ग्रन्थ-परिचय
वित्तार्जन,वित्त संचय तथा वित्त वृद्धि के विविध विधानके अन्यास, अलौकिक शोध सिद्धान्तों से आलोकित ग्रहयोगों तथा उपयुक्त उदाहरणों से अलंकृत, आचार्यानुमोदित शास्त्र संदर्भित ग्रन्थ 'वित्त विचार' समस्त प्रबुद्ध पाठकों, ज्योतिष प्रेमियों के अभिज्ञान के विस्तार तथा हितार्थ कंचन सदृश है।'वित्त विचार की सम्रग सारगर्भित संपुष्ट तथा सर्वभाँति समृद्ध साम्रगी को अग्रांकित चार अध्यायों में संयोजित संकलित किया गया है--सिन्धुसुता, सुधाकर सहोदरा: लक्ष्मी विपुल वित्तार्जन एवं विंशोत्तरी दशा दिग्दर्शन।
विपुल वित्तार्जन एवं विंशोत्तरी दशा दिग्दर्शन शीर्षांकित अध्याय इस कृति का वैशिष्ट्य है जिसमें विंशोत्तरी दशा के दुर्लभ रहस्यों और सूक्ष्म तिा सत्य भविष्य कथन के बहुपरीक्षित, प्रतिष्ठित,प्रशंसित, प्रसिद्ध परमोपयोगी सिद्धान्तों का विवेचन किया गया है। अन्य अध्यायों में वित्त सम्बन्धी ग्रहयोगों के अतिरिक्त भाग्य वृद्धि और वित्तार्जन के आधारभूत सत्य को जिज्ञासु पाठकों के समक्ष देश के विख्यात, ज्योतिष शास्त्र के मर्मज्ञ तथा सत्तर से भी अधिक वृहद् शोध प्रबन्धों के रचनाकार श्रीमती मृदुला त्रिवेदी एवं श्री टीपी त्रिवेदी ने सर्वजन हितार्थ प्रस्तुत किया है।
'वित्त विचार' वित्तार्जन वित्तोद्गम वित्त वृद्धि वित्त संचय, विपुल वित्त विस्तार के विविध विधानों से संपुष्ट सर्वाधिक प्रामाणिक शोध प्रबन्ध है, जो वित्त सम्बन्धी समस्त संत्रास को महकते मधुमास में रूपांतरित कर देने वाला सुधा कलश है एवं समस्त ज्योतिष प्रेमियों के लिए पठनीय, अनुकरणीय एवं संग्रहणीय है।
संक्षिप्त परिचय
श्रीमती मृदुला त्रिवेदी देश की प्रथम पक्ति के ज्योतिषशास्त्र के अध्येताओं एवं शोधकर्ताओ में प्रशंसित एवं चर्चित हैं। उन्होंने ज्योतिष ज्ञान के असीम सागर के जटिल गर्भ में प्रतिष्ठित अनेक अनमोल रत्न अन्वेषित कर, उन्हें वर्तमान मानवीय संदर्भो के अनुरूप संस्कारित तथा विभिन्न धरातलों पर उन्हें परीक्षित और प्रमाणित करने के पश्चात जिज्ञासु छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करने का सशक्त प्रयास तथा परिश्रम किया है, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने देशव्यापी विभिन्न प्रतिष्ठित एवं प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओ मे प्रकाशित शोधपरक लेखो के अतिरिक्त से भी अधिक वृहद शोध प्रबन्धों की सरचना की, जिन्हें अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि, प्रशंसा, अभिशंसा कीर्ति और यश उपलव्य हुआ है जिनके अन्यान्य परिवर्द्धित सस्करण, उनकी लोकप्रियता और विषयवस्तु की सारगर्भिता का प्रमाण हैं।
ज्योतिर्विद श्रीमती मृदुला त्रिवेदी देश के अनेक संस्थानो द्वारा प्रशंसित और सम्मानित हुई हैं जिन्हें 'वर्ल्ड डेवलपमेन्ट पार्लियामेन्ट' द्वारा 'डाक्टर ऑफ एस्ट्रोलॉजी' तथा प्लेनेट्स एण्ड फोरकास्ट द्वारा देश के सर्वश्रेष्ठ ज्योतिर्विद' तथा 'सर्वश्रेष्ठ लेखक' का पुरस्कार एवं 'ज्योतिष महर्षि' की उपाधि आदि प्राप्त हुए हैं । 'अध्यात्म एवं ज्योतिष शोध सस्थान, लखनऊ' तथा 'द टाइम्स ऑफ एस्ट्रोलॉजी, दिल्ली' द्वारा उन्हे विविध अवसरो पर ज्योतिष पाराशर, ज्योतिष वेदव्यास ज्योतिष वराहमिहिर, ज्योतिष मार्तण्ड, ज्योतिष भूषण, भाग्य विद्ममणि ज्योतिर्विद्यावारिधि ज्योतिष बृहस्पति, ज्योतिष भानु एवं ज्योतिष ब्रह्मर्षि ऐसी अन्यान्य अप्रतिम मानक उपाधियों से अलकृत किया गया है ।
श्रीमती मृदुला त्रिवेदी, लखनऊ विश्वविद्यालय की परास्नातक हैं तथा विगत 40 वर्षों से अनवरत ज्योतिष विज्ञान तथा मंत्रशास्त्र के उत्थान तथा अनुसधान मे सलग्न हैं। भारतवर्ष के साथ-साथ विश्व के विभिन्न देशों के निवासी उनसे समय-समय पर ज्योतिषीय परामर्श प्राप्त करते रहते हैं। श्रीमती मृदुला त्रिवेदी को ज्योतिष विज्ञान की शोध संदर्भित मौन साधिका एवं ज्योतिष ज्ञान के प्रति सरस्वत संकल्प से संयुत्त? समर्पित ज्योतिर्विद के रूप में प्रकाशित किया गया है और वह अनेक पत्र-पत्रिकाओं में सह-संपादिका के रूप मे कार्यरत रही हैं।
