लोक संगीत अंक: Lok Sangeet Anka (an old and Rare Book)

FREE Delivery
Express Shipping
$38
Express Shipping: Guaranteed Dispatch in 24 hours
Quantity
Delivery Ships in 1-3 days
Item Code: HAA222
Publisher: Sangeet Karyalaya Hathras
Author: डा. लक्ष्मी नारायण गर्ग: (Dr. Lakshmi Narayan Garg)
Language: Hindi
Edition: 1966
ISBN: 8158057540
Pages: 255
Cover: HARDCOVER
Other Details 9.5 inch X 6.5 inch
Weight 400 gm
Fully insured
Fully insured
Shipped to 153 countries
Shipped to 153 countries
More than 1M+ customers worldwide
More than 1M+ customers worldwide
100% Made in India
100% Made in India
23 years in business
23 years in business
Book Description
<meta content="text/html; charset=windows-1252" http-equiv="Content-Type" /> <meta content="Microsoft Word 12 (filtered)" name="Generator" /> <style type="text/css"> <!--{cke_protected}{C}<!-- /* Font Definitions */ @font-face {font-family:Mangal; panose-1:2 4 5 3 5 2 3 3 2 2;} @font-face {font-family:"Cambria Math"; panose-1:2 4 5 3 5 4 6 3 2 4;} @font-face {font-family:Calibri; panose-1:2 15 5 2 2 2 4 3 2 4;} /* Style Definitions */ p.MsoNormal, li.MsoNormal, div.MsoNormal {margin-top:0in; margin-right:0in; margin-bottom:10.0pt; margin-left:0in; line-height:115%; font-size:11.0pt; font-family:"Calibri","sans-serif";} a:link, span.MsoHyperlink {color:blue; text-decoration:underline;} a:visited, span.MsoHyperlinkFollowed {color:purple; text-decoration:underline;} p.MsoListParagraph, li.MsoListParagraph, div.MsoListParagraph {margin-top:0in; margin-right:0in; margin-bottom:10.0pt; margin-left:.5in; line-height:115%; font-size:11.0pt; font-family:"Calibri","sans-serif";} p.msolistparagraphcxspfirst, li.msolistparagraphcxspfirst, div.msolistparagraphcxspfirst {mso-style-name:msolistparagraphcxspfirst; margin-top:0in; margin-right:0in; margin-bottom:0in; margin-left:.5in; margin-bottom:.0001pt; line-height:115%; font-size:11.0pt; font-family:"Calibri","sans-serif";} p.msolistparagraphcxspmiddle, li.msolistparagraphcxspmiddle, div.msolistparagraphcxspmiddle {mso-style-name:msolistparagraphcxspmiddle; margin-top:0in; margin-right:0in; margin-bottom:0in; margin-left:.5in; margin-bottom:.0001pt; line-height:115%; font-size:11.0pt; font-family:"Calibri","sans-serif";} p.msolistparagraphcxsplast, li.msolistparagraphcxsplast, div.msolistparagraphcxsplast {mso-style-name:msolistparagraphcxsplast; margin-top:0in; margin-right:0in; margin-bottom:10.0pt; margin-left:.5in; line-height:115%; font-size:11.0pt; font-family:"Calibri","sans-serif";} p.font5, li.font5, div.font5 {mso-style-name:font5; margin-right:0in; margin-left:0in; font-size:12.0pt; font-family:"Mangal","serif"; color:black;} p.font6, li.font6, div.font6 {mso-style-name:font6; margin-right:0in; margin-left:0in; font-size:12.0pt; font-family:"Mangal","serif"; color:red;} p.xl65, li.xl65, div.xl65 {mso-style-name:xl65; margin-right:0in; margin-left:0in; font-size:12.0pt; font-family:"Times New Roman","serif"; font-weight:bold;} p.xl66, li.xl66, div.xl66 {mso-style-name:xl66; margin-right:0in; margin-left:0in; font-size:12.0pt; font-family:"Times New Roman","serif"; font-weight:bold;} p.xl67, li.xl67, div.xl67 {mso-style-name:xl67; margin-right:0in; margin-left:0in; font-size:12.0pt; font-family:"Mangal","serif"; font-weight:bold;} p.xl68, li.xl68, div.xl68 {mso-style-name:xl68; margin-right:0in; margin-left:0in; font-size:12.0pt; font-family:"Times New Roman","serif";} p.xl69, li.xl69, div.xl69 {mso-style-name:xl69; margin-right:0in; margin-left:0in; font-size:12.0pt; font-family:"Mangal","serif";} p.xl70, li.xl70, div.xl70 {mso-style-name:xl70; margin-right:0in; margin-left:0in; font-size:12.0pt; font-family:"Times New Roman","serif";} p.xl71, li.xl71, div.xl71 {mso-style-name:xl71; margin-right:0in; margin-left:0in; font-size:12.0pt; font-family:"Mangal","serif"; font-weight:bold; font-style:italic;} p.msopapdefault, li.msopapdefault, div.msopapdefault {mso-style-name:msopapdefault; margin-right:0in; margin-bottom:10.0pt; margin-left:0in; line-height:115%; font-size:12.0pt; font-family:"Times New Roman","serif";} .MsoChpDefault {font-size:10.0pt;} .MsoPapDefault {margin-bottom:10.0pt; line-height:115%;} @page WordSection1 {size:8.5in 11.0in; margin:1.0in 1.0in 1.0in 1.0in;} div.WordSection1 {page:WordSection1;} -->--></style>

