अशोक के फूल
हजारी प्रसाद द्विवेदी
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भारतीय मनीषा और साहित्य एवं संस्कृति के अप्रतिक व्याख्याकार माने जाते है और उनकी मूल निष्ठा भारत की पुरान संस्कृति में है लेकिन उनकी रचनाओं में आधुनिकता के साथ आश्चर्य सामंजस्य पाया जाता है।
हिन्दी साहित्य की भूमिका और बाणभट् की आत्मकथा जैसी यशस्वी कृतियों के प्रणेता आचार्य द्विवेदी को उनके निबन्धों के लिए भी विशेष ख्याति मिली। निबन्धों में विषयानुसार शैली का प्रयोग करने में इन्हें अद्भुत क्षमता प्राप्त है। तत्सम शब्दों के साथ ठेठ ग्रामीण जीवन के शब्दों का सार्थक प्रयोग इनकी शैली का विशेष गुण है।
भारतीय संस्कृति, इतिहास, साहित्य, ज्योतिष और विभित्र धर्मों का उन्होंने गम्भीर अध्ययन किया है। जिसकी झलक पुस्तक में संकलित इन निबन्धों में मिलती है। छोटी-छोटी चीजों, विषयों का सूक्ष्मतापूर्वक अवलोकन और विश्लेषण-विवेचन उनकी निबन्धकला का विशिष्ट व मौलिक गुण है।
निश्चय ही उनके निबन्धों का यह संग्रह पाठकों को न केवल पठनीय लगेगा बल्कि उनकी सोच को एक रचनात्मक आयाम प्रदान करेगा।
जीवन परिचय
हजारीप्रसाद दिूवेदी
बचपन का नाम : बैजनाथ दिूवेदी
जन्म : श्रावणशुक्ल एकादशी संवत् 1964(1907 ई.)
जन्मस्थान : आरत दुबे का छपरा, ओझवलिया, बलिया (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा : संस्कृत महाविद्यालय, काशी में । 1929 ई. में संस्कृत साहित्य में शास्त्री और 1930 में ज्योतिष विषय लेकर शास्त्राचार्य की उपाधि ।
गतिविधियों: 8 नवम्बर, 1930 को हिन्दी शिक्षक के रूप में शान्तिनिकेतन में कार्यारम्भ वहीं 1930 से 1950 तक अध्यापन; सन् 1950 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक और हिन्दी विभागाध्यक्ष; सन् 1960-67 में पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़ में हिन्दी प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष; 1967 के बाद पुन: काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में; कुछ दिनों तक रेक्टर पद पर भी।
हिन्दी भवन, विश्वभारती के संचालक 1945 - 50; 'विश्व-भारती' विश्वविद्यालय की एक्जीक्यूटिव काउन्सिल के सदस्य 1950 - 53; काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष 1952-53 साहित्य अकादमी, दिल्ली की साधारण सभा और प्रबन्ध-समिति के सदस्य; राजभाषा आयोग के राष्ट्रपति मनोनीत सदस्य 1955 ई.; जीवन के अन्तिम दिनों में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष रहे। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के हस्तलेखों की खोज (1952) तथा साहित्य अकादमी से प्रकाशित नेशनल बिब्लियोग्राफी (1954) के निरीक्षक ।
सम्मान : लखनऊ विश्वविद्यालय से सम्मानार्थ डॉक्टर ऑफ उपाधि ( 1949) पद्यभूषण (1957), पश्चिम बैग साहित्य अकादमी क टगोर पुरस्कार तथा केन्द्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार (1973)।
निधन : 19 मई, 1979 ।
प्रकाशकीय
