पुस्तक परिचय
यह उपनिषद अध्यात्म का सीधा साक्षात्कार है। सिद्धांत इसमें नहीं हैं, इसमें सिद्धों का अनुभव है। इसमें उस सब की कोई बातचीत नहीं है जो कुतूहल से पैदा होती है, जिज्ञासा से पैदा होती है। नहीं, इसमें तो उनकी तरफ इशारे हैं जो मुमुक्षा से भरे हैं, और उनके इशारे हैं जिन्होंने पा लिया है। ओशो
पुस्तक के कुछ विषय बिंदु
शिक्षक होने में मजा क्या है
कहां खोजें परमात्मा को
वासना का अर्थ क्या है
धर्म दर्शन विज्ञान इतिहास साहित्य संस्कृति कला आदि का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है, जो ओशो से अछूता बचा हो। विद्या व्यसनी रहे, उनका विशाल पुस्तकालय इसका प्रमाण है।
वेद उपनिषद पुराण महाभारत गीता बाइबिल धम्मपद ग्रंथसाहिब आदि सब कुछ उन्होंने आत्मसात कर लिया है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने धर्म ग्रंथों में लिखे शब्द को यथावत स्वीकार नहीं किया। उस शब्द की भावना को अपने मौलिक चिंतन की कसौटी पर कसा और उसके गूढ़ अर्थ को प्रकट किया। उनकी दृष्टि एक वैज्ञानिक की दृष्टि है।
उपनिषद की व्यवस्था, प्रक्रिया विधि यही है नेति नेति। जो भी दिखाई पड़ जाए, कहो कि यह भी नहीं। अनुभव में आ जाए कहो कि यह भी नहीं ।और हटते जाओ पीछे, हटते जाओ हटते जाओ पीछे। उस समय तक हटते जाओ, जब तक कि कोई भी चीज इनकार करने को बाकी रहे।
एक ऐसी घड़ी आती है, सब दृश्य खो जाती हैं। एक ऐसी घड़ी आती है सब अनुभव गिर जाते हैं सब ध्यान रखना सब। कामवासना का अनुभव तो गिरता ही है। ध्यान का अनुभव गिर जाता है। संसार के राग द्वेषू के अनुभव तो गिर ही जाते हैं आनन्द, समाधि इनके भी अनुभव गिर जाते हैं। बच रहता है खालिस देखने वाला। कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, शून्य हो जाता है चारों तरफ। रह जाता है केवल देखने वाला और चारों तरफ रह जाता है खाली आकाश बीच में खड़ा रह जाता है द्रष्टा, उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि उसने सब इनकार कर दिया। जो भी दिखाई पड़ता था,हटा दिया मार्ग से। अब उसे कुछ भी अनुभव नहीं होता। हटा दिए सब अनुभव। अब बच रहा अकेला, जिसको अनुभव होता था।
जब कोई भी अनुभव नहीं होता, और कोई दर्शन नहीं होता, और कोई दिखाई नहीं पड़ता, और कोई विषय नहीं रह जाता, जब साक्षी अकेला रह जाता है, तब कठिनाई है भाषा में कहने की कि क्या होता है। क्योंकि हमारे पास अनुभव के सिवाय कोई शब्द नहीं हैं। इसलिए इसे हम कहते हैं आत्म अनुभव, लेकिन अनुभव शब्द ठीक नहीं है। हम कहते हैं चेतना का अनुभव या ब्रह्म अनुभव।लेकिन यह शब्द, कोई भी शब्द ठीक नहीं है क्योंकि अनुभव उसी दुनिया का शब्द है, जिसको हमने तोड़ डाला। अनुभव उस द्वैत की दुनिया में अर्थ रखता है जहां दूसरा भी था, यहां अब कोई अर्थ नहीं रखता। यहां सिर्फ अनुभोत्ता बचा, साक्षी बचा। इस साक्षी की तलाश ही अध्यात्म है।
