यूरोपियन सभ्यता और भारतीय सभ्यता में दिन-रात का अन्तर है। यूरोप की वर्तमान सभ्यता के आधार में अठारहवीं शताब्दी के नास्तिक मीमांसकों की शिक्षा है। अतः अठारहवीं शताब्दी में यदि आस्तिकवाद का बोलबाला होता तो यूरोप का औद्योगीकरण का रूप वह न होता, जो आज हुआ है।
जापान में भी औद्योगीकरण हुआ था, परन्तु इस औद्योगीकरण का आधार जापान का आस्तिकवाद था। अतएव यूरोप और जापान के औद्योगीकरण में अन्तर आ गया।
भारत धर्म-प्रधान देश था, अर्थात् यहाँ के विद्वान् आस्तिक थे, परन्तु औद्योगीकरण होने से पूर्व इस देश में नास्तिकों को प्रमुखता मिल गयी। अंग्रेजी राज्य ने यहाँ के धर्म तथा मीमांसा को हेय बताकर, अपनी मीमांसा का प्रचलन कर दिया। अंग्रेजों के धर्मविहीन राज्य का परिणाम यह हुआ कि भारत में धर्महीन व्यक्तियों की महिमा बढ़ गई।
अतः जब स्वराज्य मिला तो वे व्यक्ति सत्तावान बन गए, जो न तो परमात्मा में विश्वास रखते थे और न ही आत्मा में। यही कारण है कि उनको देश के औद्योगीकरण का वही रूप पसन्द आया, जो यूरोप में प्रचलित है। जापान एक एशियाई देश होते हुए और भारत के समीप तथा समान होते हुए भी, भारत के नास्तिक नेताओं पर प्रभाव नहीं डाल सका।
परिणामस्वरूप भारत में बड़े-बड़े कारखाने अर्थात् मानव को मशीनों का दास बनाने की योजनाएँ बनने लगीं। केवल इतना ही नहीं, नास्तिकवाद में मानव को प्रकृति का एक अंशमात्र मान, उसके साथ मिट्टी के एक ढेले के समान व्यवहार किया जाने लगा। इसकी स्वतन्त्रता, इसकी उन्नति करने की भावना, इसके आत्माभिमान और आत्मसम्मान को निरर्थक मान, इसको मशीनों और शारीरिक आवश्यकताओं का दास बनाने का यत्न किया जाने लगा। इसी को समाजवाद का नाम दिया गया है।
नास्तिकवाद का परिणाम बड़े-बड़े कल-कारखानों का बनना है और उनका परिणाम मार्क्सवाद है। यह भारतीयता के सर्वथा विपरीत है। भारतीयता का आधार आस्तिकवाद है। आस्तिकवाद का अर्थ इस पुस्तक में दिया है।
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