पुस्तक के विषय में
अरुणाचल प्रदेश, जिसे 'नेफा' के नाम से भी जाना जाता रहा है, के इतिहास से भारतीय आज भी पूरी तरह परिचित नहीं हैं। इसका एक कारण इस विषय पर पुस्तकों की कमी भी रहा है। उत्तर में तिब्बत, दक्षिण में असम घाटी, पूर्व में बर्मा और तिब्बत तथा पश्चिम मे भूटान और असम से घिरे इस राज्य के इतिहास को जानना भारत के अन्य राज्यों के लोगों के लिए अत्यधिक रुचिकर और रोमांचक होगा।
सन् 1865 तक केवल तीन अवशेष, कामेंग जिला में भालुकपुग और लोहित जिले में ताम्रेश्वरी मंदिर तथा भीष्मक नगर, ही ज्ञात थे। इन अवशेषों से यह ज्ञात होता था कि यहां रहने वाली जनजातियां राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा अन्य कई प्रकार से अत्यधिक विकसित थीं। आज शिक्षा और ज्ञान के प्रसार में तेजी से हुए विकास ने लोगों को इस दिशा में खोज करने को प्रेरित किया और जैसे-जैसे इतिहास के पन्ने खुलते गार, हमें अपने इतिहास पर गर्व होने लगा। प्रस्तुत पुस्तक में इसी इतिहास की गौरवपूर्ण झलक देखने को मिलती है।
लेखक एल. एन. चक्रवर्ती, अरुणाचल प्रदेश सरकार के अंतर्गत शोध निदेशालय के लंबे समय तक शोध-निदेशक रह चुके हैं। अरुणाचल के इतिहास पर उनकी यह मौलिक पुस्तक है।
अनुवादक, सच्चिदानन्द चतुर्वेदी (1958), हिंदी विभाग, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद में रीडर पद पर कार्यरत है। इनकी एक अन्य पुस्तक 'वैराग्य-एक दार्शनिक एवं तुलनात्मक अध्ययन' प्रकाशित है।
प्राक्कथन
अरुणाचल प्रदेश के आदिकालीन इतिहास की कोई भी पुस्तक अभी तक हिंदी में उपलब्ध नहीं थी। मैं प्राय: सोचा करता थीं कि किसी प्रदेश या देश का इतिहास जितनी अधिक भाषाओं में उपलब्ध होगा, उसके विषय में जानने वालों की संख्या भी उतनी ही अधिक होगी।
अरुणाचल प्रदेश कई मामलों में, भारत की संपूर्ण जनता के लिए एक रहस्य रहा है। इस रहस्य को तिब्बत की समस्या और वर्ष उन्नीस सौ बासठ में हुए भारत-चीन युद्ध ने और अधिक बढ़ा दिया है । जहां तक अरुणाचल प्रदेश के ऐतिहासिक अवशेषों का प्रश्न है तो मैं यह कहूंगा कि एक-एक अवशेष, एक साथ प्रश्नों के पुंज खड़े कर देता है। उत्तर भारत के निवासी जब यह सुनते हैं कि परशुराम कुंड से, उन्हीं भगवान परशुराम का संबंध है जिन्होंने दशरथ सुत लक्ष्मण को धमकाते हुए यह कहा था, मरे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सभार। धनुही सम त्रिपुरारि धनु बिदित सकल संसार।'' या मालिनीथान में हिमालयपुत्री पार्वती रही होंगी या ताम्रेश्वरी मंदिर के परिसर में ब्राह्मणों का आधिपत्य रहा होगा तथा उत्तर भारत से सैकड़ों की संख्या में पूजा-अर्चना के लिए लोग आते रहे होंगे; तब वे अपने भारतवर्ष नामक भूखंड की तत्कालीन एकता पर आश्चर्य किए बिना नहीं रह सकते। हिंदी में इतिहास उपलब्ध हो और लोग अरुणाचल के विषय में