भूमिका
उपनिषद गीत है किसी फूल का
कुछ ऐसे लोग भी हैं कि जिन्होंने नहीं पाया, लेकिन फिर भी मार्ग दर्शन देने का मजा नहीं छोड़ पाते । मार्ग दर्शन में बड़ा मजा है । सारी दुनिया में अगर सबसे ज्यादा कोई चीज दी जाती है, तो वह मार्ग दर्शन है! और सबसे कम अगर कोई चीज ली जाती है, तो वह भी मार्ग दर्शन है! सभी देते है, लेता कोई भी नहीं है! जब भी आपको मौका मिल जाए किसी को सलाह देने का, तो आप चूकते नहीं। जरूरी नहीं है कि आप सलाह देने योग्य हों । जरूरी नहीं है कि आपको कुछ भी पता हो, जो आप कह रहे हैं । लेकिन जब कोई दूसरे को सलाह देनी हो, तो शिक्षक होने का मजा छोड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है ।
शिक्षक होने में मजा क्या है? आप तत्काल ऊपर हो जाते है मुफ्त में और दूसरा नीचे हो जाता है । अगर कोई आपसे दान मांगने आए तो दो पैसे देने में कितना कष्ट होता है! क्योंकि कुछ देना पड़ता है जो आपके पास है । लेकिन सलाह देने में जरा भी कष्ट नहीं होता क्योंकि जो आपके पास है ही नहीं, उसको देने में कष्ट क्या! आपका कुछ खो ही नहीं रहा है । बल्कि आपको कुछ मिल रहा है । मजा मिल रहा है । अहंकार मिल रहा है । आप भी सलाह देने की हालत में हैं आज, और दूसरा लेने की हालत में है । आप ऊपर हैं, दूसरा नीचे है ।
इसलिए कहता हूं कि इस उपनिषद में कोई सलाह, कोई मार्ग दर्शन देने का मजा नहीं है, बड़ी पीड़ा है । क्योंकि उपनिषद का ऋषि जो दे रहा है, वह जान कर दे रहा है । वह बांट रहा है कुछ बहुत हार्दिक, बहुत आंतरिक । संक्षिप्त इशारे हैं, लेकिन गहरे हैं । बहुत थोड़ी सी चोटें हैं, लेकिन प्राण घातक हैं । और अगर राजी हों, तो तीर सीधा हृदय में चुभ जाएगा और जान लिए बिना न रहेगा । जान ही ले लेगा ।
इसलिए थोड़ा सावधान! थोड़ा सचेत! क्योंकि यह सौदा ही खतरनाक है । इसमें पागल हुए बिना कोई मार्ग ही नहीं है । इसमें अपने को मिटाए बिना पाने का कोई उपाय ही नहीं है । यहां तो खोने वाले ही बस पाने वाले बनते है । और इसीलिए इस उपनिषद को भी चुन लिया है । ऐसे तो सीधा ही आपसे कह सकता हूं कोई कारण इस उपनिषद को चुनने का नहीं है बहाना! आड़! क्योंकि तीर सीधा मारो, आदमी बच सकता है उपनिषद की आड़ से थोड़ी सुविधा रहेगी । इसलिए चुन लिया है कि आपको ऐसा भी पता नहीं लगेगा कि मैं कोई सीधा ही आपको तीर मार रहा हूं! तो बचने का जरा उपाय कम हो जाता है । सभी शिकारी जानते हैं कि थोड़ी आड़ से शिकार ठीक होता है । यह उपनिषद सिर्फ आड़ है, और इससे कुछ लेना देना ज्यादा नहीं है ।
जो मैंने जाना है वही कहूंगा, लेकिन उसमें और उपनिषद में कोई अंतर नहीं है क्योंकि इस उपनिषद के ऋषि ने जो कहा है वह जान कर ही कहा है ।