प्रस्तुत पुस्तक के विषय में विशेष कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है । श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी उनइने-गिने चिंतकों में से हैं, जिनकी मूल निष्ठा भारत की पुरानी संस्कृति में है, लेकिन साथ ही नूतनता का आश्चर्यजनक सामंजस्य भी उनमें पाया जाता है । भारतीय संस्कृति, इतिहास, साहित्य, ज्योतिष और विभिन्न धर्मों का उन्होंने गहराई के साथ अध्ययन किया है । उनकी विद्वत्ता की झलक इस पुस्तक के निबंधों में स्पष्ट दिखाई देती है । लेखक की एक 'और विशेषता है । वह यह कि छोटी-से-छोटी चीज को भी वह सूक्ष्म दृष्टि से देखते हैं । ' वसंत आता है, हमारे आस-पास की वनस्थली रंग-बिरंगे पुष्पों से आच्छादित हो उठती है, लेकिन हममें से कितने हैं, जो उसके आकर्षक रूप को देख और पसंद कर पाते हैं? अपनी जन्मभूमि का इतिहास हममें से कितने जानते हैं? पर द्विवेदीजी की पैनी आँखें उन छोटी, पर महत्त्वपूर्ण चीजों को बिना देखे नहीं रह सकीं ।
शिक्षा और साहित्य के बारे में द्विवेदीजी का दृष्टिकोण बहुत ही स्वस्थ है । पाठक देखेंगे कि तद्विषयक निबन्धों में साहित्य एवं शिक्षा को जनहित की दृष्टि से ढालने की उन्होंने एक नवीन दिशा सुझाई है । यदि उसका अनुसरण किया जा सके तो राष्ट्र -उत्थान के लिए बड़ा काम हो सकता है ।
पुस्तक की भाषा और शैली के बारे में तो कहना ही क्या? भाषा चुस्त और शैली प्रवाहयुक्त है ।कहीं-कहीं पर कठिन शब्दों का प्रयोग सामान्य पाठक को खटक सकता है; लेकिन प्रत्येक शब्द के साथ कुछ ऐसा वातावरण रहता है कि कभी-कभी कठिन शब्दों के प्रयोग से बचा नहीं जा सकता ।
'हमें आशा है कि पाठक इस संग्रह से अधिकाधिक लाभ उठाएँगे और दिूवेदीजी की अन्य रचनाओं को भी यथासमय प्रकाशित करने का हमें अवसर देंगे ।
अट्ठाईसवाँ संस्करण
इस पुस्तक का अट्ठाईसवाँ संस्करण प्रस्तुत करते हुए हमें हर्ष हो रहा है । इतनी जल्दी सत्ताईसवाँ संस्करण निकल जाना इस बात का द्योतक है कि पुस्तक पाठकों को पसंद आई है। कई शिक्षण-संस्थानों ने इसे अपने पावयक्रम में सम्मिलित कर लिया है। ऐसे स्वस्थ साहित्य का अधिक-से-अधिक प्रसार होना चाहिए । यदि हम चाहते हैं कि हमारे आज के नवयुवक जिम्मेदार नागरिक बनकर समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्त्तव्य का । सुचारु रूप से पालन करें, तो उन्हें ऐसी पुस्तकें अधिकाधिक संख्या में मिलनी चाहिए ।हमें विश्वास है पुस्तक की लोकप्रियता आगे और बढ़ेगी ।
अनुक्रम
1
9
2
वसंत आ गया है
17
3
प्रायश्चित्त की घड़ी
20
4
घर जोड्ने की माया
28
5
मेरी जन्मभूमि
33
6
सावधानी की आवश्यकता
39
7
आपने मेरी रचना पढ़ी
47
8
हमारी राष्ट्रीय शिक्षा-प्रणाली
51
भारतवर्ष की सांस्कृतिक समस्या
57
10
भारतीय संस्कृति की देन
67
11
हमारे पुराने साहित्य के इतिहास की सामग्री
78
12
संस्कृत का साहित्य ।
84
13
पुरानी पोथियाँ
90
14
काव्य-माला
99
15
रवींद्रनाथ के राष्ट्रीय गान
108
16
एक कुत्ता और एक मैना
122
आलोचना का स्वतन्त्र मान
127
18
साहित्यकारों का दायित्व
132
19
मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है
143
नव वर्ष गया
160
21
भारतीय फलित ज्योतिष...
166
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