असमिया संस्कृति को संवारने और उसे पराकाष्ठा पर ले जाने में शंकरदेव की भूमिका बहुत बड़ी है। वे वैष्णव संत भर नहीं थे, गीत, संगीत, गायन, वादन, नृत्य, नाटक, अभिनय और चित्रकारी जैसी विभिन्न ललित कलाओं के अनुपम शिल्पी भी थे। उन्होंने अंधविश्वास, जातिभेद, बलिप्रथा और वामाचार में खोये असमवासियों में धर्म की शुचिता, सहजता और करुणा जैसे मानवीय गुणों से नई चेतना विकसित करने का अभूतपूर्व काम किया। संस्कृत के प्रकांड पंडित होने के बावजूद उन्होंने आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्यम असमिया भाषा को ही बनाकर उसमें विपुल साहित्य सर्जना की। शंकरदेव के सोच की व्यापकता ही थी कि पाँच सौ वर्ष पहले उन्होंने भारत को जोड़ने के लिए एक संपर्क भाषा की आवश्यकता को न सिर्फ महसूस किया, बल्कि असमिया और मैथिली को मिलाकर एक नई भाषा ब्रजावली विकसित कर उसमें बहुत से गीत और नाटक भी लिखे, जिनके माध्यम से उन्होंने जनसाधारण के समक्ष अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित किया। तब यह भी हुआ कि उनके गीत सुनने हिमालय के कुछ भक्त असम तक चले आए, क्योंकि वे ब्रजावली में रचे और गाए जा रहे थे। शंकरदेव द्वारा असमिया समाज में किए जा रहे सामाजिक परिवर्तन के कामों के लिए उन्हें कई बार सामाजिक और शासकीय प्रताड़नाएँ भी सहनी पड़ीं। उनके दामाद हरि की हत्या तक कर दी गई। उनके प्रिय शिष्य माधवदेव को कई महीने कारागार में रहना पड़ा। स्वयं वे भी स्थायी तौर पर कहीं एक जगह नहीं रह पाए। इसके बावजूद जीवन के अंतिम क्षण तक वे लोककल्याण और रचनाकर्म करते रहे। वहीं सच यह भी है कि उनके बारे में विशेष कुछ लिखा न मिलने के कारण न सिर्फ हिंदी क्षेत्रों, बल्कि असम से बाहर भारत में कहीं भी शंकरदेव अपेक्षाकृत कम जाने जाते रहे। शंकरदेव पर हिंदी में कोई बड़ी पुस्तक न होने के कारण तुलसीदास, सूरदास, कबीरदास, मीरां और चैतन्य महाप्रभु की तरह उनको अखिल भारतीय प्रसिद्धि नहीं मिल सकी। ऐसा मानना है असमिया कथाकार इंदिरा गोस्वामी का, जिसे उन्होंने साँवरमल सांगानेरिया की असमिया भाषा में लिखी पुस्तक 'शंकरदेव' की भूमिका में लिखा है।
शंकरदेव के बारे में महात्मा गाँधी के उस भ्रम का निवारण भी सांगानेरिया ने किया है, जो असम आने से पहले उनके मन में था। वे लिखते हैं कि "महात्मा गाँधी जब विलायत से भारत लौटे, तब उन्होंने अपने लेख 'हिंद स्वराज' में लिखा था कि असम के लोगों की अपनी कोई सांस्कृतिक परंपरा नहीं है। वे लोग पिंडारियों की तरह ठगी कर अपना जीवन व्यतीत करते हैं। अगस्त, 1921 में गाँधी जब पहली बार इधर आए तो असम के कुछ लोग उनसे मिले और असम की सांस्कृतिक विरासत के बारे में बताने के लिए उन्हें शंकरदेव रचित 'कीर्तन घोषा' और 'भागवत' के साथ माधवदेव कृत 'नामघोषा', माधव कंदली रचित 'रामायण', राम सरस्वती की लिखी 'महाभारत' और भट्टदेव की 'असमिया गीता' भेंट की। असम और हस्तिनापुर के बीच रहे पौराणिक रक्त संबंधों के बारे में भी बताया। यह सब जानकर गाँधी जी ने अपने लेख को 'हिमालयन ब्लंडर' मानते हुए नया लेख लिखकर अपनी भूल को सुधारा।
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