सम्पादकीय

लोक संगीत अंक का नया संस्करण प्रस्तुत है ।

लोक कला शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त हो रहा है, वह अर्थ हमारे लिए नया नही हैं वस्तुत उसे प्राकृत कला कहा जाना चाहिए । प्राकृत शब्द का अर्थ अपरिप्कृत अथवा अपरिमार्जित है । अशिक्षित अथवा असंस्कृत व्यक्ति को प्राक़त कहा जाता है, अतएव जिस कला को सीखने के लिए किसी विशिष्ट शिक्षा, अभ्यास अथवा साधना की आवश्यक् ना नहीं होती, वह प्राकृत कला है ।

धो व्यक्ति अन्य शास्त्रों में शिक्षित, परंतु संगीत में अशिक्षित है, वह संगीत की दृष्टि से प्राक़त ही कहलाएगा अतएव उसके द्वारा गाए जानेवाले गीत प्राकृत गीत ही होंगे ।

जिन देशों को राजनीतिक परतंत्रता के दुर्दिन नहीं देखने पड़े, उनके कला सम्बन्धी इतिहास से भारत का कला सम्बन्धी इतिहास सर्वथा भिन्न है । भारत के ग्रामों में चलनेवाली अनेक पाठशालाओं ने मूर्धन्य मनीषी, विद्वान् और चिंतक उत्पन्न किए हैं । भारत के महर्षि वनवासी रहे हैं । महर्षि वशिष्ठ जैसे राजगुरु भी नगरवासी न बनकर आश्रमवामी रहे । अतएव भारतीय ग्रामों को अन्य देशों के ग्रामों की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए ।

मुगल काल में भी पाठशालाओं का जाल भारत के गांव गाँव में बसा हुआ था, फलत बीरबल जैसे प्रत्युत्पन्नमति ग्रामों की ही संतान थे । डॉविश्वनाथ गौड़ ने अपने लेख में ठीक ही कहा है कि ग्रामवासी का अर्थ गँवार नहीं है ।

मुसलमानों ने हिंदुओं को गंवार कहा है । शाहजहां के साले ने अमरसिंह को गंवार ही कहा था कि अमरसिंह की तलवार ने उसका सिर धड़ से उड़ा दिया । शासक वर्ग शासित वर्ग को गंवार ही कहता है । सांस्कृतिक, बौद्धिक इत्यादि दृष्टियों से अत्यत समृद्ध ईरानी भी राजनीतिक दृष्टि से जब बर्बर अरबों का शिकार हुए, तब उन्हें भी अपमान भोगना पड़ा था । राजनीतिक परतन्त्रता ने हिंदुओं को अपनी ही दृष्टि से गिरा दिया वे रहन सहन, वेश भूषा, भाषा इत्यादि में शासकोंका अनुकरण करके गंवारों की श्रेणी से स्वयं को पृथक् करने की चेष्टा करने लगे । हिन्दुस्तान मेंऐसे काले अँग्रेजों की कमी आज भी नहीं है, जिन्हें भारतीय भाषा, वोष भूषा में गंवारपन दिखाई देता है ।