यह उपनिषद अध्यात्म के सूक्ष्मतम रहस्यों का उदघाटन है । लेकिन अगर मैं उपनिषद पर ही बात करता रहूं तो डर है कि बात बात ही रह जाए । इसलिए चर्चा तो पृष्ठभूमि होगी, इस चर्चा के साथ साथ प्रयोग! जो कहा है, जो इस ऋषि ने देखा है या जो मैं कहता हूं मैंने देखा है, उस तरफ आपके चेहरे को मोड़ने की कोशिश, उस तरफ आपकी भी आखें उठानी, उस तरफ आपकी भी आखें उठाने का प्रयास वही मुख्य होगा । उपनिषद की बात तो सिर्फ हवा पैदा करने के लिए होगी कि आपके चारों तरफ वे तरंगें पैदा हो जाएं कि आप भूल जाएं बीसवीं सदी को, पहुंच जाएं उस लोक में जहा यह ऋषि रहा होगा । मिट जाए यह जगत जो चारों तरफ बहुत बेरौनक और बहुत कुरूप हो गया है, और याद आ जाए उन दिनों की जब यह ऋषि जिंदा रहा होगा । एक हवा, एक वातावरण, बस उसके लिए उपनिषद । पर उतना काफी नहीं है जरूरी है, काफी नहीं है ।
तो जो मैं कहता हूं अगर आप उसको सुन कर ही रुक जाते हैं, तो मैं मानूंगा आपने सुना भी नहीं क्योंकि सुन कर जो चलता नहीं है, मैं नहीं मान सकता कि उसने सुना है । अगर आप सोचते हैं कि सुन कर आपकी समझ में आ गया इतनी जल्दी मत करना । सुन कर समझ में आता होता तो हम कभी के समझ गए होते । सुन कर ही समझ में आता होता तो इस दुनिया में समझदारों की कमी न होती नासमझ खोजना मुश्किल हो जाता । मगर नासमझ ही नासमझ हैं!
सुन कर कुछ भी समझ में नहीं आता । सुन कर सिर्फ शब्दों पर मुट्ठियां बंध जाती हैं । सुन कर नहीं, करके ही समझ में आता है । इसलिए सुनना करने के लिए समझने के लिए नहीं । सुनना करने के लिए करना समझने के लिए । सुन कर ही सीधा मत सोच लेना कि समझ गए । वह बीच की कड़ी के बिना कोई भी उपाय नहीं है, कोई भी रास्ता नहीं है । लेकिन मन कहता है कि समझ गए अब करने की क्या जरूरत!
मंजिलें चल कर पहुंची जाती हैं । सब भी समझ लिया हो, यात्रा पथ पूरा स्मृति में आ गया हो, पूरा नक्शा जेब में हो, फिर भी बिना चले कोई मंजिल तक कभी पहुंचता नहीं है ।
उपनिषद की हम चर्चा करेंगे उपनिषद समझाने के लिए नहीं, उपनिषद बन जाने के लिए । यहा सुन कर कुछ कंठस्थ हो जाए और आप भी बोलने लगें, तो मैंने आपका नुकसान किया मैं फिर आपका मित्र साबित न स्पा । यहा सुन कर आप, जो सुना है वह बोलने लग जाएं तो कोई मूल्य नहीं है । यहां सुन कर आपको भी वह हो जाए आप भी वह देख लें, वह आँख आपकी भी खुल जाए तों ही ।
ऐसा समझें, एक कवि गीत गाता है किसी फूल के संबंध में । गीत में बड़ा माधुर्य हो सकता है, छंद हो सकता है, लय हो सकती है, संगीत हो सकता है । गीत की अपनी खूबी है ।
लेकिन गीत कितना ही गाए उस फूल को, और कितना ही गुनगुनाए तो भी गीत गीत है, फूल नहीं है । और लाख हो गति, और लाख हो छंद, तो भी गीत गीत है, फूल की सुगंध नहीं है । और आप उसी गीत से तृप्त हो जाएं तो आप भटक गए ।
