गीता एक अद्भुत ग्रंथ है। सग्रंथों में मुकुटमणि। वेद अपौरुषेय हैं-अनंत ज्ञान के भण्डार, आरण्यक और उपनिषद् अध्यात्म की पराकाष्ठा; लेकिन गीता वह सरोवर है जिसमें निर्झर होकर ज्ञान अपनी अनोखी स्वच्छता लिए हुए सभी धर्मशास्त्रों का सारगर्भित तत्त्व है। ऐसा लगता है कि जैसे सब धाराओं का समन्वय गीता उपनिषद् में हो गया हो। स्वयं भगवान कृष्ण की वाणी है जिन्हें योगेश्वर कहकर भारत के लोग नतमस्तक होते हैं।
सभी धर्मशास्त्र महान् हैं। विव्यवाणी हैं। मानव को प्रेरणा देने वाले हैं। लेकिन इन सग्रंथों की सृष्टि शांत एवं समाधिस्थ ऋषियों की अगमधारा का प्रस्फुटन मात्र है। समाज की भीड़ से दूर द्वन्द्वों से परे, एक शांत वातावरण में अनेक शास्त्रों का उद्गम हुआ। लेकिन गीता एक अनोखा शास्त्र है। यह एक विचित्र परिवेश में भगवान कृष्ण की प्रज्ञा से प्रसारित हुई है। युद्ध का मैदान है कुरुक्षेत्र। दोनों तरफ की सेनाएं अस्त्र-शस्त्र लिए हुए एक दूसरे को नष्ट करने के लिए तत्पर हैं। पूरे माहौल में तनाव है। ऐसे परिवेश में ऐसे अद्भुत ग्रंथ का प्रगटीकरण भारतीय दर्शन की पराकाष्ठा है। कर्मभूमि और युद्धभूमि के बीच खड़े हुए भी भगवान कृष्ण इतने शांतचित्त और प्रज्ञावान स्थिति में हो सकते हैं और पप्रे जीवन दर्शन को अर्जुन को निमित्त बनाकर कह रहे हैं, यह एक अजबा है, चमत्कार है।
गीता अकर्मण्यता का घोर विरोध करती है। अकर्मण्यता का किसी भी रूप में प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। उन कोरे ज्ञानियों का ज्ञान निरर्थक है जो ज्ञान की डींग मारते हैं लेकिन कर्मभूमि से दूर भागना चाहते हैं क्योंकि कर्म में जोखिम उठाने पड़ते हैं, क्योंकि कर्म जीत और हार लिए हुए है और इसके परिणाम अच्छे और बब्रे हो सकते हैं। ऐसे ज्ञानी जो इस भूमि का अन्न और जल खाकर बड़े हो रहे हैं तिरस्कृत हैं। कर्म मानव के स्वभाव में निहित है।
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