इन राजनीतिक कारणों नें भारतीय कला के विभिन्न रूपों को गंवारू बना दिया ।

संगीतरत्नाकर के प्रबन्धाध्याय में ओवी की गणना प्रबन्धों में है, परन्तु मुस्लिम दरबारों में ओवी जैसी वस्तुओं का प्रवेश न था, वह गंवारू समझी जाने लगी, और जब स्वभातखंडेजी दरबारी मदिरा की तलछट बटोरने लगे, तब उन जैसे महाराष्ट्र मनीषी ने महाराष्ट्र में प्रचलित ओवी को ही उपेक्षणीय और अशास्त्रीय (!) धोषित कर दिया ।

भातखंडेजी ने लिखा है कि महाराष्ट्र में शास्त्रीय संगीत का इतिहास बहुत पुराना नहीं है । दक्षिण के कुछ ब्राह्यण ग्वालियर जाकर हद्दू खां हस्सू खाँ के शिष्य हुए, तभी से महाराष्ट्र में खयाल गान का प्रचार हुआ । हद्दू खां हत्सु खां ने सपने लिए कुछ ऐसे राग चुन लिए थे, जिनमें तानें लेने की सुविधा हो इसलिए ग्वालियर में राग सीमित संख्या में गाए जाते हैं । यह भो कहा जाता है कि हददू खाँ हस्सू खाँ के समय से ही खयाल में भयानक तानें मारने की प्रथा चली ।

अर्थात् शास्त्रीय संगीत यानी खयाल , और खयाल के मानी तानें ! हो गया शास्त्र का अन्त । बाकी सब घास कूड़ा!

श्रीमती सुमित्राक्रुमारीजी के लेख में संकेत है कि अनेक लोक प्रचलित धुने अपने सौंदर्य के कारण गायकों का कंठहार बनीं और उन दरबारों में भी समादृत हुई, जहां भारतीयता को गंवारपन समझा जाता था । इसका अर्थ यह है कि लोक कला या प्राकृत कला अपने स्वास्थ्य या गुणों के कारण उन राज दरबारों में भी पूजित हुई, जहां के लोग खयाल को इस्लाम की देन (!) समझते थे ।

भैया गनपतराव का हारमोनियम वादन प्रसिद्ध है । वे ठुमरियाँ और दादरे बजाते थे । चलती लय के दादरों से वे सुननेवालों का दिल छूते थे और उन दादरों का मूल लोक में था । नटनियों और कंजरियों द्वारा गाई जानेवाली चीजें उनके हाथ में आकर सज जाती थीं । लोक जीवन से सम्बन्ध रखने तथा उसकी विभिन्न झांकियां प्रस्तुत करनेवाले दादरों में मचलते हुए बोल एक सारल्य, एक भोलेपन का दर्शन कराते थे ।

अल्लाहबंदे खाँ जैसे आलाप के सम्राट लोक प्रचलित धुनों पर विचार करते और उनमें रागों का बीज ढूंढते थे । संगीत शास्त्र में ग्राम और ग्रामीण शब्द गाँवों से ही आए हैं ।

लोक वाद्यों में प्रचलित अनेक ठेके अत्यंत गुदगुदानेवाले हैं और उनकी लय पर प्रत्येक व्यक्ति थिरकने लगता है । सच पूछा जाए, तो कहरवा और दादरा लय का बीज हैं । जिन्हें ये नहीं आते, वे लय का आनंद क्या जानें! स्वअच्छन महाराज जबहाथ में ढोलक लेकर बैठ जाते थे, कहरवा अनंत लग्गियों के रूप में मचलने लगता था । कहरवा कहारों के नाच के साथ बजनेवाला ठेका है ।

कंठ का अनर्गल व्यायाम करते करते जिनके स्वर की चमक नष्ट हो गई है, जिनके गाने में न कभी आकर्षण था और न है, वे भी माधुर्य परिप्लुत लोक गीतों को उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं, शायद इसी लिए कि वे लोक गीत वशीकरण मंत्र हैं!