उपनिषद गीत है किसी फूल का, जिसे आपने देखा नहीं अभी । गीत गजब का है, गाने वाले ने देखा है । पर गीत से तृप्त मत हो जाना, गीत फूल नहीं है ।
ऐसा भी हो जाता है कि कभी कभी आप फूल के पास भी पहुंच जाते हैं कभी कभी । कभी कभी फूल की एक झलक भी मिल जाती है अचानक, आकस्मिक! क्योंकि फूल कोई विजातीय नहीं है, आपका स्वभाव है आपके बिलकुल निकट है, किनारे किनारे है । कभी कभी छू जाता है बिना आपके, बावजूद आपके । कभी कभी फूल एक झलक दे जाता है । कोई बिजली कौंध जाती है । किसी क्षण में, आकस्मिक, अनुभव में आ जाता है कुछ और भी है इस जगत में, यही जगत सब कुछ नहीं है । इस पथरीले जगत के बीच कुछ और भी है, जो पत्थर नहीं फूल है जीवंत, खिला हुआ । जैसे किसी स्वप्न में देखा हो या अंधेरी रात में चमकी हो बिजली और कुछ दिखा हो और फिर खो गया हों ऐसा कभी कभी आपके जीवन में भी हो जाता है । कवियों के जीवन में अक्सर हो जाता है । चित्रकारों के जीवन में अक्सर हो जाता है । फूल की झलक बिलकुल पास आ जाती है ।
फिर भी, फूल कितने ही पास हो और कितनी ही झलक मिल गई हो, पास होना भी दूर होना ही है । और कितने ही पास आ जाए फूल, तो भी फासला तो बना ही रहता है । और मैं बिलकुल हाथ से भी छू लूं फूल को, तो भी पक्का नहीं है कि जो अनुभव मुझे होता है वह फूल का है, क्योंकि हाथ खबर लाने वाला है । और हाथ अगर बीच में गलत खबर दे दे, तो कुछ भरोसा नहीं । और हाथ सही ही खबर देगा, इसको मानने का कोई कारण नहीं । फिर हाथ जो खबर देगा, वह फूल के संबंध में कम और हाथ के संबंध में ज्यादा होगी । फूल का मालूम पड़ता है, जरूरी नहीं कि फूल ठंडा हो । हो सकता है हाथ गरम हो, इसलिए फूल ठंडा मालूम पड़ता है । खबर हाथ के संबंध में है क्योंकि खबर जब भी किसी माध्यम से आती है तो सापेक्ष होती है । पक्का नहीं हुआ जा सकता ।
इस उपनिषद में इशारे होंगे उस अस्तित्व के, जो वस्त्रों के पार है । और इस उपनिषद के साथ साथ हम करेंगे ध्यान, ताकि मिले झलक । और आशा बांधेंगे समाधि की, ताकि हम भी हो जाएं वही, जिसे हुए बिना न कोई संतोष है, न कोई शांति है, न कोई सत्य है ।
अनुक्रम |
||
1 |
जीवन के द्वार की कुंजी |
1 |
2 |
परमात्मा मझधार है |
15 |
3 |
नेति नेति |
29 |
4 |
अमृत का जगत |
49 |
5 |
वासना का नाश ही मोक्ष है |
65 |
6 |
जीवन एक अवसर है |
81 |
7 |
चैतन्य का दर्पण |
101 |
8 |
वैराग्य का फल ज्ञान है |
121 |
9 |
ब्रह्म की छाया संसार है |
141 |
10 |
सत्य की यात्रा के चार चरण |
159 |
11 |
धर्म मेघ समाधि |
181 |
12 |
वैराग्य आनंद का द्वार है |
203 |
13 |
जीवन्मुक्त है संत |
223 |
14 |
आकाश के समान असंग है जीवन्मुक्त |
241 |
15 |
मेरे का सारा जाल कल्पित है |
257 |
16 |
एक और अद्वैत ब्रह्म |
279 |
17 |
धर्म है परम रहस्य |
299 |
पुस्तक परिचय