श्री.टी.पी त्रिवेदी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से बी एससी. के उपरान्त इजीनियरिंग की शिक्षा ग्रहण की एवं जीवनयापन हेतु उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत परिषद मे सिविल इंजीनियर के पद पर कार्यरत होने के साथ-साथ आध्यात्मिक चेतना की जागृति तथा ज्योतिष और मंत्रशास्त्र के गहन अध्ययन, अनुभव और अनुसंधान को ही अपने जीवन का लक्ष्य माना तथा इस समर्पित साधना के फलस्वरूप विगत 40 वर्षों में उन्होंने 460 से अधिक शोधपरक लेखों और 80 शोध प्रबन्धों की संरचना कर ज्योतिष शास्त्र के अक्षुण्ण कोष को अधिक समृद्ध करने का श्रेय अर्जित किया है और देश-विदेश के जनमानस मे अपने पथीकृत कृतित्व से इस मानवीय विषय के प्रति विश्वास और आस्था का निरन्तर विस्तार और प्रसार किया है।
ज्योतिष विज्ञान की लोकप्रियता सार्वभौमिकता सारगर्भिता और अपार उपयोगिता के विकास के उद्देश्य से हिन्दुस्तान टाईम्स मे दो वर्षो से भी अधिक समय तक प्रति सप्ताह ज्योतिष पर उनकी लेख-सुखला प्रकाशित होती रही । उनकी यशोकीर्ति के कुछ उदाहरण हैं-देश के सर्वश्रेष्ठ ज्योतिर्विद और सर्वश्रेष्ठ लेखक का सम्मान एवं पुरस्कार वर्ष 2007, प्लेनेट्स एण्ड फोरकास्ट तथा भाग्यलिपि उडीसा द्वारा 'कान्ति बनर्जी सम्मान' वर्ष 2007, महाकवि गोपालदास नीरज फाउण्डेशन ट्रस्ट, आगरा के डॉ. मनोरमा शर्मा ज्योतिष पुरस्कार' से उन्हे देश के सर्वश्रेष्ठ ज्योतिषी के पुरस्कार-2009 से सम्मानित किया गया। 'द टाइम्स ऑफ एस्ट्रोलॉजी' तथा अध्यात्म एवं ज्योतिष शोध संस्थान द्वारा प्रदत्त ज्योतिष पाराशर, ज्योतिष वेदव्यास, ज्योतिष वाराहमिहिर, ज्योतिष मार्तण्ड, ज्योतिष भूषण, भाग्यविद्यमणि, ज्योतिर्विद्यावारिधि ज्योतिष बृहस्पति, ज्योतिष भानु एवं ज्योतिष ब्रह्मर्षि आदि मानक उपाधियों से समय-समय पर विभूषित होने वाले श्री त्रिवेदी, सम्प्रति अपने अध्ययन, अनुभव एवं अनुसंधानपरक अनुभूतियों को अन्यान्य शोध प्रबन्धों के प्रारूप में समायोजित सन्निहित करके देश-विदेश के प्रबुद्ध पाठकों, ज्योतिष विज्ञान के रूचिकर छात्रो, जिज्ञासुओं और उत्सुक आगन्तुकों के प्रेरक और पथ-प्रदर्शक के रूप मे प्रशंसित और प्रतिष्ठित हैं । विश्व के विभिन्न देशो के निवासी उनसे समय-समय पर ज्योतिषीय परामर्श प्राप्त करते रहते हैं।
पुरोवाक्
पाण्डित्य शोभते नैव न शोभन्ते गुणा नरे ।
शीलत्वं नैव शोभते महालक्ष्मी त्वया बिना ।।
तावद् विराजते रूपं तावच्छीलं विराजते ।
तावद् गुणा नराणां च यावल्लक्ष्मी: प्रसीदति ।।
लक्ष्मी के अभाव में पाण्डित्य गुण तथा शील युक्त व्यक्ति भी प्रभावरहित एवं आभाविहीन हो जाते हैं। लक्ष्मी की कृपा होने पर ही व्यक्तियों में रूप शील और गुण विद्यमान होते हैं। जिनसे लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं, वे समस्त पापों से मुक्त होकर राजा द्वारा एवं समाज में पूजनीय और प्रशंसनीय होते हैं।
'वित्त विचार' की सम्यक् संसिद्धि ही समृद्धि है जिसकी वृद्धि का सुरभित सेतु समय की सत्ता और सौभाग्य के समीकरण का सशक्त सिद्धान्त है । सौभाग्य की सबलता, सम्पन्नता की प्रबलता, सम्पदा की सहजता, सम्मान की गहनता, सम्पत्ति की विशालता तथा वृत्ति के वृत्त के विस्तार के विभिन्न विधान की समृद्धि ही 'वित्त विचार' शीर्षाकित इस कृति में प्रवाहित होने वाला मधुर पंचामृत है।
गत विगत आगत से सर्वभाँति संबद्ध सुख समृद्धि संतोष से संयुक्त समुष्ट, उत्कृष्ट उज्ज्वल प्रकाश की प्रगतिशील रश्मियों से प्रारूपित महकती, मुस्कराती, मन्दाकिनी के मधुर स्वर से प्रतिध्वनित होता हुआ स्वर्णिम जीवन पथ के सुगन्ध युक्त संगीत का सृजन ही समृद्धि की सृष्टि का आधार स्तम्भ है जिसकी पृष्ठभूमि की संरचना पूर्वजन्म के अर्जित, संचित, संयोजित पूर्व पुण्य फल पर प्रतिष्ठित है जिसे वर्तमान जन्म में अर्जित पुण्य प्रताप से परिवर्द्धित, परिमार्जित, परिवर्तित एवं पूर्णत: सुनियोजित किया जा सकना संभव है और यही समृद्धि का आधारभूत सत्य और सिद्धान्त है।