कहा जाता है कि संगीत अब दरबारों के कारागार से मुक्त होकर जनता में आ गया है । दरबार में जिस कोटि के साधक कलाकारों का निर्माण हो रहा था, वैसे साधक कहाँ उतन्न हो रहे हैं? कलाकारों में जनता को रिझानेवाला दृष्टिकोण कहाँ उत्पन्न हो रहा है? इस दृष्टिकोण को उत्पन्न करने के लिए प्राकृत कला का अध्ययन अनिवार्य है ।

आचार्य बृहस्पति ने अपने लेख में चारबैत के भारतीय रूप की चर्चा करते हुए कहा है कि अफगानों का यह लोक गीत अब्दुलकरीम नामक गीतकार की कृपा से भारतीयता के रंग में रग रहा था और मुस्लिम साहित्य के रकीब का स्थान इनमें सौकनियों ने ले लिया था कि भारतीयता को गँवारपन समझनेवाले कठमुल्लाओं ने मजाक उड़ाना आरम्भ किया । संगीत के क्षेत्र में भी ऐसे कठमुल्लाओं की कमी नहीं ।

पाकिस्तान के परराष्ट्र मंत्री जुल्फिकारअली भुट्टो ने सुरक्षा समिति में कहा कि हमने हिन्दुस्तानवालों को एक सहस्र वर्ष से सभ्यता सिखाई है, अर्थात् भुट्टो महा अय की दृष्टि में भारतीय दर्शन, सभ्यता, कला, विज्ञान सभी गँवारपन, और भुट्टो महाशय की गालियों संस्कृति का मूर्त रूप! संगीत के क्षेत्र में भी भुट्टोवादियों की कमी नहीं है मुहम्मद करम इमाम ने खयाल को इस्लाम की देन कहा और बीसवीं शती में खयाल भारतीय शास्त्र हो गया ।

परन्तु भारत की उर्वरा शक्ति खयालों पर छाई । गान शैली में भले ही चम त्कारप्रियता और स्वरों का सर्कस रहा हो, परन्तु खयालों के विषय वही थे जो लोक गीतों के थे । दरबारों में सुहाग, बनरे, घोडियाँ और गालियाँ भी रागों में गाई गईं तथा संगीतजीविनी जातियों की कोकिलकंठियों के माध्यम से लोक भावनाएँ अन्त पुरों में पहुँची, और इस प्रकार लोक की दृष्टि दरबारों में समादृत हुई । दाम्पत्य, वात्सल्य, संयोग, वियोग, विवाह इत्यादि अवसरों का सम्बन्ध मानव मात्र से है ।

यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना आवश्यक है । लोक संगीत अलग बात है और लाइट म्यूज़िक के नाम पर की जानेवाली बेहूदगियां या निर्लज्जताएँ अलग बात है । लोक संगीत में जीवन के रम्य, मधुर और करुण चित्र हैं वहाँ अनर्गलता नहीं है । लाइट म्यूज़िक के नाम पर तो आज हर बेहूदगी माफ है । लाइट म्यूजिक में हर चीज लाइट है । जहाँ हलकापन या ओछापन है, वहाँ सौम्यता कहां?

कहा जाता है कि लोक संगीत शब्द प्रधान है, परन्तु स्वर प्रधानता और शब्द प्रधानता तो विभिन्न शैलियाँ हैं । इन दोनों में वस्तु भेद नहीं है । इसी लिए संगीत क्षेत्र के विचारकों ने शैलियों के दो प्रकार स्वराश्रित और पदाश्रित बताए हैं । यही शैलियाँ गीतियाँ कहलाती हैं ।

अस्तु, लोक संगीत में से सार वस्तु का ग्रहण प्रत्येक विवेचक का कर्तव्य है । लोक गीतों की धुनों को आधार बनाकर फिल्म जगत् में जो निर्लज्जता पूर्ण, अश्लील और अकल्याण कारक वाक्य गाए जा रहे हैं, वे न काव्य हैं न गीत । गीत के भाषा पक्ष और स्वर पक्ष की सृष्टि एक हो हृदय से होतो है परन्तु फिल्म में ऐसा नहीं होता शब्द किसी के, स्वर किसी के ।