यह उपनिषद अध्यात्म का सीधा साक्षात्कार है। सिद्धांत इसमें नहीं हैं, इसमें सिद्धों का अनुभव है। इसमें उस सब की कोई बातचीत नहीं है जो कुतूहल से पैदा होती है, जिज्ञासा से पैदा होती है। नहीं, इसमें तो उनकी तरफ इशारे हैं जो मुमुक्षा से भरे हैं, और उनके इशारे हैं जिन्होंने पा लिया है। ओशो
पुस्तक के कुछ विषय बिंदु
शिक्षक होने में मजा क्या है
कहां खोजें परमात्मा को
वासना का अर्थ क्या है
धर्म दर्शन विज्ञान इतिहास साहित्य संस्कृति कला आदि का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है, जो ओशो से अछूता बचा हो। विद्या व्यसनी रहे, उनका विशाल पुस्तकालय इसका प्रमाण है।
वेद उपनिषद पुराण महाभारत गीता बाइबिल धम्मपद ग्रंथसाहिब आदि सब कुछ उन्होंने आत्मसात कर लिया है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने धर्म ग्रंथों में लिखे शब्द को यथावत स्वीकार नहीं किया। उस शब्द की भावना को अपने मौलिक चिंतन की कसौटी पर कसा और उसके गूढ़ अर्थ को प्रकट किया। उनकी दृष्टि एक वैज्ञानिक की दृष्टि है।
उपनिषद की व्यवस्था, प्रक्रिया विधि यही है नेति नेति। जो भी दिखाई पड़ जाए, कहो कि यह भी नहीं। अनुभव में आ जाए कहो कि यह भी नहीं ।और हटते जाओ पीछे, हटते जाओ हटते जाओ पीछे। उस समय तक हटते जाओ, जब तक कि कोई भी चीज इनकार करने को बाकी रहे।
एक ऐसी घड़ी आती है, सब दृश्य खो जाती हैं। एक ऐसी घड़ी आती है सब अनुभव गिर जाते हैं सब ध्यान रखना सब। कामवासना का अनुभव तो गिरता ही है। ध्यान का अनुभव गिर जाता है। संसार के राग द्वेषू के अनुभव तो गिर ही जाते हैं आनन्द, समाधि इनके भी अनुभव गिर जाते हैं। बच रहता है खालिस देखने वाला। कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, शून्य हो जाता है चारों तरफ। रह जाता है केवल देखने वाला और चारों तरफ रह जाता है खाली आकाश बीच में खड़ा रह जाता है द्रष्टा, उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि उसने सब इनकार कर दिया। जो भी दिखाई पड़ता था,हटा दिया मार्ग से। अब उसे कुछ भी अनुभव नहीं होता। हटा दिए सब अनुभव। अब बच रहा अकेला, जिसको अनुभव होता था।
जब कोई भी अनुभव नहीं होता, और कोई दर्शन नहीं होता, और कोई दिखाई नहीं पड़ता, और कोई विषय नहीं रह जाता, जब साक्षी अकेला रह जाता है, तब कठिनाई है भाषा में कहने की कि क्या होता है। क्योंकि हमारे पास अनुभव के सिवाय कोई शब्द नहीं हैं। इसलिए इसे हम कहते हैं आत्म अनुभव, लेकिन अनुभव शब्द ठीक नहीं है। हम कहते हैं चेतना का अनुभव या ब्रह्म अनुभव।लेकिन यह शब्द, कोई भी शब्द ठीक नहीं है क्योंकि अनुभव उसी दुनिया का शब्द है, जिसको हमने तोड़ डाला। अनुभव उस द्वैत की दुनिया में अर्थ रखता है जहां दूसरा भी था, यहां अब कोई अर्थ नहीं रखता। यहां सिर्फ अनुभोत्ता बचा, साक्षी बचा। इस साक्षी की तलाश ही अध्यात्म है।
भूमिका
उपनिषद गीत है किसी फूल का
कुछ ऐसे लोग भी हैं कि जिन्होंने नहीं पाया, लेकिन फिर भी मार्ग दर्शन देने का मजा नहीं छोड़ पाते । मार्ग दर्शन में बड़ा मजा है । सारी दुनिया में अगर सबसे ज्यादा कोई चीज दी जाती है, तो वह मार्ग दर्शन है! और सबसे कम अगर कोई चीज ली जाती है, तो वह भी मार्ग दर्शन है! सभी देते है, लेता कोई भी नहीं है! जब भी आपको मौका मिल जाए किसी को सलाह देने का, तो आप चूकते नहीं। जरूरी नहीं है कि आप सलाह देने योग्य हों । जरूरी नहीं है कि आपको कुछ भी पता हो, जो आप कह रहे हैं । लेकिन जब कोई दूसरे को सलाह देनी हो, तो शिक्षक होने का मजा छोड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है ।
शिक्षक होने में मजा क्या है? आप तत्काल ऊपर हो जाते है मुफ्त में और दूसरा नीचे हो जाता है । अगर कोई आपसे दान मांगने आए तो दो पैसे देने में कितना कष्ट होता है! क्योंकि कुछ देना पड़ता है जो आपके पास है । लेकिन सलाह देने में जरा भी कष्ट नहीं होता क्योंकि जो आपके पास है ही नहीं, उसको देने में कष्ट क्या! आपका कुछ खो ही नहीं रहा है । बल्कि आपको कुछ मिल रहा है । मजा मिल रहा है । अहंकार मिल रहा है । आप भी सलाह देने की हालत में हैं आज, और दूसरा लेने की हालत में है । आप ऊपर हैं, दूसरा नीचे है ।
इसलिए कहता हूं कि इस उपनिषद में कोई सलाह, कोई मार्ग दर्शन देने का मजा नहीं है, बड़ी पीड़ा है । क्योंकि उपनिषद का ऋषि जो दे रहा है, वह जान कर दे रहा है । वह बांट रहा है कुछ बहुत हार्दिक, बहुत आंतरिक । संक्षिप्त इशारे हैं, लेकिन गहरे हैं । बहुत थोड़ी सी चोटें हैं, लेकिन प्राण घातक हैं । और अगर राजी हों, तो तीर सीधा हृदय में चुभ जाएगा और जान लिए बिना न रहेगा । जान ही ले लेगा ।
इसलिए थोड़ा सावधान! थोड़ा सचेत! क्योंकि यह सौदा ही खतरनाक है । इसमें पागल हुए बिना कोई मार्ग ही नहीं है । इसमें अपने को मिटाए बिना पाने का कोई उपाय ही नहीं है । यहां तो खोने वाले ही बस पाने वाले बनते है । और इसीलिए इस उपनिषद को भी चुन लिया है । ऐसे तो सीधा ही आपसे कह सकता हूं कोई कारण इस उपनिषद को चुनने का नहीं है बहाना! आड़! क्योंकि तीर सीधा मारो, आदमी बच सकता है उपनिषद की आड़ से थोड़ी सुविधा रहेगी । इसलिए चुन लिया है कि आपको ऐसा भी पता नहीं लगेगा कि मैं कोई सीधा ही आपको तीर मार रहा हूं! तो बचने का जरा उपाय कम हो जाता है । सभी शिकारी जानते हैं कि थोड़ी आड़ से शिकार ठीक होता है । यह उपनिषद सिर्फ आड़ है, और इससे कुछ लेना देना ज्यादा नहीं है ।
जो मैंने जाना है वही कहूंगा, लेकिन उसमें और उपनिषद में कोई अंतर नहीं है क्योंकि इस उपनिषद के ऋषि ने जो कहा है वह जान कर ही कहा है ।