सात्विक संतों के अतिरिक्त संभवत: वित्त, समाज के सभी स्तर के सदस्यों की सबलतम आकांक्षा होती है। गुणवान, दार्शनिक, वैज्ञानिक, शिक्षक, विधिवेत्ता, व्यवसायी, उद्योगपति,चिकित्सक,समाज सुधारक,कृषक, संगीतज्ञ, भविष्यवक्ता, साहित्यकार, कवि, लेखक, पीठाधीश, भागवत् व्यास, प्रवचनकर्ता, सम्पादक, प्रकाशक, अभिनेता, दिग्दर्शक, प्रवर्तक, नेता, महामात्य, सैनिक एवं अधिकारी आदि सभी वित्त की स्वर्णाभामयी रश्मियों की कांति के समक्ष नतमस्तक होते हैं । सभी समृद्धिशाली होने के लिए प्रयासरत रहते हैं । जिन्हें विपुल वित्त उपलब्ध भी हे, वे भी अधिक वित्तार्जन के लिए निरंतर विस्तार, प्रसार और विकास के लिए परिश्रमसाध्य प्रयास करने में किंचित शिथिलता अथवा निर्बलता का अनुभव नहीं करते।
वित्तार्जन हेतु साधना सभी करते हैं, इसलिए लक्ष्मी पूजन भी सभी की प्राथमिकता, आवश्यकता और अनिवार्यता है ।
'वित्त विचार' नामांकित इस कृति में हमने धनार्जन, धनसंचय और समय की सत्ता से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों को तथा संदर्भित ग्रहयोगों और विंशोत्तरी दशांतर्दशा आदि को चार पृथक्-पृथक् अध्यायों में विभाजित एवं व्याख्यायित किया है तथा उससे सम्बन्धित शास्त्रानुमोदित, वेदविहित, पुराणोक्त और ज्योतिष के शास्त्रीय ग्रंथों में सन्निहित सूत्रों को पाठकों, जिज्ञासु छात्रों और अन्यान्य ज्योतिषप्रेमियों के कल्याणार्थ प्रस्तुत किया गया है ।
लक्ष्मी के स्थायी आवास और आगमन हेतु समस्त मानव जाति प्रयत्नशील है तथा लक्ष्मी अर्थात् वित्त की विपुलता हेतु उचित-अनुचित, नीति-अनीति, पाप और पुण्य की अवहेलना, उपेक्षा करने में भी कदापित किंचित संकोच नहीं करते । वित्त का साम्राज्य कितना भी विस्तृत व विकसित क्यों न हो, कदाचित स्थायी नहीं होता । वित्त के साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान करने का मात्र एक ही पथ है और वह है पुण्य का अर्जन । हमें यह स्वीकार करने में किंचित भी संकोच नहीं होता है कि अखण्डित पुण्य की अमृतधारा के सिंचन एवं पापमुक्त पवित्र आचरण के सिंचन से ही वित्त के साम्राज्य को स्थायित्व तो प्राप्त होता ही है, साथ ही साथ उसका निरन्तर विस्तार व विकास होता रहता है । लक्ष्मी के जो उपासक इस रहस्य से परिचित हैं, उनके जीवन में यश, कीर्ति, वैभव, सफलता, लोकप्रियता, धन की विपुलता तथा वित्त की प्रचुरता, सुख एवं विलासिता के विस्तार आदि का अभाव कदापि नहीं उत्पन् होता है । 'सिन्धुसुता, सुधाकर सहोदरा लक्ष्मी' शीर्षाकित प्रथम अध्याय में लक्ष्मी जी के स्वरूप की व्यापक विवेचना प्रस्तुत की गयी है ।
वित्त महिमा की अनभिज्ञता ने हमें अन्यान्य अवसरों पर लहूलुहान किया है । अज्ञानतावश जीवन में वित्त के महत्त्व को हमने कदापि प्रमुखता नहीं दी, परन्तु जब जीवन के अस्तित्व के समक्ष प्रश्नचिह्न लगा, तभी कोहरे का आवरण, हमारे मन-मस्तिष्क और हृदय से हटा और उसी काल आभास हुआ कि वित्तोपार्जन के अभाव में जीवन स्थगित हो जाता है, गति अवरुद्ध हो जाती है तथा समग्र चिन्तन एवं योजनाएँ कदाचित् विरूपित हो उठती हैं । जीवन के प्रारम्भिक काल में, हम बिलकुल अकेले प्रयाग में रहते और इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त, पाँच रुपये दैनिक वेतन पर त्रिवेणी स्ट्रक्चरल लिमिटेड संस्था, नैनी, इलाहाबाद में कार्य करने के लिए विवश थे । प्रातःकाल सात बजे साइकिल से बाइस किलोमीटर जाते और सायंकाल सात बजे के पश्चात् अपने निवास पर लौटते। जनवरी की पहली तारीख को वेतन प्राप्त हुआ। आवश्यक वस्तुओं का क्रय करने के उद्देश्य से हम बाजार गये । वहीं हमारी जेब कट गई। कई व्यक्तियों से ऋण माँगा, परन्तु निराशा ही हाथ लगी । एक सज्जन ने हमारी कठिनाई देखते हुए पचास पैसे, हमारे हाथ पर रख दिये, जैसे हम कोई भिक्षुक हों । उन पचास पैसों से हमने, आलू नमक और मिट्टी का तेल क्रय किया । दिन में एक बार आलू उबाल कर, हम रख लेते थे तथा जब भी सुधा, क्षुब्ध करती, वही आलू और नमक ग्रहण करके सुधा शान्त करने का प्रयास करते । लगभग दस दिन तक हमने आलू-नमक का ही आहार ग्रहण किया । ऋण मिला नहीं । हाँ, बार-बार अपमानित अवश्य होना पड़ा । हमारे आरम्भिक जीवन में अतीव अर्थाभाव के कारण दुर्दमनीय दारुण दुःखों और दीनता, दुर्दशा, दया और दुर्भाग्य की व्यथा की कथा तो विषाद और अवसाद को ही जन्म देगी । अत: इस दुःखद वृत्तान्त को यहीं स्थगित करके इसके द्वारा प्राप्त वित्त के महत्त्व को रेखांकित करने वाले अनुभवों और अनुभूतियों का ही उल्लेख करना उपयुक्त प्रतीत होता है।
