हम सभी का स्वप्न-मछग इसी प्रकार हमें मायापाछा में बाँछाकर आदर्छा एवं संपूर्णता की राह लिए चलता है। दिखती हैं सफलता की सतरंगी राहें। उल्लास है और प्रेरणा की छाक्ति का सहयोग भी। परिणाम भिन्न है। जहाँ मात्रा में ही मैं प्रबल हो, उचित और अनुचित का भाव तिरोहित होने लगे, वहाँ संपूर्ण संपूर्णता अदछछय हो जाती है। उचित यही है कि स्वप्न-मछग स्वार्थ के वन-वनांतर न विचरण करे कि किसी दिन मायापाछा में जकड़ लिए जाएँ। पारिवारिक पछष्ठभूमि में 'मायापाछा' उपन्यास अति के परिणामों की विवछत्तिा है। सम्बंधों में संतुलन का बना रहना ही श्रेयस्कर है। सीमाओं का अतिक्रमण करने पर हाथ आती है छशून्यता। जितना है वह भी नहीं रहता।
माया के बंछान मछ्गुर बने रहे। यही सहजानंद है। हम जिसके कल्याण के लिए तत्पर हैं वह भी अकल्याणकारी न हो। सामंजस्य सर्वोपरि।
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