अधिकाधिक जानें इसी भावना से प्रेरित होकर, इतिहास की एक पुस्तक का चयन कर, हिंदी में अनुवाद करने को प्रवृत्त हुआ। अच्छा रहेगा यदि मैं इसी स्थान पर एक प्रश्न का खुलासा करता चलूं कि मैंने अनुवाद के लिए श्री एल. एन. चक्रवर्ती की पुस्तक 'ग्लिम्पसेस ऑफ दि अली हिस्ट्री ऑफ अरुणाचल' को ही क्यों चुना? इस संदर्भ में कहना चाहूंगा कि मैंने इतिहास की अन्य पुस्तकों का अवलोकन भी किया था; परंतु अंत में मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि जितने संक्षिप्त और मौलिक रूप में अरुणाचल का आदिकालीन इतिहास उपर्युक्त पुस्तक में उपलब्ध है, वैसा अन्यत्र नहीं है।
अनुवाद का यह कार्य कभी प्रारंभ ही न हो पाता यदि मुझे शोध-निदेशालय, अरुणाचल प्रदेश सरकार से अनुवाद की अनुमति न प्रदान की गई होती। एतदर्थ, मैं अरुणाचल प्रदेश सरकार और विशेष रूप से शोध-निदेशक, अरुणाचल प्रदेश सरकार के प्रति अपनी कृतज्ञता और आभार व्यक्त करता हूं।
अनुवाद कार्य के दौरान स्थानीय जनजातियों और स्थानों के नामों के उच्चारण आदि के संदर्भ में कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है, क्योंकि अंग्रेजी भाषा में या यूं कहें कि रोमन लिपि में स्थानीय नामों को जिस प्रकार लिखा गया था, उन्हें यथावत हिंदी में लिख देने पर अनर्थ की पूरी संभावना थी । यही नहीं; असमी भाषा के प्रभाव के कारण भी उच्चारण के कई स्तर प्राप्त होते हैं। नमूने के तौर पर 'सी' एच को एक साथ मिलाकर पढ़ने पर, कहीं वह 'च' का बोध कराता है और कहीं 'न' का। एक शब्द है 'चुलिकाटा' रोमन-लिपि में लिखने पर इसे 'कलिकाटा, 'चुलिकाटा' और असमी भाषा के प्रभाव से 'सुलिकाटा' पढ़ा जा सकता है। श्री चक्रवर्ती जी ने अंग्रेजी भाषा में लिखी गई अपनी पुस्तक में द्य शब्दों के एक से अधिक उच्चारण उपलब्ध कराए हैं; जैसे 'चारदुआर'। एक स्थान पर इस शब्द को अंग्रेजी वर्ण 'सी एक से शुरू किया है तो दूसरे स्थान पर 'एस' से। इस प्रकार की द्वैधात्मकता का निवारण करने के लिए मैंने अपने स्तर से पूरा प्रयास किया है कि मैं हिंदी में वह उच्चारण उपलब्ध कराऊं जो प्रचलित और मानक हो ।
श्री चक्रवर्ती जी की पुस्तक में कहीं-कहीं पिष्टपेषण प्राप्त होता है। ऐसे स्थलों पर मैंने अनुवादित पुस्तक में पिष्टपेषण से बचने और भाषा के प्रवाह को अबाधित बनाए रखने का पूर्ण प्रयास किया है । पाठक इसे अनुवाद की दुर्बलता न समझें, यही निवेदन है।
इसी प्रकार, मूल पुस्तक में कुछ स्थलों पर दिनांक, वर्ष और अधिकारियों के नामों आदि में भी कुछ त्रुटियां थीं, जिन्हें मैंने अन्य स्रोतों से संपर्क साधकर ठीक कर दिया है।