वित्त का अभाव एक 'अभिशाप के समान है । समस्त ज्ञान, विज्ञान, अभिज्ञान, प्रतिभा, योग्यता, विद्वत्ता, अनुसन्धान, शिक्षा का प्रसार, विस्तार आदि वित्त के आधीन हैं । इस वसुधा पर, वित्तागमन की अनिवार्यता से सभी परिचित हैं । विपन्न व्यक्ति से लेकर विपुल समृद्धिवान व्यक्ति भी वित्तार्जन के लिए प्रयासरत है । कुछ व्यक्ति सत्यनिष्ठा के साथ, तो कुछ अवांछित मार्ग द्वारा वित्तप्राप्ति के लिए प्रयासरत हैं । हमारे संज्ञान में वित्त विचार जैसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय पर एक भी प्रामाणिक कृति उपलब्ध नहीं है जो वित्त संबंधी समस्त पक्षों पर आधारित हो । एक ऐसी कृति की अनिवार्यता ने, जिसमें जन्मांग में विद्यमान विभिन्न ग्रहयोगों के आधार पर व्यक्तिविशेष के वित्तीय स्तर और स्थिति की परिसीमा का स्पष्ट संकेत सहित सशक्त संज्ञान प्राप्त हो सके तथा वित्तपथ के आरोह, अवरोह, अवनति, उन्नति, स्थिरता अथवा अस्थिरता के सम्यक् आधार का प्रतिपादन हो सके, इसके निमित्त हमने शास्त्रानुकूल, वेदविहित ज्योतिष शास्त्र के ग्रन्यों में गर्भित सूत्रों का सतत सतर्क, सघन, सांगोपांग अध्ययन करके, उसे विशुद्ध प्रामाणिक प्रारूप प्रदान करने के उद्देश्य से 'वित्त विचार' के लेखन का संकल्प किया । विपुल वित्तार्जन संबंधी संज्ञान के साथ वित्तसंचय में निरन्तर वृद्धि भी अनिवार्य है । वित्त के मार्ग में अनेक अवरोध और अवनति के शमन सम्बन्धी परिहार के परिज्ञान के अभाव में, वित्तविहीन संतप्त जीवन को सुनहरे, सुगन्धित, समृद्धिशाली मधुमास में रूपान्तरित कर पाना संभव नहीं था । इसी विचार ने, कालान्तर में हमें विवश किया 'वित्त विचार' की संरचना हेतु जिसमें वित्तार्जन, वित्त संचय की विपुलता के विविध विधान समायोजित व सन्निहित हों ताकि प्रबुद्ध पाठक एवं श्रद्धालु आराधक वित्तकृत ऐश्वर्य की विशिष्ट अनुभूति कर सकें।
विराट सत्य का साक्षात्कार करके, अन्यान्य सिद्धियों को प्राप्त करने के उपरान्त, भारतीय ऋषि-महर्षियों ने, जो विलक्षण लोकोपकारी विद्याएँ, अखिल विश्व को प्रदान की हैं, उनमें से ज्योतिष विज्ञान सर्वोपरि है । नीले अन्तरिक्ष में व्याप्त अपरिमेय ग्रह-नक्षत्र तथा शस्य-श्यामला वसुधा पर, जिजीविषा के विजयध्वज को लेकर, जन्म और निधन कै मध्य भ्रमण करता, प्रकृति की मूर्धन्य रचना मानव, ग्रहों से संदर्भित विज्ञान के अन्तरंग सम्बन्धों पर पड़े रहस्य के इन्द्रधनुषी आवरण को हटाने के लिए, मनुष्य का शाश्वत अन्वेषी हृदय, 'अनादिकाल से उत्सुक और व्याकुल रहा है । जिज्ञासा के कारण उत्पन्न, इस प्रक्रिया में, अन्यान्य ज्योतिषीय सूत्रों, योगों की रचना, दृष्टि अथवा युति के फलस्वरूप स्तम्भित कर देने वाले शोधपरक परिणाम प्राप्त होते रहे, जिनके वैज्ञानिक संस्थापन, संश्लेषण, सम्पादन, विश्लेषण तथा प्रतिपादन से भारतीय ज्योतिष विद्या को सबल आधार और साकार स्वरूप प्राप्त हुआ।
भूमिका
लक्ष्मी के अभाव में पाण्डित्य गुण तथा शील युक्त व्यक्ति भी प्रभावरहित एवं आभाविहीन हो जाते हैं । लक्ष्मी की कृपा होने पर ही व्यक्तियों में रूप, शील और गुण विद्यमान होते हैं । जिनसे लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं, वे समस्त पापों से मुक्त होकर राजा द्वारा एवं समाज में पूजनीय और प्रशंसनीय होते हैं । भगवती लक्ष्मी की अनुकम्पा के प्रसाद से ही सौन्दर्य, शिक्षा तथा कुल की गरिमा संपुष्ट होती है तथा गुणहीन, शीलविहीन व्यक्ति, गुणवान तथा शीलवान समझै जाते हैं । लक्ष्मी के स्नेहाशीष से ही चतुष्टय पुरुषार्थ अर्थात् धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष, उपलब्ध होते हैं । भगवती लक्ष्मी के प्रसादामृत द्वारा पूजा, यज्ञ, तीर्थ, व्रत आदि धार्मिक अनुष्ठान प्रतिपादित होते हैं तथा अभिलाषाओं की समग्रता का सम्पूर्ण स्वरूप साकार होता है । धार्मिक आचरण राव भक्तिभावना का अनुसरण करने वाले भक्तों को, माता भगवती, जीवनपर्यन्त सुख, समृद्धि, सम्पन्नता, सौन्दर्य तथा सदाचरण से संपुष्ट करती हैं और जीवन के अनन्तर मोक्ष गति प्रदान करने हेतु स्नेहाशीष रूपी वरदान से अभिसिंचित करती हैं ।
