श्रीभगवान् ने कहा (भगवद्गीता कथारूप) तृतीय खण्ड, पूर्वार्ध श्रद्धालु पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। इसके पूर्व के तीन ग्रन्थों को पढ़कर भक्तों ने अत्यन्त प्रसन्नत प्रकट की तथा उनके प्रोत्साहन के कारण यह अगली पुस्तक प्रकाशित हो सकी है। गीता के तृतीय अध्याय के श्लोक संख्या । से लेकर श्लोक संख्या 20 तक श्रील प्रभुपाद ने प्रत्येक श्लोक में तात्पर्य दिये हैं, अतः इस पुस्तक में लेखों को संख्या 20 है।
तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में अर्जुन पिछले अध्याय में श्रीकृष्ण को दी हुयी शिक्षाओं से भ्रमित हो गये। उन्होंने विचार किया कि श्रीकृष्ण की यह शिक्षा कि अपनी इन्द्रियों को वश में करके अपने मन तथा बुद्धि को परमेश्वर में केन्द्रित किया जाये, यह भौतिक जगत् में कर्म करते हुये सम्भव नहीं है। अतः अर्जुन प्रश्न करते हैं कि श्रीकृष्ण उन्हें युद्ध जैसे घोर कर्म में क्यों लगा रहे हैं। इस प्रश्न के उत्तर में श्रीकृष्ण उन्हें कर्मयोग का उपदेश देते हैं, जिसमें बिना किसी भौतिक लाभ के परमेश्वर (श्रीकृष्ण) के प्रति समर्पित होकर कर्म करना होता है। आगे श्रीकृष्ण समझाते हैं कि कर्म न करने से व्यक्ति की कर्म-बन्धन से रक्षा नहीं होती है। स्वभाव के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति कर्म करने के लिये विवश है। यहाँ तक कि शरीर को धारण करने के लिये भी व्यक्ति को कर्म करना पड़ता है। अतः व्यक्ति को इस प्रकार कर्म करना चाहिये कि वह भौतिक बन्धन में न फंसकर मुक्ति की ओर अग्रसर हो। इस प्रकार कर्म करने की कला को कर्मयोग कहते हैं जिसमें विष्णु या श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये उन्हीं के निर्देशन में कर्म करना होता है।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यदि हृदय की पर्याप्त शुद्धि के बिना कर्म का त्याग कर दिया जाता है तो व्यक्ति का मन इन्द्रिय विषयों की ओर जायेगा, क्योंकि उसका हृदय अभी शुद्ध नहीं हुआ है। वह व्यक्ति यह सोचकर अपने-आपको ही धोखा दे रहा है कि मैं संन्यासी हूँ। ऐसे व्यक्ति को मिथ्याचारी कहा जाता है। ऐसे मिथ्याचारी संन्यासी बनने से अच्छा है कि सदाचारी गृहस्थ बना जाये। जिस समय व्यक्ति अपनी स्थिति को श्रीकृष्ण के सेवक के रूप में समझ लेता है, उस समय वह सर्वाधिक सौभाग्यशाली हो जाता है, क्योंकि उसने परम लक्ष्यको स्वीकार कर लिया है और वह धीरे-धीरे उचित अभ्यास के द्वारा उस परम लक्ष्य की ओर आगे बढ़ता जायेगा। यदि व्यक्ति श्रीकृष्ण को समझ लेता है तो तुरन्त ही वह निष्काम हो जाता है, क्योंकि वह समझ लेता है कि श्रीकृष्ण ही सभी प्रकार से उसके मित्र और रक्षक हैं।
लेखक ने श्रीकृष्ण और उनके भक्तों की कृपा से श्लोकों की जो कुछ भी व्याख्या लिखी है, वह भक्तों के समक्ष है। यदि श्रीकृष्ण के भक्तगण इसी प्रकार प्रोत्साहन देते रहेंगे तो श्रील प्रभुपाद की कृपा से लेखक आगे भी इस कार्य को जारी रख सकेगा।
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