लिए ही नहीं है; वह सामान्य लोगोके लिए भी है । 'अहिंसा वैसे ही हमारी मानव-जातिका नियम है, जैसे हिंसा पशुओंका नियम है । पशुआमें आत्मा सुप्तावस्थामें रहती है और वे शारीरिक शक्तिके नियमके सिवा दूसरा कोई नियम नहीं जानते । मनुष्यकी प्रतिष्ठाका यह तकाजा है कि वह उच्चतर और उदात्त नियमका पालन करे:-आत्माकी शक्तिका कहना माने ।
गांधीजी समूचे मानव-इतिहासमें ऐसे पहले पुरुष थे, जिन्होंने अहिंसाके सिद्धान्तको व्यक्तिके क्षेत्रसे आगे बढ़ाकर सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र तक फैलाया । उन्होंने अहिंसाका प्रयोग करने और उसकी वास्तविकताकी स्थापना करनेके लिए ही राजनीतिमें प्रवेश किया था ।
'कुछ मित्रोंने मुझसे कहा है कि सत्य और अहिंसाका राजनीतिमें और दुनियाके व्यवहारोंमें कोई स्थान नहीं है। पर मैं इमे नहीं मानता। वैयक्तिक मोक्षके साधनोंके रूपमें मेरे लिए उनका कोई उपयोग नहीं है। मैं ने जीवनभर सत्य और अहिंसाका दैनिक जीवनमें प्रवेश कराने और उन्हें आचरणमें उतारनेका प्रयोग किया है। ''मेरी दृष्टिमें धर्महीन राजनीति निरा कूड़ा-कचरा है, जिससे मुझे सदा दूर ही रहना चाहिये। राजनीतिका सम्बन्ध राष्ट्रोंके साथ है और जिस राजनीतिका सम्बन्ध राष्ट्रोंके कल्याणके साथ है वह ऐसे मनुष्यका विषय होनी चाहिये, जो धार्मिक है-दूसरे शब्दोंमें जो ईश्वर और सत्यका शोधक है। मेरे लिए ईश्वर और सत्य ऐसे शब्द हैं, जो एक-दूसरेका स्थान ले सकते है औरयदि कोई मुझसे यह कहे कि ईश्वर असत्यका ईश्वर है अथवा यंत्रणाका ईश्वर है, तो मैं उसकी पूजा करनेसे इनकार कर दूंगा। इसलिए राज-नीतिमें भी हमें स्वर्गके राज्यकी स्थापना करनी होगी।'
भारतकी स्वतंत्रताकी लडाईमें गांधीजीने इस बात पर बहुत बड़ा जोर दिया था कि हमें विदेशी हुकूमतसे लडनेके लिए अहिंसा और कष्ट-सहनकी सभ्यतापूर्ण कार्य-पद्धति अपनानी चाहिये । भारतकी स्वतन्त्रताका उनका आग्रह ब्रिटेनके लिए किसी प्रकारकी घृणाकी बुनियाद पर खड़ा नहीं था। हमें पापसे घृणा करनी चाहिये, पापीसे नहीं । ' मेरी दृष्टिमें देशप्रेम और मानव-प्रेममें कोई भेद नहीं है। दोनों एक ही हैं। मैं देशप्रेमी हूं, क्योंकि मैं मानव हूं और मानव-प्रेमी हूं । मैं भारतकी सेवा करनेके लिए इंग्लैड या जर्मनीका नुकसान नहीं करूंगा । ' गांधीजीका यह विश्वास था कि भारतके साथ न्याय करनेमें अंग्रेजोंकी मदद करके उन्होंने अंग्रेजोंकी सेवा की है । इसका परिणाम न केवल भारतीय राष्ट्रकी मुक्तिके रूपमें आया, बल्कि मानव-जातिकी नैतिक सम्पत्तिकी वृद्धिके रूपमें भी आया । आजके अणुबम और हाइड्रोजन बमके युगमें यदि हम जगतकी रक्षा करना चाहते हैं, तो हमें अहिंसाके सिद्धान्त ही अपनाने चाहिये । गांधीजीने कहा था : ''जब मैंने पहले-पहल सुना कि एक अणुबमने हिरोशिमाको भस्म कर दिया है, तब मेरे मन पर उसका जरा भी असर नहीं हुआ । इसके विपरीत मैंने अपने-आपसे कहा, ' अब यदि दुनिया अहिंसाको नहीं अपनाती, तो उसका निश्चित परिणाम होगा मानव-जातिकी आत्महत्या।' ''भविष्यकी किसी भी लडाईके बारेमें हम निश्चित रूपसे यह नहीं कह सकते कि दोमें से कोई एक पक्ष जान-बूझकर अणुशस्त्रोंका उपयोग नहीं करेगा । हमने सदियोंके प्रयत्न और बलिदानसे जिस मानव-संस्कृतिका सावधानीसे निर्माण किया है, उसे पलभरमें नष्ट कर देनेकी शक्ति हमारे पास है । प्रचारकी मुहिम छेड़कर हम लोगोके मनकों अणुशस्त्रोंकी लडाईके लिए तैयार करते हैं । एक-दूसरेको उत्तेजित करनेवाली बातें सदा ही बड़ी छूटसे कही जाती हैं । हम अपनी वाणीमें भी आक्रामक शब्दोंका उपयोगकरते हैं । कड़ी आलोचनायें और कड़े निर्णय, दुर्भावना और क्रोध-ये सब हिंसाके ही सूक्ष्म रूप हैं ।
आजकी भयंकर स्थितिमें, जब हम विज्ञानके द्वारा उत्पन्न की हुई नई परिस्थितियोंके अनुकूल अपने-आपको नहीं बना पा रहे हैं, अहिंसा, सत्य और मैं त्रीके सिद्धान्तोंको अपनाना सरल नहीं है। लेकिन इस कारणसे हमें अपना इस दिशाका प्रयत्न छोड़ नहीं देना चाहिये । राजनीतिक नेताओंकी जिद हमारे दिलोंमें डर पैदा करती है, लेकिन दुनियाको प्रजाओंकी समझदारी और विवेक हमारे भीतर आशाका संचार करते हैं ।
आज दुनियामें होनेवाले परिवर्तनोंकी गति इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि हम नहीं जानते कि अगले 100 वर्षोंमें दुनियाकी क्या शकल हो जायगी । हम विचारों और भावनाओंके भावी प्रवाहोंकी कोई कल्पना नहीं कर सकते । परन्तु वर्ष भले कालके प्रवाहमें बहते चले जायें, फिर भी सत्य और अहिंसाके महान सिद्धान्त तो हमारा मार्गदर्शन करनेके लिए अपने स्थान पर सदा अटल ही रखनेवाले हैं । वे ऐसे मूक ध्रुवतारे हैं, जो श्रान्त और उपद्रवोंसे पीड़ित जगत पर सदा पवित्र तथा जाग्रत दृष्टि रखते हैं । गांधीजीकी तरह हम भी अपने इस विश्वास पर दृढ़ रह सकते हैं कि आकाशमें जाते-आते बादलोंके ऊपर सूर्यकी किरणे चमकती है । हम ऐसे युगमें जी रहे हैं, जो अपनी पराजयको और अपनी नैतिक शिथिलताको जानता है; यह एक ऐसा युग है जिसमें प्राचीन निश्चित मूल्य टूट रहे हैं और परिचित प्रणालिकायें नष्ट-भ्रष्ट हो रही हैं । असहिष्णुता और कड़वाहट दिनोंदिन बढ़ रही है । नव-निर्माणकी वह ज्योति, जिसने महान मानव-समाजको प्रेरित किया था, आज मंद पड़ती जा रही है । मानव-मन अपनी आश्चर्यकारी अद्भुतता और विविधताकी बदौलत बुद्ध या गांधी अथवा नीरो या हिटलर जैसे परस्पर विरोधी नमूने उत्पन्न करता है । यह हमारे बड़े गौरवकी बात है कि इतिहासकी एक सर्वोच्च विभूति महात्मा गांधी हमारे बीच रहे, हमारे बीच चले-फिरे, हमसे बोले और उन्होंने हमें सभ्य तथा सुसंस्कृत जीवन जीनेकी पद्धति सिखाई । जो मनुष्य किसीका बुरा नहीं करता, -वह किसीसे डरता नहीं । उसके पास छिपानेको कुछ नहीं होता, इसलिए वह निर्भय रहता है । वह हिम्मतके साथ हरएक आदमीके ठीक सामने देखता है । उसके कदम दृढ़ होते हैं । उसका शरीर सीधा तना हुआ रहता है । और उसके शब्द सरल और स्पष्ट होते हैं । प्लेटोने सदियों पहले कहा था : '' इस जगतमें सदा ही ऐसे कुछ दिव्य प्रतिभावाले मनुष्य होते हैं, जिनका परिचय और सम्पर्क मानव-समाजकी अमूल्य निधि होता है । ''
सिखाई । जो मनुष्य किसीका बुरा नहीं करता, -वह किसीसे डरता नहीं । उसके पास छिपानेको कुछ नहीं होता, इसलिए वह निर्भय रहता है । वह हिम्मतके साथ हरएक आदमीके ठीक सामने देखता है । उसके कदम दृढ़ होते हैं । उसका शरीर सीधा तना हुआ रहता है । और उसके शब्द सरल और स्पष्ट होते हैं । प्लेटोने सदियों पहले कहा था : '' इस जगतमें सदा ही ऐसे कुछ दिव्य प्रतिभावाले मनुष्य होते हैं, जिनका परिचय और सम्पर्क मानव-समाजकी अमूल्य निधि होता है । ''
अनुक्रमणिका
प्रकाशकका निवेदन
3
प्राक्कथन
5
7
1
आत्म-परिचय
2
धर्म ओर सत्य
77
अहिंसाका मार्ग
112
4
साधन और साध्य
116
आत्म-सयम
149
6
आन्तर-राष्ट्रीय शांति
162
मनुष्य और मशीन
170
8
विपुलताके बीच दरिद्रता
177
9
लोकतंत्र और जनता
189
10
शिक्षा
207
11
स्त्री-जगत
219
12
स्फुट वचन
230
सदर्भ-सूत्र
249
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