यह गौरव एवं श्रेय भारतवर्ष को ही प्राप्त है कि ज्योतिष विज्ञान के प्रांजल प्रवाह को वैज्ञानिक धरातल प्रदान करने वाले ऋषि-महर्षियों ने इस पावन धरती पर ही जन्म लिया और सूर्य ऐसे ग्रहों की सिद्धि के तपोबल से प्राप्त दिव्यदृष्टि द्वारा ज्योतिष शास्त्र के सघन संज्ञान से वैज्ञानिक सूत्रों की संरचना की । ज्योतिष शास्त्र के माध्यम से भारत ने ही मानवता के उत्थान हैतु यह अभिनव अभिज्ञान, विश्व के जन-जन तक पहुँचाने का पुण्य कार्य सम्पन्न किया। विचारणीय तथ्य यह है कि भारत की श्रेष्ठता की व्याख्या करना उपयुक्त नहीं प्रतीत होता। भारत की धरती में, स्वयं को श्रेष्ठ अथवा श्रेष्ठतम सिद्ध करने का गुण विद्यमान डी नहीं है वरन् भारत की भूमि ऋषियों, महर्षियों, मुनियों, मनीषियों और सन्तों की पुण्य भूमि हैं । यह पवित्र धरती समर्पित है, लदी हुई नहीं । यह धरती त्राण करने वाली है, शासन करने वाली नहीं। भारतीयता, ज्योतिष विज्ञान के समग्र चिन्तन एवं 'आस्था को परिलक्षित एवं प्रारूपित करती है जिसने देशीय सीमा तथा परिधि से पृथक् होकर, मानव के लिए कल्याणकारी व्यवस्थाएँ एवं जीवन-दर्शन प्रस्तुत किया, जिनमें ज्योतिष विज्ञान प्रमुख है । भारत का सर्ववाद ही इसकी, विश्वजननी होने की संसिद्धि करता है । भारतवर्ष का, भविष्यदर्शन से सम्बन्धित ज्ञान-विज्ञान, समाज के सुख, मानव के कल्याण एवं वैचारिक व्यवस्थाओं के लिए अनिवार्य था।
आवश्यकता की पूर्ति के उपरान्त सुख-साधन की व्यवस्था, व्यक्ति का सामीप्य एवं व्यवहार निरन्तर विस्तृत होता हुआ भययुक्त भ्रम, पराधीनता एवं निर्भरता पर आश्रित होकर अंतत: दुःख के प्रादुर्भाव का प्रतीक बनता जाता है, जिससे मुक्ति प्राप्त करने में, ज्योतिष शास्त्र से सम्बद्ध सिद्धान्त और समाधान सर्वाधिक उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण सिद्ध होते रहे हैं।
स्वतंत्रता एवं सुरक्षा के उद्देश्य से न्याय से सम्बद्ध विधिवेत्ताओं ने जितने विधि-विधान प्रारूपित किये हैं, उनसे आबद्ध होकर भी सुख-शान्ति का मार्ग प्रशस्त क्यों नहीं हो पाता, इसका उत्तर, जन्मांग में संस्थित कूर ग्रहयोगों की संरचना है । ऐसा ही मोहक व्यतिक्रम विज्ञान के क्षेत्र में भी दृष्टिगत होता है और यही तो दुखान्त भ्रम के सुखद होने की करुण कथा है जिसके गर्भ में अन्तर्निविष्ट रहस्य से हम पूर्णत: अनभिज्ञ और अब तक अपरिचित हैं । अतीत को परिवर्तित किया जाना संभव नहीं, परन्तु वर्तमान एवं भविष्य को उदार दृष्टि से विश्लेषित करके उसे भयमुक्त और दोषमुक्त करने का प्रयास अवश्य संभव है । संभवत: इस प्रयास में प्राप्त होने वाली सफलता, सुखद आभास का सूत्रपात करने में समर्थ और सक्षम है । भारत की सुप्त चेतना को जागृत करके सामान्य स्तर पर सम्पादित होने वाली अनेक विसंगतियों, विकृतियों,विरूपताओं, विपदाओं तथा विकारात्मक विचारों के कारण व्याप्त अंधकार का निरस्तीकरण संभव है जिसके लिए बुद्धिजीवियों को अपने पक्ष से प्रयास करने में किंचित् भी संकोच अथवा प्रमाद कदापि नहीं करना चाहिए । इसका विश्वासप्रद आध्यात्मिक ज्ञान, आवश्यकताओं के अनर्गल विस्तार एवं भय की संक्रामक व्याधि को प्रचुर अंश तक सीमित, स्तम्भित अथवा सुनियंत्रित कर सकता है । वस्तुत: यह परिज्ञान एक उपयुक्त दिशा पर प्रशस्त होने की दृष्टि का आधार स्तम्भ है जो व्यक्ति की सांसारिक स्थितियों तथा उसके अन्तःकरण में सशक्त सामंजस्य के सम्यक् सन्तुलित समीकरण की स्थापना को सहज स्वरूप में समुष्ट करता है । ज्योतिष विज्ञान का आधारभूत सत्य, इसी सिद्धान्त पर आश्रित है कि भविष्य के प्रति पूर्णत: आश्वस्त होने पर व्यक्ति निश्चिन्त हो जाता है तथा अनेक संभावित विकृतियों तथा विपदाओं से विचलित नहीं होता । अपने जीवन के