जीवन का उत्खनन आवश्यक है कि आत्मा पर चड़ी धूल-मिट्टी छिटकाकर देखना मानवीय कर्त्तव्य । यदि कोई जाति अथवा वर्ग दुराग्रह पाल ले तो समाज का दबा-छिटका वह अंग नहीं दिखता और न दिखाने का भी प्रयास रहता है। उत्खनन वहाँ भी घटित है। हटात् मृतप्राय जनजीवन निज संचित शक्तियों के बल विरोध-बाधाओं को चीरता बाहर निकल जाता है। हवा-पानी, धरती-सूरज, फरबी-पेड़ों पर उसका भी अधिकार बंधुत्व है।
'सर्पों का चंदन-वन' लेखिका का दूसरा उपन्यास है। यहाँ प्रगति-उन्नति के द्वारा इतिहास में झाँकने का प्रयास है। अतीत का आदर अतीत-जीवी बनना नहीं, नींव-निर्माण में होम होने वाले उत्पादनों की पूछ-परख है। समाज अपना भी आंकलन करता नहीं।
चंदन-वन में सर्पों की उपस्थिति को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, किंतु सत्य तो उसका चंदनत्व ही है। यही शुभ है।
पल-प्रतिपल की यात्रा इतिहास को स्वयं में उतारना है। स्वतः अतीत वन जाना है वर्तमान के अतीत बनने की सतत प्रक्रिया ।
अतीत का निर्माण तटस्थ, निरपेक्ष, अवशिष्ट तथा अतिरिक्त का सम्मिलन नहीं कि कंधों से बोझ उतारने का बोध हो। वह जीवंत एवं स्पंदनशील मानवीय श्वास-प्रश्वासों की श्रृंखला ठहरी कि अवसरानुकूल वे एक दूसरे के आमने-सामने आ खड़े हो। इसलिए वह साक्ष्य-रूप अस्तित्व रखता है।
अतीत-उत्खनन वर्तमानजीवी मानव जाति के लिए बाध्यता भले न हो और तनिक शीश उठा चलती आधुनिक पीढ़ी का अतिआत्मविश्वास उसे मान लेने का साधन जुटा रही कि मुड़कर अथवा ठहरकर देखने की आवश्यकता भी क्यों हो? फिर भी समय-संदर्भ पैरों के अश्व की लगामें हठात् खींचता है। ललाट की त्यौरियों और विस्तारित आँखों के समक्ष विकास के हाथों अवशिष्ट तथा उपेक्षित पल-मालिकाएँ चट्टान बन आ खड़ी होती हैं।
अतीत को दुर्बल न माना जाए। यह क्या अधिकार का आवेग नहीं कि वे सामूहिक-समग्र बल लगा काल-धरा का सीना चीर बाहर निकल आए? तब मान लेना चाहिए कि कहीं कुछ अलीक असंतुलित घटित हो रहा। विकास-धुरी किंचित् स्खलित है। घटित काल अथवा बीता जीवन उदाहरण-रूप एवं साक्ष्य-रूप आए तो यह वरदान भी है और शिक्षा भी। भविष्य निर्धारण का यह एक सुयोग मान लिया जाए।
जीवन का उत्खनन आवश्यक है कि आत्मा पर चढ़ी धूल-मिट्टी छिटकाकर देखना मानवीय कर्त्तव्य। यदि कोई जाति अथवा वर्ग दुराग्रह पाल ले तो समाज का दबा-छिटका वह अंग नहीं दिखता और न दिखाने का भी प्रयास रहता है। उत्खनन वहाँ भी घटित है। हठात् मृतप्राय जनजीवन निज संचित शक्तियों के बल विरोध-बाधाओं को चीरता बाहर निकल आता है। हवा-पानी, धरती-सूरज, पाखी-पेड़ों पर उसका भी अधिकार और बंधुत्व ।
वर्तमान यदि संतुलित रूप से न विकसित हो तो अतीत के गर्त में दबा-कुचला वह अंश एक दिन प्रकट होता है। विकास के पथ पर वे निज उपस्थिति अंकित कराते हैं। अतीत क्या है? वर्तमान का एक विगत अंश है।
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