पुस्तक परिचय
१९वीं सदी के प्रारम्भ से २०वीं के पूर्वार्द्ध तक लिखित प्रकाशित, शास्त्र प्रयोग इतिहास की दृष्टि से अतिमहत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का पुन प्रकाशन संगीत पुनर्नवा श्रृंखला के अन्तर्गत सङ्कल्पित है, जिस की पहली कड़ी है संगीत कलाधर, जिसे मूल गुजराती से हिन्दी में अनूदित रूप में प्रस्तुत क्मिा गया है।
भावनगर (गुजरात) के विचक्षण राजगायक विद्वान् द्यह्यालालशिराम के द्वारा सन् १८८५ से १९०० में लिखा गया, १९०१ में प्रकाशित यह ग्रन्थराज (लेखक के अनुसार) उन पाठकों एवं सङ्गीत कलाधर्मियों (गायक, वादक, नर्तक, विवेचक, संशोधक सारग्राही, सहृदय रसिक आदि) के लिए बना था, जो प्राचीन शैली का अनुसरण करते हुए नवीन चिन्तन व प्रक्रिया को भी समझना चाहते हैं। अत इस में परम्परागत सङ्गीतशास्त्र के प्रमुख विषयों को आधुनिक विचारसरणी के योगसहित प्रस्तुत क्तने का सक्षम यत्न हुआ है, जैसे कि ।
१. ध्वनि की उत्पत्ति, प्रवहण, ग्रहण, तरक्, तारता तीव्रता गुण आदि का वैज्ञानिक स्पष्टीकरणू २ पाश्चात्य संङ्गीत के स्टाफ नोटेशन का सुबोध परिचय एवं भारतीय सङ्गीतलिपि का विन्यास ३ मानव शरीर के ध्वनि उत्पादक यन्त्र कण्ठ एवं श्रवणेन्द्रिय का वैज्ञानिक निरूपण एवं पाश्चात्य वर्गीकरण ४ भारत के प्रमुख वाग्गेयकारों तथा पाक्षात्य सङ्गीतकारों के उल्लेख, ५ प्रागैतिहासिक युग में सच्चीत की उच्च विकसित अवस्था ६ वाक् के चारों स्तरो का संक्षिप्त परिचय, ७ संगीत योग ८ सङ्गीत के अत्र, १ गीत वाद्य नृत्य का सम्बन्ध, १० शास्त्रीय सङ्गीत के विकास, प्रचार व प्रतिष्ठा में नाक्य का मौलिक योगदान ११ भारतीय, मुस्लिम तथा पाश्राच सङ्गीत पद्धतियों में समन्वय १२ प्राचीन गीतों के अभ्यास का महत्व इत्यादि ।
ग्रन्थ के नाम सङ्गीत कलाधर (चन्द्रमा) के अनुसार यहाँ सोलह कलाओं (प्रक्तणों) में विषयवस्तु का प्रतिपादन है, जो सम्पादिका के भूमिकात्मक लेख ग्रन्थपरिचय में विशद रूप से वर्णित है । धातु एवं मातु के अद्भुत संग्राहक इस ग्रन्थ का अप्रतिम महत्त्व विशेष रूप से त्रिविध है
क साहित्य की दृष्टि से प्राचीन बन्दिशों की भाषा, छन्दोरचना तथा उनका प्रतिपाद्य पक्ष ।
ख संगीत की दृष्टि से १ स्वरपक्ष में सगों के स्वरूप, नोटेशन सहित प्राचीन बन्दिशों, रागमालाओं का विशाल संग्रह, गीतगोविन्द की १५ अष्टपदियों के गेय रूप, प्राचीन (अब प्राय अप्रचलित) तालों में निबद्ध बन्दिशें, सारके, ताऊस तथा दिलरूबा की प्राचीन गतें, लहरे ।
२. तालपक्ष में १४३ तालों का सर्वाच्च सचित्र (गति के अनुसार विविध चक्राकृतियों में दृश्य बनाते हुए) निरूपण, मँजीरा के कुछ तालों के बोल । ३ नृत्यपक्ष में ताण्डव, लास्य, त्रिभङ्गी, नृत्य नृत नाटय के स्वरूप व सम्बन्ध प्र नृत्याक् परमलु के बोल विविध भावों की गतें, कथक शैली की १६ प्रकार की विशेष गतें, इत्यादि सब लक्षण उदाहरण सहित । ४ वैज्ञानिक विवेचन में नाद की नियमितता, तीव्रता, तारता, गुण, आन्दोत्मसंख्या, विस्तार उत्पाद के माध्यम ध्वनितरङ्ग, Tempered, natural, chromatic scales, देशी स्केल सब में तार की लम्बाई के गुणोत्तर प्रमाणादि दिखाते हुए कोष्ठक ।
ग सभी प्रकार की ऐतिहासिक दृष्टि से, जिसमें प्रेस की क्षमता और विनियोग का इतिहास भी महत्त्वपूर्ण है ।
कुछ मिला कर इस अद्भुत ग्रन्थराज का यह हिन्दी रूप सभी गुणग्राही पाठकों एवं शोधकर्त्ताओं के लिए अतिशय उपादेय है।
लेखक परिचय
