प्राक्कथन
''जय यौधेय'' ऐतिहासिक उपन्यास है। इसमें ई० सन् 350-400 ( गुप्त संवत् 30 -80) के भारत की राजनीतिक-सामाजिक अवस्था का चित्रण किया गया है। यौधेय एक बहुत ही बलशाली गणराज्य था जो यमुना-सतलज तथा चम्बल-हिमालय के बाच अवस्थित था । इतिहास और हमारे पुराने लेखकों ने इसके बारे में बडा क्रूर मौन धारण किया है। वस्तुत: यदि उनकी चली होती तो यौधेय नाम भी हम तक न पहुँचने पाता। लेकिन सिक्कों को क्या किया जाय जो कि अनजाने ही धरती के नीचे दब गये थे । उन्होंने चिल्ला-चिल्लाकर साक्ष्य देना शुरु किया-लाश ने खुद अपराध का भण्डाफोड़ किया। विस्मृत यौधेय फिर हमारे सामने प्रकट हो गये और अब तो हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर तथा भारतीय इतिहास के गम्भीर गवेषक डॉक्टर अलतेकर जैसे विद्वान् साफ शब्दों में कहने लगे हैं कि भारत से विदेशी कुपाणों के शासन को खत्म करने का श्रेय गुप्तवंश, भारशिव वंश को नही, यौधेयो को है ।
चौथी सदी में अपने अभिलेख मैं अशोक के पापाण-स्तभ (पहिले कौशाम्बी में, किन्तु अब हलाहाबाद के किले में) पर समुद्रगुप्त ने यौधेयों का नाम स्मरण करते हुए कहा हे कि उन्होंने कर-दान आज्ञा स्वीकार ओर प्रणाम (''सर्वकरदानाज्ञाकरणप्रणामागमन") द्वारा मुझे परितुष्ट किया। समुद्रगुप्त के लेख से मालूम होता हे कि उसने यौधेयगण का उच्छेद नहीं किया। लेकिन पाँचवी सदी के आरंभ से फिर हम यौधेयगण का नाम नहीं सुनते। इसलिए साफ है कि योधेय का ध्वंस चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने किया।
मैंने अपने उपन्यास मैं उसी गौरवशाली यौधेयगण और उसकी ध्वसलीला को चित्रित किया है। यहाँ राजाओं. राजकुमारो तथा गुप्तवंशी अधिकारियों के नाम देने में ऐतिहासिक साम्रगी का उपयोग किया है । यौधेयों का जाति के तौर पर नाम विस्मृत हो चूका था, तो उनेक व्यक्तियो के नामों की मिलने की आशा कहाँ से हो सख्ती है। समाज के चित्रण में मैंने कालिदास के ग्रन्थों और उसी समय के यात्री चीनी भिक्षु फाहियान के यात्रा-विवरण का उपयोग किया है। डॉक्टर आर० एन० डण्डेकर राखालदास बनर्जी (The Age of the Imperial Guptas) और डाँक्टर आर० एन० डण्डेकर (A History of the Guptas) के ग्रन्थों, गुप्तकालीन शिलालेखों और सिक्कों से मैंने इस ग्रन्थ में बहुत सहायता ली है। दो मील पर यौधेयगण के एक महासेनापति का लेख खुदा है-''सिद्ध (।) यौधेयगणपुरस्कृतस्य महाराज महासेनापते: पु. ब्राह्मण पुरोग चाधिष्ठान शरीरादिकुशलं पृष्ट्वा लिखत्यस्तिरस्मा'' (J.F.Fleet, inscriptions of Early Gupta Kings) ।प्रश्न। वे वीर यौधेय क्या बिलकुल उच्छिन्न हो गए? उस युद्ध में भारी सखा में वह मारे गए होंगे (जैसे कि उसी बात को उनके वंशज में वों तुगलकों ने दुहराया, मगर यौधेय कुछ बच भी गए । भावलपुर रियासत से मुल्तान तक फैला एक इलाका जोहियावार कहा जाता और बहुसंख्यक निवासी जोहिया (यौधेय) कहे जाते है । कराची के कोहिस्तान में जोहिया रहते हैं, बल्कि उनके सरदार को जोहिया-जो-जन्म कहा जाता है। अलवर और गुडगाँव के में व अब भी यौधेय भूमि में ही बसते हैं और उसकी वीरगाथाएँ सुनकर आज भी रोमांच हौ उठता है। ये मुसलमान हैं, मगर यौधेय रक्त को भूले नहीं। अब भी उनकी स्त्रियाँ वह गीत गाती हैं जिसमें नारी को कूप-पूजा कराने के लिए में व वीरों के प्राणोत्सर्ग का हदय-द्रावक वर्णन है।
