अध्यात्म की कोख में पली-बढ़ी, अघोर परंपरा हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। अघोर परंपरा आज भी पूर्ण चेतना के साथ विद्यमान है। उसकी गूढ़ बातों में अनेक रहस्य छुपे होते हैं। उसके मंत्र-तंत्र के मूल रहस्यों में अनेकानेक गूढ़ार्थ छुपे होते हैं, जो साधु-परंपरा को एक अलग ही ऊँचाई पर रखते हैं।
'रहस्यमय गिरनार' पुस्तक इसी अघोर परंपरा के अध्यात्मपूर्ण रहस्य के नजदीक हमें ले जाती है। अध्यात्म क्षेत्र में हमारी अघोर परंपरा में आज भी सैकड़ों सिद्ध साधु-योगी अपने तपोबल से एक चुंबकीय प्रभाव पैदा करते रहते हैं। हमारी इस अघोर परंपरा में कैसी अद्भुत शक्ति छिपी है, यह पढ़कर पाठक अचंभित हो जाएँगे |
अघोर परंपरा के अनेक अप्रकट रहस्य इस पुस्तक द्वारा हमारे सामने प्रकट होंगे । कुछ गुप्त बातें साधु परंपरा की मर्यादा में रहकर इस पुस्तक के माध्यम से हमारे सामने आती हैं | अघोर परंपरा के कुछ रहस्य हमें चमत्कार जैसे लगेंगे, मणर वे चमत्कार नहीं वरन् वास्तव में सिद्ध साधुओं के अध्यात्म-अघोर शक्ति का प्रगटीकरण है-यह बात कुछ लोगों की समझ के परे है। पाठकों को योग क्रिया, ध्यान, समाधि इत्यादि परंपरा की अनुभूति पुस्तक पढ़ते समय होती रहेगी | भारत के प्राण इस संस्कृति और अध्यात्म शक्ति में छिपे हैं और ऐसी अध्यात्म परंपरा ने ही तो भारत को मृत्युंजयी रखा है-यह गौरवबोध करानेवाली रोचक-रोमांचक कृति|
महाभारत का प्रत्येक पात्र स्वयं में पूर्ण जीवन एवं अप्रतिम गहराई लिये हुए है। अप्रतिम इसलिए लिखा, क्योंकि जैसे-जैसे आप इन पात्रों के जीवन दर्शन में उतरते हैं, लगातार मंत्रमुग्ध होते जाते हैं। मेरा प्रयास है कि महाभारत के ऐसे पात्रों के बारे में लिखूँ, जिनपर अभी तक कम लिखा गया या फिर लिखा भी गया तो मानो महाभारत की कथा का ही पुनः पाठ था। मेरा पहला प्रयास गंगापुत्र भीष्म के रूप में था, अब प्रस्तुत पुस्तक में कुंती के जीवन के विभन्न आयाम आपके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास है।
कुंती महाभारत का एक ऐसा पात्र हैं, जिनकी चारित्रिक दृढ़ता ने विस्तृत रूप से भारत भूमि के सबसे भीषण महायुद्ध में धर्म जय की नींव रखी। कुंती का जीवन का यदि हम सूक्ष्म अन्वेषण करें तो पाएँगे कि उनकी कर्म गति अत्यंत संतुलित एव समयानुसार है। वो अपने पुत्रों को उनका अधिकार दिलवाने के लिए पूर्ण दृढ़ता से खड़ी दिखती हैं। उनको ज्ञात है कि उनका ज्येष्ठ पुत्र युद्ध के स्थान पर शांति का मार्ग चुन सकता है, जिसका मूल्य समस्त पांडवों के अधिकारों का हनन एवं द्रौपदी के अपमान की पीड़ा का शाश्वत होना है इसीलिए सर्वप्रथम वो पांडवों के वनवास के काल में हस्तिनापुर में ही रहना चुनती हैं, हालाँकि, इस समय वो राजप्रासाद में निवास ना करके विदुर के आश्रम रूपी गृह में निवास करती हैं। उनको आशा होती है कि दुर्योधन उनको हस्तिनापुर में क्षति अवश्य पहुँचाएगा। तत्पश्चात् युधिष्ठिर चाहकर भी युद्ध नहीं टाल पाएगा। इसी क्रम में जब कृष्ण पांडवों के दूत बनकर हस्तिनापुर आते हैं, तब वो कृष्ण के माध्यम से अपने पुत्रों को संदेश भिजवाती हैं कि जिस घड़ी के लिए क्षत्राणी पुत्र जनती है, वो घड़ी आ पहुँची है। स्पष्ट है कि युद्ध का शंखनाद उसी समय हो गया था।
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