अन्धकार के अन्त का ज्ञान हो, तौ आश्रय का आधार प्राप्त होता है, जो मिथ्या तथा भययुक्त भ्रम से मुक्त करता है । हमारी अटल आस्था, इस सत्य पर आश्रित है कि भविष्य-दर्शन का, ज्योतिष के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं है । अत: ज्योतिष शास्त्र का परिज्ञान और प्रामाणिकता ही, सदियों से चली आ रही पराधीनता से हमें मुक्ति प्रदान करने में समर्थ है । इस निमित्त ज्योतिष के सतही अध्ययन के स्थान पर गहन अनुसंधान अपेक्षित है जिसके लिए भारत, सदा की भाँति आज भी समर्पित है । अन्य देशों की भाँति भारत अपनी श्रेष्ठता, महानता अथवा सकारात्मकता की व्याख्या नहीं करता, बल्कि भारत की धरती में सन्निहित ज्ञान को उपजाने का उत्तरोत्तर प्रयास करता है और मानवता के उत्थान हेतु एक अभिनव प्रभात की संरचना करने में संलग्न है। वित्त वृद्धि का आधार पूर्वजों द्वारा अर्जित एवं संचित, अथवा स्वबाहुबल द्वारा अर्जित धन होता है । जन्मांग में यदि लग्नेश निर्बल है, त्रिक भावस्थ है अथवा पापाक्रान्त है परन्तु पंचम एवं नवम भाव प्रबल है, तो जातक, निर्धन परिवार में जन्म लेने के पश्चात् भी स्वबाहुबल द्वारा प्रचुर धनार्जन करके सुख और समृद्धि से परिपूरित होता है । इसके विपरीत यदि लग्नाधिपति और दशमाधिपति शुभ स्थानों में संस्थित हो, भाग्यभाव के साथ-साथ धनभाव और लाभभाव भी सबल और सुव्यवस्थित हो, तो जातक अपार धनार्जन और धनसंचय करके धनवान व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित होता है।
इन ग्रहयोगों के साथ-साथ, पंचम भाव का निरीक्षण भी अनिवार्य है । पंचम भाव, पूर्व पुण्य से सम्बन्धित है । यदि पंचम भाव पापाक्रान्त हो, निर्बल हो अथवा पंचमाधिपति त्रिक भावस्थ हो, अस्त अथवा नीच राशिगत हो या पाप ग्रह संयुक्त हो तथा पंचम भाव पर अशुभ तथा त्रिक भावाधिपति दृष्टिनिक्षेप कर रहा हो, तो जातक पूर्व पुण्य के अभाव में, कदाचित् धनवान बनने के अनेक योगों के उपरान्त भी, समृद्धि के शिखर तक नहीं पहुँच सकता । अत: पूर्व पुण्य का सबल धरातल जब वर्तमान जन्म के उत्तम भाग्य से सुन्दर समन्वय करे तथा धन और लाभ भाव एवं उनके अधिपति तथा लग्नेश, जन्मता में अनुकूल और समृद्धि पथ पर स्थापित होने से संदर्भित ग्रहयोगों, राजयोगों, उत्तम योगों की संरचना कर रहे हों, तभी जातक समृद्धि का कीर्तिमान निर्मित करने में सफलता प्राप्त करता है । वित्त वृद्धि के अध्ययन हेतु सशक्त शोध सिद्धांत समृद्धि, सम्पन्नता, सम्पदा, सम्पत्ति के साथ-साथ वित्त वृद्धि के अन्यान्य शास्त्रानुमोदित, ज्योतिष के शास्त्रीय ग्रन्यों मैं वर्णित, ग्रहयोगों का उल्लेख हमने अपनी नवीनतम कृति योग शृंखला' में किया है, जो वित्त वृद्धि से संबंधित सूत्रों के अध्ययन में प्रबल पथ प्रदर्शक सिद्ध होगी।
लग्न, पंचम एवं नवम भाव परस्पर त्रिकोण भाव हैं । जिस विधान और संज्ञान से इन भावों का अध्ययन अपेक्षित है, उसी विधि के अनन्तर, धन भाव और लाभ भाव का अध्ययन अन्वेषण अपेक्षित है। द्वितीय भाव अर्थात् धन भाव से त्रिकोण भाव क्रमश: षष्ठ एवं दशम भाव होते हैं। उल्लेखनीय है कि किसी भाव विशेष से पंचम अथवा नवम भाव के स्वामियों के मध्य, सदा ही नैसर्गिक मित्रता होती है । अत: द्वितीय, षष्ठ एवं दशम भाव के अधिपति जो परस्पर मित्र होंगे, के मध्य सम्बन्धों की संरचना तथा उनके मध्य निर्मित होने वाले ग्रहयोगों द्वारा भी, वित्त वृद्धि के आधारभूत सत्य की संसिद्धि होती है।
इसी क्रम में लाभ भाव से त्रिकोण भाव, क्रमश: तृतीय और सप्तम होते हैं । अत: एकादश, तृतीय एवं सप्तम भावों के अधिपतियों के मध्य निर्मित होने वाले ग्रहयोगों और सम्बन्धों की सबलता अथवा निर्बलता पर सम्यक् रूप से विचार करना अपेक्षित है । यदि सम्बन्धित भावों स्वामियों के मध्य विनिमय-परिवर्तन तथा दृष्टि अथवा युति सम्बन्ध होता है तो उसी के अनुरूप जातक की आर्थिक प्रगति होती है।
