हम आजादी के जश्न का 75 वाँ वर्ष मना रहे हैं। सैकड़ों वर्ष की गुलामी की बेड़ियाँ यूँ ही नहीं टूटीं। न ही बिना आधार के विरोध का तूफान उठा होगा। ऐसा भी नहीं हुआ होगा कि सीधे-सीधे दिल्ली फतह कर लिया गया होगा। हमारे चिंतकों, विचारकों, नेताओं के प्रयास से देश का चप्पा-चप्पा जग उठा, जागरूकता आने के बाद सामाजिक एकजुटता आई तब विरोध धारदार हुआ।
बिहार गाँधी की प्रयोग भूमि रही। बिहार के चंपारण भितिहरवा के बाद जो पहला आश्रम बना वह दरभंगा जिला का मगन आश्रम था। इस आश्रम का स्वरूप स्वदेशी आंदोलन का था। समाज सुधार, स्वावलंबन तथा पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति का लक्ष्य था। लेखिका ने मगन गाँधी आश्रम की स्थापना, उसके कार्य, उसकी व्यवस्था तथा उद्देश्य पर पूर्ण प्रकाश डाला है। स्वदेशी आंदोलन का अहम हिस्सा नमक सत्याग्रह रहा है। विदेशी वस्त्र दहन करना, नमक के लिए आत्मनिर्भर होना व्यापारी शासक की कमर तोड़ने को काफी था। लेखिका ने यह दर्ज कर आज के पाठकों को यह जताने की कोशिश की है कि इन कार्यों में हमारे नेता कितने क्रांतिकारी रहे। यह हमारा स्वर्णिम अतीत है जिसकी चर्चा मुकुल अमलास ने की है। साहित्य की दुनिया में इसका स्वागत है।
यह ऐतिहासिक उपन्यास मिथिलांचल के उन भूले हुए स्वतंत्रता सेनानियों से हमें रूबरू करवाता है जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना सब कुछ कुरबान कर दिया पर स्वंय गुमनामी की जिंदगी जीते रहे। यह कथा है मगन गाँधी आश्रम के निर्माण की जिसने समाजिक कुरीतियों के खिलाफ शंखनाद कर मिथिला समाज में उथल-पुथल मचा दी तथा कुछ ही समय में वहाँ की राजनीति के केंद्र में आ समाज को बदलने की पहल कर डाली।
यह कथा है श्रीराम पिपरा नामक एक छोटे से गाँव की जहाँ ऊसर मिट्टी से नमक बना कर स्वतंत्रता के दीवानों ने एक तरफ नमक सत्याग्रह की लोकप्रियता को मिथिलांचल के जन-जन तक पहुँचाया वहीं दूसरी ओर लोगों को ब्रिटिश शासन से भयमुक्त भी किया। यह उपन्यास रूढ़ियों को तोड़ मिथिला में हुए पहले विधवा विवाह को अंजाम देने की कहानी भी सुनाता है और अदम्य साहस का परिचय देने वाले इस क्षेत्र के वीर बाँकुरों की भी जिन्होंने नेपाल के जंगलों में आजाद दस्ते का निर्माण किया। लेखिका समय की धूल झाड़ समाज द्वारा विस्मृत ऐसे नायकों से हमारा परिचय करवाती हैं जो अब तक हमारी उपेक्षा के शिकार रहे और जिन्हें अगर हमने अब भी याद नहीं किया तो इतिहास हमें कभी माफ नहीं कर सकेगा।
'यह बड़ी नमकीन मिट्टी है' आजादी के संघर्ष के इन्हीं विस्मृत पन्नों से गुजरने की एक रोचक और उदात्त गाथा है।
मुकुल अमलास: जन्मस्थानः मिथिलांचल, बिहार पटना विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर। देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं तथा वेब पोर्टल पर कविताएँ, कहानियाँ, यात्रा संस्मरण तथा अनेकानेक लेख प्रकाशित तथा पुरस्कृत। दो कविता-संग्रह 'निःशब्दता के स्वर' एवं 'इस निस्सीम ब्रह्माण्ड में' प्रकाशित। केंद्रीय विद्यालय संगठन की पूर्व अध्यापिका। वर्तमान में नागपुर में निवास एवं सक्रिय रूप से स्वतंत्र लेखन।
संपर्क: प्लाट नं. 77-78, मुनीशंभुनाथ को. हॉ.सो. शंभुनगर, पोस्ट-मानकापुर, नागपुर- 440030 मेल: mkosho83@gmail-com
कुछ घटनाएँ कभी पुरानी नहीं पड़तीं, पीढ़ी दर पीढ़ी उन्हें याद किया जाता है। भारत का इतिहास जब भी लिखा जाएगा स्वतंत्रता आंदोलन की चर्चा के बिना उसकी पूर्णाहुति नहीं हो सकती लेकिन मुख्यधारा को तो हम याद रखते हैं सहायिकाओं को भूल जाते हैं। भारत की आजादी की लड़ाई में भी हजारों लोग शामिल रहे। गाँधी जी की अगुआई में कितनों ने घर छोड़ा, कितनों ने नौकरी और कितनों ने अपने जीवन का उत्सर्ग किया उसका हिसाब रखना आसान नहीं परंतु वे उचित सम्मान के हक़दार तो हैं ही। उनको श्रद्धांजलि देने का क्या सबसे अच्छा तरीका यह नहीं होगा कि उनके कृतित्व से पटे पड़े इतिहास के ऐसे पृष्ठों को ढूँढ़ कर हम नई पीढ़ी के सामने रखें, ताकि गुमनामी की आँधी उन्हें उड़ा कर नष्ट न कर सके।
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