यह उपनिषद अध्यात्म के सूक्ष्मतम रहस्यों का उदघाटन है । लेकिन अगर मैं उपनिषद पर ही बात करता रहूं तो डर है कि बात बात ही रह जाए । इसलिए चर्चा तो पृष्ठभूमि होगी, इस चर्चा के साथ साथ प्रयोग! जो कहा है, जो इस ऋषि ने देखा है या जो मैं कहता हूं मैंने देखा है, उस तरफ आपके चेहरे को मोड़ने की कोशिश, उस तरफ आपकी भी आखें उठानी, उस तरफ आपकी भी आखें उठाने का प्रयास वही मुख्य होगा । उपनिषद की बात तो सिर्फ हवा पैदा करने के लिए होगी कि आपके चारों तरफ वे तरंगें पैदा हो जाएं कि आप भूल जाएं बीसवीं सदी को, पहुंच जाएं उस लोक में जहा यह ऋषि रहा होगा । मिट जाए यह जगत जो चारों तरफ बहुत बेरौनक और बहुत कुरूप हो गया है, और याद आ जाए उन दिनों की जब यह ऋषि जिंदा रहा होगा । एक हवा, एक वातावरण, बस उसके लिए उपनिषद । पर उतना काफी नहीं है जरूरी है, काफी नहीं है ।
तो जो मैं कहता हूं अगर आप उसको सुन कर ही रुक जाते हैं, तो मैं मानूंगा आपने सुना भी नहीं क्योंकि सुन कर जो चलता नहीं है, मैं नहीं मान सकता कि उसने सुना है । अगर आप सोचते हैं कि सुन कर आपकी समझ में आ गया इतनी जल्दी मत करना । सुन कर समझ में आता होता तो हम कभी के समझ गए होते । सुन कर ही समझ में आता होता तो इस दुनिया में समझदारों की कमी न होती नासमझ खोजना मुश्किल हो जाता । मगर नासमझ ही नासमझ हैं!
सुन कर कुछ भी समझ में नहीं आता । सुन कर सिर्फ शब्दों पर मुट्ठियां बंध जाती हैं । सुन कर नहीं, करके ही समझ में आता है । इसलिए सुनना करने के लिए समझने के लिए नहीं । सुनना करने के लिए करना समझने के लिए । सुन कर ही सीधा मत सोच लेना कि समझ गए । वह बीच की कड़ी के बिना कोई भी उपाय नहीं है, कोई भी रास्ता नहीं है । लेकिन मन कहता है कि समझ गए अब करने की क्या जरूरत!
मंजिलें चल कर पहुंची जाती हैं । सब भी समझ लिया हो, यात्रा पथ पूरा स्मृति में आ गया हो, पूरा नक्शा जेब में हो, फिर भी बिना चले कोई मंजिल तक कभी पहुंचता नहीं है ।
उपनिषद की हम चर्चा करेंगे उपनिषद समझाने के लिए नहीं, उपनिषद बन जाने के लिए । यहा सुन कर कुछ कंठस्थ हो जाए और आप भी बोलने लगें, तो मैंने आपका नुकसान किया मैं फिर आपका मित्र साबित न स्पा । यहा सुन कर आप, जो सुना है वह बोलने लग जाएं तो कोई मूल्य नहीं है । यहां सुन कर आपको भी वह हो जाए आप भी वह देख लें, वह आँख आपकी भी खुल जाए तों ही ।
ऐसा समझें, एक कवि गीत गाता है किसी फूल के संबंध में । गीत में बड़ा माधुर्य हो सकता है, छंद हो सकता है, लय हो सकती है, संगीत हो सकता है । गीत की अपनी खूबी है ।
लेकिन गीत कितना ही गाए उस फूल को, और कितना ही गुनगुनाए तो भी गीत गीत है, फूल नहीं है । और लाख हो गति, और लाख हो छंद, तो भी गीत गीत है, फूल की सुगंध नहीं है । और आप उसी गीत से तृप्त हो जाएं तो आप भटक गए ।