उपरोक्त अध्ययन एक शंका उत्पन्न करता है । हमार उपरोक्त कथन के अनुसार, लग्न पंचम, नवम, द्वितीय, तृतीय, सप्तम, षष्ठ एवं दशम भाव से समृद्धि और 'आर्थिक सम्पत्रता, श्रेष्ठता आदि विचारणीय हैं । पुन: उल्लेखनीय है कि अन्यान्य शास्त्रों मैं, धन और लाभ के अतिरिक्त, नवम भाव पर ही विशेष महत्त्व दिया गया है । पंचम भाव पर भी विचार करने का परामर्श, कतिपय शास्त्रीय ग्रन्यों में विवेचित है परन्तु तृतीय, सप्तम, षष्ठ और दशम मात्र का उल्लेख कदाचित्, धनोपार्जन के संदर्भ में, कहीं नहीं प्राप्त होता है । अनेक धनवान व्यक्तियों के जन्मांगों का अर्थ सम्बन्धी विश्लेषण करते समय हमने अनुभव किया कि क्त-सम्बन्धी व्यवस्था पर, लग्न, द्वितीय और एकादश भाव के आधार पर ही विचार करना उपयुक्त है परन्तु लग्न, द्वितीय तथा एकादश भाव से सन्दर्भित पूर्व पुण्य तथा भाग्यवान होने के महत्त्व की किंचित् भी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए । इसीलिए लग्न से त्रिकोण भाव, पंचम और नवम, लाभ भाव से त्रिकोण भाव, तृतीय एवं सप्तम तथा धन भाव से त्रिकोण भाव षष्ठ एवं दशम पर विचार करने से आर्थिक प्रचुरता, स्थिरता और प्रगति का ज्ञान किया जाना तर्कसंगत है । यहीं एक प्रश्न अथवा शंका पुन: उपयुक्त प्रतीत होती है कि द्वादश भावों में नौ भाव धनार्जन तथा धनसंचय से सम्बन्धित हैं । प्रत्येक जन्मांग में इन नौ भावों में ग्रहों की स्थिति असंदिग्ध है इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के धनवान होने में भी कोई सन्देह नहीं होना चाहिए ।
इस तर्कसंगत प्रबल शंका का समाधान अनिवार्य है जिसका तर्कयुक्त परिज्ञान और समाधान यहाँ प्रस्तुत है ।
लग्न, लाभ भाव और धन भाव का अध्ययन पृथक्-पृथक् रूप में करना चाहिए । लग्न का अध्ययन करते -समय पंचम एवं नवम भाव विचारणीय है । लग्नेश का पंचमेश या नवमेश अथवा दोनों त्रिकोणों से किसी भी प्रकार के सम्बन्ध पर विचार करना चाहिए । इसी प्रकार से धन भाव का अध्ययन करते समय, धन भाव से त्रिकोण भाव, षष्ठ एवं दशम भाव और उनके भावेशों पर विचार करना उपयुक्त है । लाभ भाव का अध्ययन तभी संपुष्ट होता है जब लाभ से त्रिकोण भाव, तृतीय एवं सप्तम भाव पर भी विचार करें । भिन्न-भिन्न भावों को पृथक्-पृथक् त्रिकोण राशियों तथा भावेशों के साथ ही अध्ययन करना चाहिए । यदि इन भावों अथवा भावेशों को उनकी त्रिकोण स्थिति के अनुसार, अध्ययन न करके, उन्हें परस्पर मिश्रित करके अध्ययन करेंगे, तो सदा ही मिथ्या एवं त्रुटिपूर्ण निष्कर्ष प्राप्त होगा । यदि लाभ भाव का स्वामी षष्ठ भाव में संस्थित हो, तो अशुभ फल प्रदान करेगा, परन्तु धन भाव का स्वामी षष्ठ भाव के साथ सम्बन्ध स्थापित करने पर अनुकूल फल उत्पन्न करने वाला होगा । इसी तरह लाभ भाव का स्वामी सप्तम भाव में स्थित हो, या सप्तमेश, लाभ भाव में संस्थित हो, तो शुभ फल देगा, परन्तु धन भाव के साथ यदि सप्तमेश का सम्बन्ध स्थापित हो रहा हो, तो 'अशुभ फल ही प्राप्त होगा । इसी विधान के अनुसार यदि पंचमेश, षष्ठ भावगत हो, या षष्ठेश पंचम अथवा नवम भावगत हो, तो अशुभ होगा, परन्तु पंचमेश यदि लग्न अथवा त्रिकोण में स्थित हो, तो शुभ फल प्रदान करने वाला होगा । इस तरह लग्न, द्वितीय तथा एकादश भाव का सम्यक् अध्ययन, अर्थार्जन और अर्थसंचय अथवा अर्थोद्गम की वास्तविक स्थिति से परिचित कराता है।
लग्न, द्वितीय एवं एकादश भाव के मध्य परस्पर सम्बन्ध भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है । यदि लाभेश और धनेश के मध्य किसी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित हो रहा हो, तो आर्थिक स्थिति में विपुलता और सुदृढ़ता प्रारूपित होती है। यदि लाभेश और लग्नेश अथवा लग्नेश और धनेश के मध्य किसी प्रकार का सम्बन्ध निर्मित हो रहा हो, तो भी अर्थार्जन में वृद्धि होती है । यदि लग्नेश, धनेश तथा लाभेश स्वभावगत हों, तो उनके प्रभाव में अप्रत्याशित वृद्धि होती है । यदि स्वभाव स्वराशि के साथ-साथ, स्वनक्षत्र तथा स्वनवांश अथवा उच्च नवांशगत हों, तो आर्थिक प्रगति में अत्यधिक वृद्धि होती है । यदि लग्नेश, धनेश और लाभेश में परस्पर युति, दृष्टि अथवा राशि परिवर्तन का सम्बन्ध निर्मित हो रहा हो तथा स्वभाव से त्रिकोण भाव अथवा भावेशों के साथ भी सम्बन्ध निर्मित हो रहा हो तो धनाढ्यता में 'अधिक अभिवृद्धि होती है।