मेरी प्रस्तुत अनुवादित पुस्तक, अरुणाचल प्रदेश के संदर्भ में, हिंदी में लिखी गइ कोई प्रथम पुस्तक नहीं है । इसलिए मैं किसी भी प्रकार यह दावा करने का दुस्साहस नहीं कर सकता कि अरुणाचल प्रदेश में हिंदी को लेकर मैं किसी नवीन परंपरा का सूत्रपात कर रहा हूं। इससे पूर्व ही, अरुणाचल प्रदेश में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित, हिंदी के विद्वान डा. धर्मराज सिंह की 'आदी का समाज भाषिकी अध्ययन' बग़ैर हिंदी के प्रसिद्ध कवि एवं विद्वान महामहिम राज्यपाल, अरुणाचल प्रदेश श्री माताप्रसाद की अरुणाचल एक मनोरम भूमि जैसी महत्वपूण पुस्तकें प्रकाश में आ चुकी हैं। यदि हिंदी के विद्वान और पाठकगण मेरी इस पुस्तक को, अरुणाचल प्रदेश में चली आ रही हिंदी-परंपरा की एक कड़ी मान लेते हैं, तो अनुवादक अपने को सम्मानित समझेगा।
में कभी इतिहास का विद्यार्थी नहीं रहा हूं इसलिए प्रस्तुत कार्य के समय, ऐतिहासिक तथ्यों के संदर्भ में कुछ शंकाओं का उत्पन्न होना स्वाभाविक था। कोई शंका मेरे मन में रहे तो रहे; परंतु पाठकों को किसी शंका में डालना कम-से-कम अनुवादक के हक में किसी प्रकार अच्छा नहीं होता। मैंने सभी प्रकार की शंकाओं के समाधान के लिए श्री ब्रजनारायण झा, प्रवक्ता-इतिहास, शासकीय महाविद्यालय, बमडीला, अरुणाचल प्रदेश से सहायता ली है। कहना न होगा कि श्री झा जी ने पूर्ण मनोयोग से, अपना बहुमूल्य समय देकर मेरी सहायता की है। मात्र कृतज्ञता ज्ञापित कर मैं उनके ऋण से मुक्त नहीं हो सकता तथापि अपनी भावनाओं के वशीभूत होकर मैं उनके प्रति अपनी कृतज्ञता और आभार व्यक्त करता हूं।
मैंने सुना था कि भाषा पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता; क्योंकि व्यक्ति जितना सीखता जाता है, उतना ही आगे बढ़ने पर उसे मीलों दूर का रास्ता शून्य नजर आता है, और उसे लगता है कि अभी बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। यह कही सुनी बात नहीं वरन् मेरा भी अनुभव यही है। इसीलिए अनुवादित पुस्तक में भाषा संबंधी प्रवाह को देखने के लिए श्री (डा.) भानुप्रताप चौबे, प्रवक्ता-हिंदी, शासकीय महाविद्यालय, बमडीला, अरुणाचल प्रदेश ने मेरी सहायता की है। उन्होंने अनुवादित अंशों को एक समीक्षक की भांति जांचा-परखा है। उनकी इस बहुमूल्य सहायता के बदले में मैं अकिंचन भला क्या दे सकता हूं? सोना लेकर फटकन देना किसी काल में अच्छा नहीं माना गया है तथापि अशिष्ट न कहा जाऊं इसलिए वही कर रहा हूं और उनके प्रति अपनी कृतज्ञता और आभार व्यक्त करता हूं।
प्रस्तुत अनुवादित पुस्तक यदि पाठकों के किसी काम आ सकी तो मैं अपना परिश्रम सार्थक समझूंगा।
विषय-सूची |
||
1 |
प्राक्कथन |
सात |
2 |
कामेंग सीमांत मंडल |
1 |
3 |
सुवानसिरी सीमांत मंडल |
28 |
4 |
सियांग सीमांत मंडल |
36 |
5 |
लोहित सीमांत मंडल |
54 |
6 |
तिरप सीमांत मंडल |
85 |
7 |
अरुणाचल प्रदेश के ऐतिहासिक अवशेष |
98 |
8 |
पोसा का इतिहास |
127 |
9 |
असम के मैदानों पर अरुणाचल के निवासियों के आक्रमण |
140 |
पुस्तक के विषय में
अरुणाचल प्रदेश, जिसे 'नेफा' के नाम से भी जाना जाता रहा है, के इतिहास से भारतीय आज भी पूरी तरह परिचित नहीं हैं। इसका एक कारण इस विषय पर पुस्तकों की कमी भी रहा है। उत्तर में तिब्बत, दक्षिण में असम घाटी, पूर्व में बर्मा और तिब्बत तथा पश्चिम मे भूटान और असम से घिरे इस राज्य के इतिहास को जानना भारत के अन्य राज्यों के लोगों के लिए अत्यधिक रुचिकर और रोमांचक होगा।
सन् 1865 तक केवल तीन अवशेष, कामेंग जिला में भालुकपुग और लोहित जिले में ताम्रेश्वरी मंदिर तथा भीष्मक नगर, ही ज्ञात थे। इन अवशेषों से यह ज्ञात होता था कि यहां रहने वाली जनजातियां राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा अन्य कई प्रकार से अत्यधिक विकसित थीं। आज शिक्षा और ज्ञान के प्रसार में तेजी से हुए विकास ने लोगों को इस दिशा में खोज करने को प्रेरित किया और जैसे-जैसे इतिहास के पन्ने खुलते गार, हमें अपने इतिहास पर गर्व होने लगा। प्रस्तुत पुस्तक में इसी इतिहास की गौरवपूर्ण झलक देखने को मिलती है।
लेखक एल. एन. चक्रवर्ती, अरुणाचल प्रदेश सरकार के अंतर्गत शोध निदेशालय के लंबे समय तक शोध-निदेशक रह चुके हैं। अरुणाचल के इतिहास पर उनकी यह मौलिक पुस्तक है।
अनुवादक, सच्चिदानन्द चतुर्वेदी (1958), हिंदी विभाग, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद में रीडर पद पर कार्यरत है। इनकी एक अन्य पुस्तक 'वैराग्य-एक दार्शनिक एवं तुलनात्मक अध्ययन' प्रकाशित है।
प्राक्कथन
अरुणाचल प्रदेश के आदिकालीन इतिहास की कोई भी पुस्तक अभी तक हिंदी में उपलब्ध नहीं थी। मैं प्राय: सोचा करता थीं कि किसी प्रदेश या देश का इतिहास जितनी अधिक भाषाओं में उपलब्ध होगा, उसके विषय में जानने वालों की संख्या भी उतनी ही अधिक होगी।
अरुणाचल प्रदेश कई मामलों में, भारत की संपूर्ण जनता के लिए एक रहस्य रहा है। इस रहस्य को तिब्बत की समस्या और वर्ष उन्नीस सौ बासठ में हुए भारत-चीन युद्ध ने और अधिक बढ़ा दिया है । जहां तक अरुणाचल प्रदेश के ऐतिहासिक अवशेषों का प्रश्न है तो मैं यह कहूंगा कि एक-एक अवशेष, एक साथ प्रश्नों के पुंज खड़े कर देता है। उत्तर भारत के निवासी जब यह सुनते हैं कि परशुराम कुंड से, उन्हीं भगवान परशुराम का संबंध है जिन्होंने दशरथ सुत लक्ष्मण को धमकाते हुए यह कहा था, मरे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सभार। धनुही सम त्रिपुरारि धनु बिदित सकल संसार।'' या मालिनीथान में हिमालयपुत्री पार्वती रही होंगी या ताम्रेश्वरी मंदिर के परिसर में ब्राह्मणों का आधिपत्य रहा होगा तथा उत्तर भारत से सैकड़ों की संख्या में पूजा-अर्चना के लिए लोग आते रहे होंगे; तब वे अपने भारतवर्ष नामक भूखंड की तत्कालीन एकता पर आश्चर्य किए बिना नहीं रह सकते। हिंदी में इतिहास उपलब्ध हो और लोग अरुणाचल के विषय में अधिकाधिक जानें इसी भावना से प्रेरित होकर, इतिहास की एक पुस्तक का चयन कर, हिंदी में अनुवाद करने को प्रवृत्त हुआ। अच्छा रहेगा यदि मैं इसी स्थान पर एक प्रश्न का खुलासा करता चलूं कि मैंने अनुवाद के लिए श्री एल. एन. चक्रवर्ती की पुस्तक 'ग्लिम्पसेस ऑफ दि अली हिस्ट्री ऑफ अरुणाचल' को ही क्यों चुना? इस संदर्भ में कहना चाहूंगा कि मैंने इतिहास की अन्य पुस्तकों का अवलोकन भी किया था; परंतु अंत में मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि जितने संक्षिप्त और मौलिक रूप में अरुणाचल का आदिकालीन इतिहास उपर्युक्त पुस्तक में उपलब्ध है, वैसा अन्यत्र नहीं है।
अनुवाद का यह कार्य कभी प्रारंभ ही न हो पाता यदि मुझे शोध-निदेशालय, अरुणाचल प्रदेश सरकार से अनुवाद की अनुमति न प्रदान की गई होती। एतदर्थ, मैं अरुणाचल प्रदेश सरकार और विशेष रूप से शोध-निदेशक, अरुणाचल प्रदेश सरकार के प्रति अपनी कृतज्ञता और आभार व्यक्त करता हूं।
अनुवाद कार्य के दौरान स्थानीय जनजातियों और स्थानों के नामों के उच्चारण आदि के संदर्भ में कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है, क्योंकि अंग्रेजी भाषा में या यूं कहें कि रोमन लिपि में स्थानीय नामों को जिस प्रकार लिखा गया था, उन्हें यथावत हिंदी में लिख देने पर अनर्थ की पूरी संभावना थी । यही नहीं; असमी भाषा के प्रभाव के कारण भी उच्चारण के कई स्तर प्राप्त होते हैं। नमूने के तौर पर 'सी' एच को एक साथ मिलाकर पढ़ने पर, कहीं वह 'च' का बोध कराता है और कहीं 'न' का। एक शब्द है 'चुलिकाटा' रोमन-लिपि में लिखने पर इसे 'कलिकाटा, 'चुलिकाटा' और असमी भाषा के प्रभाव से 'सुलिकाटा' पढ़ा जा सकता है। श्री चक्रवर्ती जी ने अंग्रेजी भाषा में लिखी गई अपनी पुस्तक में द्य शब्दों के एक से अधिक उच्चारण उपलब्ध कराए हैं; जैसे 'चारदुआर'। एक स्थान पर इस शब्द को अंग्रेजी वर्ण 'सी एक से शुरू किया है तो दूसरे स्थान पर 'एस' से। इस प्रकार की द्वैधात्मकता का निवारण करने के लिए मैंने अपने स्तर से पूरा प्रयास किया है कि मैं हिंदी में वह उच्चारण उपलब्ध कराऊं जो प्रचलित और मानक हो ।
श्री चक्रवर्ती जी की पुस्तक में कहीं-कहीं पिष्टपेषण प्राप्त होता है। ऐसे स्थलों पर मैंने अनुवादित पुस्तक में पिष्टपेषण से बचने और भाषा के प्रवाह को अबाधित बनाए रखने का पूर्ण प्रयास किया है । पाठक इसे अनुवाद की दुर्बलता न समझें, यही निवेदन है।
इसी प्रकार, मूल पुस्तक में कुछ स्थलों पर दिनांक, वर्ष और अधिकारियों के नामों आदि में भी कुछ त्रुटियां थीं, जिन्हें मैंने अन्य स्रोतों से संपर्क साधकर ठीक कर दिया है।
मेरी प्रस्तुत अनुवादित पुस्तक, अरुणाचल प्रदेश के संदर्भ में, हिंदी में लिखी गइ कोई प्रथम पुस्तक नहीं है । इसलिए मैं किसी भी प्रकार यह दावा करने का दुस्साहस नहीं कर सकता कि अरुणाचल प्रदेश में हिंदी को लेकर मैं किसी नवीन परंपरा का सूत्रपात कर रहा हूं। इससे पूर्व ही, अरुणाचल प्रदेश में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित, हिंदी के विद्वान डा. धर्मराज सिंह की 'आदी का समाज भाषिकी अध्ययन' बग़ैर हिंदी के प्रसिद्ध कवि एवं विद्वान महामहिम राज्यपाल, अरुणाचल प्रदेश श्री माताप्रसाद की अरुणाचल एक मनोरम भूमि जैसी महत्वपूण पुस्तकें प्रकाश में आ चुकी हैं। यदि हिंदी के विद्वान और पाठकगण मेरी इस पुस्तक को, अरुणाचल प्रदेश में चली आ रही हिंदी-परंपरा की एक कड़ी मान लेते हैं, तो अनुवादक अपने को सम्मानित समझेगा।
में कभी इतिहास का विद्यार्थी नहीं रहा हूं इसलिए प्रस्तुत कार्य के समय, ऐतिहासिक तथ्यों के संदर्भ में कुछ शंकाओं का उत्पन्न होना स्वाभाविक था। कोई शंका मेरे मन में रहे तो रहे; परंतु पाठकों को किसी शंका में डालना कम-से-कम अनुवादक के हक में किसी प्रकार अच्छा नहीं होता। मैंने सभी प्रकार की शंकाओं के समाधान के लिए श्री ब्रजनारायण झा, प्रवक्ता-इतिहास, शासकीय महाविद्यालय, बमडीला, अरुणाचल प्रदेश से सहायता ली है। कहना न होगा कि श्री झा जी ने पूर्ण मनोयोग से, अपना बहुमूल्य समय देकर मेरी सहायता की है। मात्र कृतज्ञता ज्ञापित कर मैं उनके ऋण से मुक्त नहीं हो सकता तथापि अपनी भावनाओं के वशीभूत होकर मैं उनके प्रति अपनी कृतज्ञता और आभार व्यक्त करता हूं।
मैंने सुना था कि भाषा पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता; क्योंकि व्यक्ति जितना सीखता जाता है, उतना ही आगे बढ़ने पर उसे मीलों दूर का रास्ता शून्य नजर आता है, और उसे लगता है कि अभी बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। यह कही सुनी बात नहीं वरन् मेरा भी अनुभव यही है। इसीलिए अनुवादित पुस्तक में भाषा संबंधी प्रवाह को देखने के लिए श्री (डा.) भानुप्रताप चौबे, प्रवक्ता-हिंदी, शासकीय महाविद्यालय, बमडीला, अरुणाचल प्रदेश ने मेरी सहायता की है। उन्होंने अनुवादित अंशों को एक समीक्षक की भांति जांचा-परखा है। उनकी इस बहुमूल्य सहायता के बदले में मैं अकिंचन भला क्या दे सकता हूं? सोना लेकर फटकन देना किसी काल में अच्छा नहीं माना गया है तथापि अशिष्ट न कहा जाऊं इसलिए वही कर रहा हूं और उनके प्रति अपनी कृतज्ञता और आभार व्यक्त करता हूं।
प्रस्तुत अनुवादित पुस्तक यदि पाठकों के किसी काम आ सकी तो मैं अपना परिश्रम सार्थक समझूंगा।
विषय-सूची |
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1 |
प्राक्कथन |
सात |
2 |
कामेंग सीमांत मंडल |
1 |
3 |
सुवानसिरी सीमांत मंडल |
28 |
4 |
सियांग सीमांत मंडल |
36 |
5 |
लोहित सीमांत मंडल |
54 |
6 |
तिरप सीमांत मंडल |
85 |
7 |
अरुणाचल प्रदेश के ऐतिहासिक अवशेष |
98 |
8 |
पोसा का इतिहास |
127 |
9 |
असम के मैदानों पर अरुणाचल के निवासियों के आक्रमण |
140 |