वह आकर बोला, 'अपने संदूक की चाभी दे।' गला बड़ा मोटा था- भारी।
अचानक, सुनते ही ख़्याल होता था, मानो कोशिश करके वह ऐसा भारी गले से बोल रहा था। शुभदा कुछ नहीं बोली।
उसने फिर वैसे ही स्वर में, लाठी को फिर एक बार ज़मीन पर पटककर कहा, 'चाभी दे, नहीं तो गला दबाकर मार डालूँगा।'
अब शुभदा उठ बैठी । तकिए के नीचे से चाभियों का गुच्छा निकालकर पास ही फेंककर धीरे-धीरे शांत भाव से बोली, 'मेरे बड़े सन्दूक के दाहिनी ओर के खाने में पचास रुपए का नोट है- वही लेना। बाईं ओर विश्वनाथ बाबा का प्रसाद है, उसपर कहीं हाथ न डालना।' जिस तरह शांत भाव से उसने यह सब कह डाला, उससे यह नहीं मालूम होता था कि उसे अब रत्तीभर भी डर लग रहा है।
शुभदा एक ऐसी नारी की मार्मिक कथा है, जो गरीबी की यातनाएँ भोगते हुए अपने नशेड़ी पति के प्रति समर्पिता ही नहीं, बल्कि स्वाभिमानिनी भी है- शुभदा और उसकी विधवा बेटी के माध्यम से शरत् बाबू ने नारी वेदना की गहन अभिव्यक्ति की है। संभवतया इसी कारण उन्हें 'नारी वेदना का पुरोहित' कहा जाता है।
शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय का जन्म 15 सितम्बर, 1876 हुगली जिले के देवानन्दपुर में हुआ। वे बांग्ला के सबसे लोकप्रिय उपन्यासकार थे। उनकी अधिकांश कृतियों में गाँव के लोगों की जीवनशैली, उनके संघर्ष एवं उनके द्वारा झेले गए संकटों का वर्णन है। इसके अलावा उनकी रचनाओं में तत्कालीन बंगाल के सामाजिक जीवन की झलक मिलती है। शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय की कई रचनाओं का कई भारतीय भाषाओं में पचास से अधिक फिल्मों में रूपान्तरण हुआ है। विशेष रूप से, उनके उपन्यास देवदास को सोलह संस्करणों में बनाया गया है तथा परिणीता को बंगाली, हिंदी और तेलुगू में दो बार बनाया गया है।
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