इनके अतिरिक्त अग्रवाल, अग्रहरी, रोहतगी, रस्तोगी, श्रीमाल, ओसवाल, वर्णवाल, गहोई (?) जैसी आजकल वैश्य मानी जानेवाली जातियाँ भी यौधेयों की ही सन्तान हैं जो गणोच्छेद के बाद तलवार छोड तराजू पकडने पर मजबूर हुई। इस उपन्यास के शरीर में ऐतिहासिक सामग्री ने अस्थिपंजर का काम किया है, मांस मैंने अपनी कल्पना से पूरा किया है।
प्रकाशकीय
हिन्दी साहित्य में महापंडित राहुल सांकृत्यायन का नाम इतिहास-प्रसिद्ध और अमर विभूतियों में गिना जाता है। राहुल जी की जन्मतिथि 9 अप्रैल, 1893 और मृत्युतिथि 14 अप्रैल, 1963 है । राहुल जी का बचपन का नाम केदारनाथ पाण्डे था। बौद्ध दर्शन से इतना प्रभावित हुए कि स्वय बौद्ध हो गये। 'राहुल' नाम तो बाद मैं पड़ा-बौद्ध हो जाने के बाद । 'साकत्य' गोत्रीय होने के कारण उन्हें राहुल सास्मायन कहा जाने लगा।
राहुल जी का समूचा जीवन घूमक्कड़ी का था। भिन्न-भिन्न भाषा साहित्य एव प्राचीन संस्कृत-पाली-प्राकृत-अपभ्रंश आदि भाषाओं का अनवरत अध्ययन-मनन करने का अपूर्व वैशिष्ट्य उनमें था। प्राचीन और नवीन साहित्य-दृष्टि की जितनी पकड और गहरी पैठ राहुल जी की थी-ऐसा योग कम ही देखने को मिलता है। घुमक्कड जीवन के मूल में अध्ययन की प्रवृत्ति ही सर्वोपरि रही। राहुल जी के साहित्यिक जीवन की शुरुआत सन् 1927 में होती है । वास्तविक्ता यह है कि जिस प्रकार उनके पाँव नही रुके, उसी प्रकार उनकी लेखनी भी निरन्तर चलती रही । विभिन्न विषयों पर उन्होने 150 से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया हैं । अब तक उनक 130 से भी अधिक ग्रंथ प्रकाशित हौ चुके है। लेखा, निबन्धों एव भाषणों की गणना एक मुश्किल काम है।
राहुल जी के साहित्य के विविध पक्षी का देखने से ज्ञात होता है कि उनकी पैठ न केवल प्राचीन-नवीन भारतीय साहित्य में थी, अपितु तिब्बती, सिंहली, अग्रेजी, चीनी, रूसी, जापानी आदि भाषाओं की जानकारी करते हुए तत्तत् साहित्य को भी उन्होंने मथ डाला। राहुल जी जब जिसके सम्पर्क में गये, उसकी पूरी जानकारी हासिल की। जब वे साम्यवाद के क्षेत्र में गये, तो कार्ल मार्क्स लेनिन, स्तालिन आदि के राजनातिक दर्शन की पूरी जानकारी प्राप्त की। यही कारण है कि उनके साहित्य में जनता, जनता का राज्य और में हनतकश मजदूरों का स्वर प्रबल और प्रधान है।
राहुल जी बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न विचारक हैं । धर्म, दर्शन, लोकसाहित्य, यात्रासाहित्य इतिहास, राजनीति, जीवनी, कोश, प्राचीन तालपोथियो का सम्पादन आदि विविध सत्रों में स्तुत्य कार्य किया है। राहुल जी ने प्राचीन के खण्डहरों गे गणतंत्रीय प्रणाली की खोज की। सिंह सेनापति जैसी कुछ कृतियों मैं उनकी यह अन्वेषी वृत्ति देखी जा सकती है। उनकी रचनाओं में प्राचीन के प्रति आस्था, इतिहास के प्रति गौरव और वर्तमान के प्रति सधी हुई दृष्टि का समन्वय देखने को मिलता है । यह केवल राहुल जी जिहोंने प्राचीन और वर्तमान भारतीय साहित्य-चिन्तन को समग्रत आत्मसात् कर हमें मौलिक दृष्टि देने का निरन्तर प्रयास किया है। चाहे साम्यवादी साहित्य हो या बौद्ध दर्शन, इतिहास-सम्मत उपन्यास हो या 'वोल्गा से गंगा' की कहानियाँ-हर जगह राहुल जा की चिन्तक वृत्ति और अन्वेषी सूक्ष्म दृष्टि का प्रमाण गिनता जाता है । उनके उपन्यास और कहानियाँ बिलकुल एक नये दृष्टिकोण को हमारे सामने रखते हैं।
समग्रत: यह कहा जा सक्ता है कि राहुल जी न केवल हिन्दी साहित्य अपितु समूल भारतीय वाङमय के एक ऐसे महारथी है जिन्होंने प्राचीन और नवीन, पौर्वात्य एवं पाश्चात्य, दर्शन स्वं राजनीति और जीवन के उन अछूते तथ्यों पर प्रकाश डाला है जिन पर साधारणत: लोगों की दृष्टि नहीं गई थी । सर्वहारा के प्रति विशेष मोह होने के कारण अपनी साम्यवादी कृतियों में किसानों, मजदूरों और में हनतकश लोगों की बराबर हिमायत करते दीखते है। विषय के अनुसार राहुल जी की भाषा- शैली अपना स्वरुप निधारित करती है। उन्होंने सामान्यत: सीधी-सादी सरल शैली का ही सहारा लिया है जिससे उनका सम्पूर्ण साहित्य विशेषकर कथा-साहित्य-साधारण पाठकों के लिए भी पठनीय और सुबोध है।
प्रस्तुत कृति 'जय यौधेय' राहुल जी लिखित एतिहासिक उपन्यास है । इसमें ई० सन् 350-400के भारत की राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों का चित्रण बडी कुशलता से किया गया है । यौधेय अपने युग का अत्यन्त शक्तिशाली गणराज्य था, जो यमुना-सतलज तथा चम्बल-हिमालय के यदि अवस्थित था । लेकिन काल- प्रवाह में यह गणतन्त्र विलुप्त हो गया और इतिहासकारो तक ने इसका उल्लेख करना या इसे याद रखना आवश्यक नहीं समझा । लेकिन समय बीते यौधेय का पुन: प्रकटीकरण हुआ आर डॉक्टर अलतेकर जैसे विद्यवानों ने स्वीकार किया कि भारत से विदेशी कुषाणों के शासन को समाप्त करने का एकमात्र श्रेय गुप्तवंश, भारशिव वश को ही नहीं वल्कि यौधेयों को है । इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर राहुल जी ने इज आकर्षक और अद्वितीय उपन्यास की रचना की है।
अनुक्रम
1
समुद्रगुप्त और यौधेय
7
2
बचपन
9
3
गंधार की यात्रा
16
4
शिक्षा
25
5
राजकुल
31
6
पिता से अन्तिम भेंट
41
हिमालय और उत्सव-संकेत
48
8
पाटलिपुत्र के अन्तिम वर्ष
59
भग्न पोत
68
10
मानवता के बाल्व-जीवन में
79
11
फिर नागरिकों की दुनिया में
91
12
कांची में
102
13
सिंहल में
113
14
प्रेम या त्याग
118
15
मित्रलाभ
128
विक्रमादित्य के मंसूबे
132
17
विक्रमादित्य से प्रथम युद्ध
142
18
नवीन यौधेय
150
19
ब्याह
159
20
सन्तान ही हमारा भविष्य
170
21
कालिदास और यौधेय
178
22
अन्त
190
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