ग्रह की व्यवस्था इस तरह आर्थिक प्रगति को व्यवस्थित करती है। उदाहरण के लिए, यदि भाग्येश, लग्न या पंचम भावगत हो अथवा इन भावों के अधिपति परस्पर विनिमय-पग्विर्तन योग निर्मित कर रहे हों अथवा भाग्येश और लग्नेश, भाग्यभवन अथवा लग्न में 'अथवा पंचम में संयुक्त हों, तो अर्थार्जन से सम्बन्धित श्रेष्ठ फल प्रदान करते हैं, परन्तु लाभ भाव और भाग्य भाव के मध्य सम्बन्ध शुभ फल नहीं प्रदान करता है।
प्राय: यह त्रुटि, हम कर बैठते हैं कि जब भी भाग्येश और लाभेश के मध्य सम्बन्धों की संरचना देखते हैं, तो आर्थिक सुदृढ़ता एवं अर्थोपार्जन में स्थिरता तथा प्रचुरता की पुष्टि करते हैं । अनेक जन्मांगों में लाभेश और धनेश के मध्य सम्बन्ध के उपरान्त भी जातक की आर्थिक स्थिति चिन्तनीय दृष्टिगत होती है।
यदि धनेश और भाग्येश के मध्य अनुकूल सम्बन्ध स्थापित हो रहे हों, तो भी आर्थिक संपुष्टि के प्रति संदेह समाप्त नहीं होता, क्योंकि धन भाव से भाग्य भाव, अष्टम होता है और भाग्य भाव से धन भाव षष्ठ होता है।
अनुष्ठमणिका
अध्याय-1
सित्धुसुता, सुधाकर सहोदरा : लक्ष्मी
1
1.1
लक्ष्मी की आराधना का मर्म एक गहन चिन्तन
6
1.2
देवी लक्ष्मी दुर्वासा ऋषि का शाप
11
अध्याय-2
विविध वित्त योग
39
2.1
धनलाभ योग
2.2
धनयोग एवं लग्न की प्रमुखता
71
2.3
सुख समृद्धि एवं धनयोग
77
2.4
लक्ष्मी योग
101
2.5
अतुल धन लाभ
144
2.6
दो तथा तीन लाख धन के स्वामी के योग
160
2.7
पिता, पुत्र, पत्नी अथवा आता द्वारा धनप्राप्ति से संदर्भित ग्रहयोग
200
2.8
अत्यन्त महत्वपूर्ण अन्यान्य धन ग्रह-योग
209
2.9
कारक योग
213
सहसा धन वृष्टि योग
226
2.11
विपुल धन एवं असीमित समृद्धि से सम्बद्ध ग्रहयोग
227
2.12
सट्टे आदि द्वारा अपार धनार्जन का योग
231
2.13
सट्टे आदि द्वारा धनहानि के योग
2.14
सट्टे आदि से अपार धनार्जन के योग
233
2.15
सट्टे द्वारा धन हानि
2.16
धनलाभ के योग
235
2.17
लाटरी द्वारा धनप्राप्ति
238
अध्याय-3
संपन्नता, समृद्धि, भाग्य एवं वित्त वृद्धि
241
3.1
अथाह अर्थागमन सुख समृद्धि संदर्भित शोध साधना
244
3.2
लग्नस्थ, लग्नाधिपति एवं आर्थिक प्रगति
248
3.3
शोध सूत्र
252
3.4
मेष लग्न एवं धन योग
253
3.5
मेष लग्न एवं राजयोग
255
3.6
वृषभ लग्न एवं धन योग
262
3.7
वृषभ लग्न एवं राजयोग
263
3.8
मिथुन लग्न एवं धनयोग
274
3.9
मिथुन लग्न एवं राजयोग
276
कर्क लग्न एवं धन योग
302
3.11
कर्क लग्न एवं राजयोग
304
3.12
सिंह लग्न एवं धनयोग
318
3.13
सिंह लग्न एवं राजयोग
321
कन्या लग्न एवं धनयोग
330
3.14
कन्या लग्न एवं राजयोग
332
3.15
तुला लग्न एवं धनयोग
344
3.16
तुला लग्न एवं राजयोग
345
3.17
वृश्चिक लग्न एवं धनयोग
362
3.18
वृश्चिक लग्न एवं राजयोग
364
3.19
धनु लग्न एवं धनयोग
379
धनु लग्न एवं राजयोग
381
3.21
मकर लग्न एवं धनयोग
389
3.22
मकर लग्न एवं राजयोग
392
3.23
कुंभ लग्न एवं धनयोग
403
3.24
कुंभ लग्न एवं राजयोग
405
3.25
मीन लग्न एवं धनयोग
419
3.26
मीन लग्न एवं राजयोग
421
अध्याय- 4
विपुल वित्तार्जन एवं विंशोत्तरी दशा दिग्दर्शन
427
4.1
दशातत्त्वम्
431
4.2
दशाफल विचार के सिद्धान्त
432
4.3
विंशोत्तरी दशा
436
4.4
लाभ भाव (एकादश भाव) से संबंधित महत्त्वपूर्ण योग
443
4.5
भाग्य भाव (नवम भाव) से संबंधित महत्त्वपूर्ण योग
447
4.6
धन भाव (द्वितीय भाव) से संबंधित महत्त्वपूर्ण योग
451
4.7
पूर्व पुण्य भाव (पंचम भाव)
455
4.8
व्यय भाव (द्वादश भाव) से संबंधित महत्वपूर्ण योग
458
4.9
कतिपय महत्वपूर्ण योग काल गणना
463
विंशोत्तरी महादशा से संबंधित कतिपय महत्वपूर्ण सूत्र
469
4.11
विंशोत्तरी दशा का महत्व
476
4.12
विंशोत्तरी दशा फल कथन हेतु अष्टसूत्र
477
4.13
महादशा एवं अंतर्दशा के विचार हेतु कतिपय शास्त्रीय सिद्धान्त
4.14
वक्री-मार्गी ग्रह की दशा का फल
480
4.15
नीच तथा शत्रु-क्षेत्री ग्रह की दशा का फल
4.16
स्थानेश का फल
481
4.17
अन्तर्दशा-फल-प्रतिपादन के नियम
482
4.18
दशवर्ग कतिपय ज्ञातव्य तथ्य
483
4.19
भाग्यहीन योग
485
भाग्योदय का समय संज्ञान
486
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