मूल ग्रन्थकार (भावनगर के विचक्षण राजगायक विद्वान श्री डाह्यालाल का जन्म सन् १८६१ में हुआ । इनके पिता कुशल वाग्गेयकार श्री शिवराम सतत तीन पीढ़ी से भावनगर नरेशों के स्नेह सम्मान पात्र आनुवंशिक राजगायक रूप में शुद्ध संगीतसेवा करते आ रहे थे । सर्वप्रथम (प्राय १८० वर्ष पूर्व) संगीत प्रेमी महाराज श्रीबखतसिह के समय भावनगर आ कर राजगायक के रूप में प्रतिष्ठित हुए श्री बहेचरदास के पुत्र श्रीमनसुखराम द्वितीय राजगायक (महाराज विजयसिंह के समय) बने । वे संस्क, हिन्दी, व्रजभाषा, उर्दू, गुजाराती काव्यों सङ्गीतमय काव्यगीतों के रचयिता भी थे । उनके दो पुत्र शिवराम एवं सूरजराम हुए, दोनों ही श्रेष्ठ गुणी गायक थे । महाराज जसवन्त सिंह के समय शिवराम राजगायक हुए, इन्होंने भी पिता का अनुगमन करते हुए अनेक संस्कृत हिन्दी, व्रजभाषा, उर्दू, गुजराती काव्यों, गेय गीतों एव १० आख्यानों की रचना की । इन तीनों पीढ़ियों से प्राप्त सङ्गीत साहित्य नाट्य कला की सम्पदा से भरे हुए डाह्यालाल ने एकनिष्ठा, गहरी रुचि, समझ और मनोयोग से सङ्गीत सेवा की, समकालीन शिक्षा ली, अनेकों नाटय प्रयोग भी किए। आरम्भिक युवावस्था तक यह क्रम चला पिता के स्वधाम पधारने से महाराज तखत सिंह के समय ही राजगायक हुए । परम्पसगत तथा स्वाध्याय से प्राप्त विद्या का संक्षिप्त एवं प्रयोग का विस्तृत संकलन करते हुए, इतिहास और वर्त्तमान का समन्वय साधते हुए अपने चिन्तन को लिखित रूप भी देते रहे । शैशव से ही इन का सह पाए हुए युवराज (फिर महाराज) भावसिंह की प्रेरणा से श्री डाह्यालाल ने १५ वर्ष के अथकतपस्यामय परिश्रम से प्रस्तुत महाग्रन्थ लिखा, जिसमें चारों पीढियों की विद्या, कला, समझ, सूझ तथा चिन्तन मनन साधना का निचोड़ सङ्कलित है । उस अतिपरिश्रम के कारण तथा प्रेरक स्नेही मित्र महाराज भावसिहजी के अकाल बिछोह से व्यथित धह्या लाल संवत् ११८१ (ई ११२४) में इहत्येक से चले गए ।
(ग्रन्थकार का विशेष परिचय प्रो रविशंकर जोशी द्वारा ११३१ में लिखित (प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रारम्भ में दिए हुए) द्वितीय आवृत्ति के निवेदन मे द्रष्टव्य है।)
अनुक्रमणिका
अञ्जलि
V
श्री सङ्गीत कलाधर ग्रन्थ परिचय
VI
सङ्गीत कलाधर के संक्षिप्त हिन्दी भावानुवाद की भूमिका
XXI
प्रथम आवृत्ति की प्रस्तावना (मूल गुजराती कथ के प्रथम संस्करण से)
XXXII
द्वितीय आवृत्ति का निवेदन
XXXV
श्री सङ्गीत कलाधर (मूल ग्रन्थ)
1
प्रथम कला इंग्लिश म्यूजिक सार वर्णन
प्रकरण 1
2
प्रकरण 2
7
ध्वनि तरंग तारता और तीव्रता
सांगीतिक ध्वनि की उत्पत्ति और उसके प्रकार
8
सांगीतिक ध्वनि की उत्पत्ति
9
11
द्वितीय कला इंग्लिश म्यूज़िक
17
प्रकरण 7
प्रकरण 8
20
प्रकरण 9
23
तृतीय कला आर्य संगीत
26
प्रकरण 10
प्रकरण 11
27
चतुर्थी कलास्वरोत्पत्ति वर्णन
32
प्रकरण 12
प्रकरण 13
36
पञ्चमी कला स्वर भेद वर्णन
40
प्रकरण 14
प्रकरण 15
42
प्रकरण 16
84
पष्ठी कला सविस्तार रागोत्पत्ति वर्णन
88
प्रकरण 17
प्रकरण 18
91
प्रकरण 19
92
प्रकरण 20
14
प्रकरण 21
96
प्रकरण 22
98
प्रकरण 23
99
सप्तमी कला श्रीराग मतान्तर भेद वर्णन
103
प्रकरण 24
प्रकरण 25
प्रकरण 26
104
प्रकरण 27
105
प्रकरण 28
107
अष्टमी कला श्री तालोत्पत्ति वर्णन
110
प्रकरण 29
प्रकरण 30
122
प्रकरण 31
नवमी कला श्री ताल निरूपण वर्णन
125
प्रकरण 32
For privacy concerns, please view our Privacy Policy
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist