जिन वर्षों में मुझे परमहंस योगानन्दजी से आध्यात्मिक प्रशिक्षण प्राप्त करने का आशीर्वाद प्राप्त हुआ, मैंने देखा कि सच्चे ज्ञान की छाप दोहरी होती है : प्रथम, यह हमारे व्यक्तित्व के प्रत्येक पहलू को सम्मिलित करती है - शरीर, मन और आत्मा; हमारे व्यक्तिगत जीवन, हमारे परिवार, समाज और संसार से हमारे सम्बन्ध। साथ ही, यह इतना सरल और सीधा है कि हम भीतर में अनुभव करते हैं, "हाँ, निःसन्देह ! मुझे सदा इसका ज्ञान था!" एक ऐसी समझ के पुनर्जागृत होने के भाव का बोध होता है जो पहले से ही भीतर में उपस्थित थी। जब हम इस गहरे स्तर पर प्रभावित होते हैं, तो सत्य शीघ्र ही मात्र दार्शनिकता से हमारी समस्याओं के सक्रिय, व्यावहारिक समाधानों के रूप में बदल जाता है।
ऐसे ही सत्य मेरे गुरुदेव परमहंस योगानन्द से निरन्तर सरिता के रूप में प्रवाहित होते थे - एक धर्मशास्त्र के अति सूक्ष्म विचारों या निस्सार बातों के रूप में नहीं, अपितु उस सर्वोच्च ज्ञान की व्यावहारिक अभिव्यक्तियों के रूप में, जो जीवन की सभी परिस्थितियों में सफलता, स्वास्थ्य, चिरस्थायी सुख और दिव्य प्रेम प्रदान करती हैं। यद्यपि परमहंस योगानन्दजी की शिक्षाओं के पूर्ण विस्तार और गहराई से अनेक पुस्तकें भरी पड़ी हैं, हमें इस संकलन में उनके विचारों के कुछेक विशिष्ट रत्न प्रस्तुत करते हुए हर्ष हो रहा है, जो उनके सम्पूर्ण आलेखों और व्याख्यानों में देदीप्यमान हैं- कुछ प्रभावशाली शब्दों में प्रस्तुत किए गए दुर्बोध सत्य, जो हमारे असीम आन्तरिक संसाधनों के बोध को पुनः जागृत करते हैं, और जो अनिश्चितता या संकट के समय में आश्वासन के साथ दिशा-निर्देश उपलब्ध कराते हैं।
शक्ति एवं अन्तर्ज्ञानात्मक बोध की इन अन्तर्जात क्षमताओं को ही परमहंस योगानन्दजी ने उन व्यक्तियों में जागृत करने का प्रयास किया, जिन्होंने उनके प्रशिक्षण को प्राप्त करने की जिज्ञासा की। जब हमारे व्यक्तिगत जीवन में, या उनकी विश्वव्यापी सोसाइटी के कार्यों में कठिनाइयाँ आती थीं, तो हम समाधान के लिए शीघ्रता से उनके पास जाते थे। तथापि, प्रायः ऐसा होता था कि हमें कुछ कहने का अवसर मिलने से पहले ही, वे हमें बैठकर ध्यान करने का संकेत कर देते थे। उनके सान्निध्य में, हमारे मन शान्त और ईश्वर पर केन्द्रित हो जाते थे; और हमारी समस्याओं से जो चंचलता एवं उलझन उत्पन्न होती थी वह पूर्णतः समाप्त हो जाती थी। यदि वे हमारे प्रश्न के उत्तर में कुछ भी नहीं कहते थे, तो भी जब हम अपने काम पर वापस लौटते तो हमारे विचार और अधिक स्पष्ट हो जाते थे, और हमें यह पता चल जाता कि हमारे भीतर किसी ने आगे बढ़ने के सही मार्ग को जान लिया है।
जैसे ही हमारी विश्व सभ्यता इक्कीसवीं शताब्दी में प्रवेश करती है, हमारे आशावाद का सबसे महान् कारण है, जीवन के आधारभूत एकत्व की उभरती मान्यता। मानवता की उच्चत्तम आध्यात्मिक परम्पराओं ने शताब्दियों से सिखाया है कि हमारा जीवन एक सार्वभौमिक अखण्डता का अभिन्न अंश हैं; आज भौतिक वैज्ञानिक, नए "दिव्यद्रष्टा" भी उनके साथ सम्मिलित हो रहे हैं, जो यह उद्घोषणा कर रहे हैं कि एकत्व की एक डोरी सुदूरतम आकाशगंगाओं को हमारे शरीर की लघुतम कोशिकाओं से जोड़ती है। और जैसे ही उनके अन्वेषण जीव-विज्ञान, औषधि-विज्ञान, मनोविज्ञान, पर्यावरण-विज्ञान और अन्य क्षेत्रों के साथ सम्मिलित होना प्रारम्भ करते हैं, हम स्वयं को मानव के ज्ञान की क्रान्ति के तट पर तैयार हुए पाते हैं- एकत्व और सामंजस्य की झाँकियों को देखते हुए, जोकि इतनी विशाल, विस्मयकारी रूप से इतनी परिपूर्ण हैं, कि हमारे पास अपने बारे में और अपनी क्षमताओं के बारे में मूलतः एक भिन्न पक्ष ही शेष बचता है।
आज हमारा संसार जिन गम्भीर चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनके होते हुए भी यह नयी दृष्टि पुनः आश्वासन के गहरे भाव को प्रस्तुत करती है।
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