सूर जैसे महाकवियों और वाग्गेयकारों की रचनाएँ पद हैं । यहाँ पद का लक्षण करने के लिए अवकाश नहीं है, परन्तु मानसिंह तोमर ने इन्हें विष्णु पद कहा है । पद छन्दोबद्ध हैं, इन्हें पढ़ने से ही इनका ताल जान लिया जाता है । ये विभिन्न रागों में गेय हैं । सूर और नन्ददास जैसे सगीत के देवताओं की कृतियों को मनमाने ढंग से उचक उचक और फुदक फुदककर गाना उन कृतियों तथा उनके कर्ताओं का अपमान है, और यह कुकृत्य सरकारी एव गैर सरकारी संस्थाओं में अनर्गलता पूर्वक हो रहा है । लाइट म्यूज़िक के कर्णधार यदि इन सन्तों पर कृपा न करैं, तो उनकी बड़ी कृपा होगी । इन महामनीषियों की रचनाएँ लोक का कंठहार हैं ।

 

अनुक्रम

५ सम्पादकीय

९ लोक और भारतीय संगीत सुमित्रा आनन्दपालसिंह

१३ चारबैत और रामपुर रुहेलखण्ड की एक लुप्तप्राय लोक गीति आचार्य बृस्पति

१८ लोक कला का बीज और उसका प्रत्यक्ष उदाहरण डा० विश्वनाथ गौड

२६ भारत का लोक संगीत और उसकी आत्मा पद्मश्री ओमकारनाथ ठाकुर

२८ भारतीय संगीत का मूलाधार लोक संगीत कुमार गन्धर्व

३५ लोक संगीत और वर्ण व्यवस्था सुनील कुमार

३८ लोक नृत्य और लोक वाद्यों में लोक जीवन की व्याख्या शान्ती अवस्थी

४६ लोक गीतों का संगीत पक्ष महेशनारायण सक्सेना

५१ लोक धुनों की धड़कने पं० रविशंकर

५३ ब्रज का लोक संगीत कृष्णदत्त वाजपेयी

५६ राजस्थान का लोक संगीत गोडाराम वर्मा

५८ होली सम्बन्धी एक राजस्थानी लोक गीत डा० मनोहर शर्मा

६२ मध्य भारत का लोक संगीत श्याम परमार

६७ मालवा का लोक संगीत रामप्रकाश सक्सेना कुमारवेदना

७४ बंगाल के लोक गीत सुरेश चक्रवर्ती

७७ दक्षिण भारत का लोक सगीत गौंडाराम वर्मा

७९ गढ़वाल और कुमाऊँ में ढोल की गूंज केशव अनुरागी

८४ जब बनवासी गाते हैं! श्रीचन्द्र जैन

८८ मालवी और राजस्थानी गायक सीताराम लालस

९४ भोजपुरी फिल्मों में लोक संगीत दो दृष्टिकोण चित्रगुप्त, महेंन्द्र सरल

 











Frequently Asked Questions
  • Q. What locations do you deliver to ?
    A. Exotic India delivers orders to all countries having diplomatic relations with India.
  • Q. Do you offer free shipping ?
    A. Exotic India offers free shipping on all orders of value of $30 USD or more.
  • Q. Can I return the book?
    A. All returns must be postmarked within seven (7) days of the delivery date. All returned items must be in new and unused condition, with all original tags and labels attached. To know more please view our return policy
  • Q. Do you offer express shipping ?
    A. Yes, we do have a chargeable express shipping facility available. You can select express shipping while checking out on the website.
  • Q. I accidentally entered wrong delivery address, can I change the address ?
    A. Delivery addresses can only be changed only incase the order has not been shipped yet. Incase of an address change, you can reach us at [email protected]
  • Q. How do I track my order ?
    A. You can track your orders simply entering your order number through here or through your past orders if you are signed in on the website.
  • Q. How can I cancel an order ?
    A. An order can only be cancelled if it has not been shipped. To cancel an order, kindly reach out to us through [email protected].
Add a review
Have A Question

For privacy concerns, please view our Privacy Policy