युग का यथार्थ यदि साहित्य की किसी भी विद्या में मुखर हो उठता है तो वह है कथा साहित्य। अर्जित ख्याति प्राप्त कथाकार के रुप में अज्ञेय का विशिष्ट स्थान है। इनका व्यक्ति पर अटूट और एकनिष्ठ आस्था रही है। इसी कारण संभवतः वे अपनी रचनाओं में कृतित्व के माध्यम से व्यक्ति को ऊँचाई देने की चेष्टा करते दिखाई देते हैं।
सन् १६३१-१६५० की अवधि की हिन्दी की कहानी में और सन् १६४०-१६६१ की अवधि की हिन्दी उपन्यास में अज्ञेय की उपस्थिति बेमिसाल है। इतना ही नहीं उनके उपन्यास और उनकी कहानियाँ आज भी प्रासंगिक हैं और उनकी कालजीविता प्रत्याशित है। निश्चय ही उनके कथा- साहित्य का विश्लेषण और मूल्यांकन आज भी अप्रासंगिक नहीं है। अज्ञेय मूलरूप से मानव मन के आभ्यंतर के कथाशिल्पी हैं।
आज के व्यस्त एवं संघर्षशील युग में अज्ञेय के उपन्यासों में व्यक्ति के स्थापना हेतु जितने अधिक प्रयत्न किए हैं वे वस्तुतः उनके महत्व को और अधिक बढ़ा देते हैं। उनके शेखरः एक जीवनी, नदी के द्वीप में यदि एक ओर भारतीय जनजीवन और चेतना चित्रित है तो दूसरी ओर उनके उपन्यास अपने अपने अजनबी में विदेशी चरित्रों के माध्यम से मानव मात्र की आत्मा का अत्यंत सफल उद्घाटन प्रस्तुत किया गया है। अज्ञेय के इस उपन्यास ने आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य को एक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का महत्व प्रदान किया है। हिन्दी उपन्यास को जिस प्रकार मनोरंजन के तथाकथित स्तर से उठाने का प्रयास किया, अज्ञेय ने उसी प्रकार कहानी को भी उपर उठाया। अज्ञेय की प्रायः सभी कहानियों में व्यक्ति चरित्र उनकी कविताओं की तरह ही व्यंजित होता दिखाया गया है। अज्ञेय की रचनाओं पर अब तक बहुत कुछ लिखा गया है। विद्वानों ने अज्ञेय को कई पहलुओं से परखने का प्रयास किया है। उन्होंने उनके कथा साहित्य का सही मूल्यांकन करने की चेष्टा भी की है। डॉ० नन्दकुमार राय, ओम प्रभाकर, डॉ० संजय कुमार मिश्रा जैसे प्रमुख आलोचकों ने अज्ञेय के कथा साहित्य में वर्णित अन्र्तवस्तु एवं चरित्रों की समीक्षा की है। मैंने इन आलोचकों की रचनाओं को बड़े ही आदर भाव से पढ़ा है तथा कथा साहित्य का मूल्यांकन करने में समर्थ आचार्यों के प्रति में अभिभूत हूँ। पर इस पुस्तक में मैंने अज्ञेय की कहानियों एवं उपन्यासों में अन्तर्निहित बाह्य घटनाओं को महत्व दिए विना उन आन्तरिक प्रतिक्रियाओं को विश्लेषित करते हुए कथा मूल्यांकन करने का भरसक पूरा प्रयास किया है।
अज्ञेय के कथा मूल्यांकन एवं उनके अन्तर्वस्तु के अध्ययन के लिए इसे भूमिका, उपसंहार, और परिशिष्ट को छोडकर चार अध्यायों में विभक्त किया है।
प्रथम अध्याय में अज्ञेय की उपन्यास धारणा है, इसमें अज्ञेय जी के द्वारा जड़ीभूत और निष्क्रिय परंपरा को नकारकर मानवीय मूल्यों की खोज और उसके आदर्शों की स्थापना पर बल दिया गया है। उपन्यास के तत्व के अन्तर्गत कथावस्तु, पात्र या चरित्र चित्रण, कथोपकथन या संवाद, देशकाल या वातावरण, भाषा शैली, उद्देश्य आदि तत्वों पर प्रकाश डाला गया है।
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