उपनिषद गीत है किसी फूल का, जिसे आपने देखा नहीं अभी । गीत गजब का है, गाने वाले ने देखा है । पर गीत से तृप्त मत हो जाना, गीत फूल नहीं है ।
ऐसा भी हो जाता है कि कभी कभी आप फूल के पास भी पहुंच जाते हैं कभी कभी । कभी कभी फूल की एक झलक भी मिल जाती है अचानक, आकस्मिक! क्योंकि फूल कोई विजातीय नहीं है, आपका स्वभाव है आपके बिलकुल निकट है, किनारे किनारे है । कभी कभी छू जाता है बिना आपके, बावजूद आपके । कभी कभी फूल एक झलक दे जाता है । कोई बिजली कौंध जाती है । किसी क्षण में, आकस्मिक, अनुभव में आ जाता है कुछ और भी है इस जगत में, यही जगत सब कुछ नहीं है । इस पथरीले जगत के बीच कुछ और भी है, जो पत्थर नहीं फूल है जीवंत, खिला हुआ । जैसे किसी स्वप्न में देखा हो या अंधेरी रात में चमकी हो बिजली और कुछ दिखा हो और फिर खो गया हों ऐसा कभी कभी आपके जीवन में भी हो जाता है । कवियों के जीवन में अक्सर हो जाता है । चित्रकारों के जीवन में अक्सर हो जाता है । फूल की झलक बिलकुल पास आ जाती है ।
फिर भी, फूल कितने ही पास हो और कितनी ही झलक मिल गई हो, पास होना भी दूर होना ही है । और कितने ही पास आ जाए फूल, तो भी फासला तो बना ही रहता है । और मैं बिलकुल हाथ से भी छू लूं फूल को, तो भी पक्का नहीं है कि जो अनुभव मुझे होता है वह फूल का है, क्योंकि हाथ खबर लाने वाला है । और हाथ अगर बीच में गलत खबर दे दे, तो कुछ भरोसा नहीं । और हाथ सही ही खबर देगा, इसको मानने का कोई कारण नहीं । फिर हाथ जो खबर देगा, वह फूल के संबंध में कम और हाथ के संबंध में ज्यादा होगी । फूल का मालूम पड़ता है, जरूरी नहीं कि फूल ठंडा हो । हो सकता है हाथ गरम हो, इसलिए फूल ठंडा मालूम पड़ता है । खबर हाथ के संबंध में है क्योंकि खबर जब भी किसी माध्यम से आती है तो सापेक्ष होती है । पक्का नहीं हुआ जा सकता ।
इस उपनिषद में इशारे होंगे उस अस्तित्व के, जो वस्त्रों के पार है । और इस उपनिषद के साथ साथ हम करेंगे ध्यान, ताकि मिले झलक । और आशा बांधेंगे समाधि की, ताकि हम भी हो जाएं वही, जिसे हुए बिना न कोई संतोष है, न कोई शांति है, न कोई सत्य है ।
अनुक्रम |
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1 |
जीवन के द्वार की कुंजी |
1 |
2 |
परमात्मा मझधार है |
15 |
3 |
नेति नेति |
29 |
4 |
अमृत का जगत |
49 |
5 |
वासना का नाश ही मोक्ष है |
65 |
6 |
जीवन एक अवसर है |
81 |
7 |
चैतन्य का दर्पण |
101 |
8 |
वैराग्य का फल ज्ञान है |
121 |
9 |
ब्रह्म की छाया संसार है |
141 |
10 |
सत्य की यात्रा के चार चरण |
159 |
11 |
धर्म मेघ समाधि |
181 |
12 |
वैराग्य आनंद का द्वार है |
203 |
13 |
जीवन्मुक्त है संत |
223 |
14 |
आकाश के समान असंग है जीवन्मुक्त |
241 |
15 |
मेरे का सारा जाल कल्पित है |
257 |
16 |
एक और अद्वैत ब्रह्म |
279 |
17 |
धर्म है परम रहस्य |
299 |