भारतीय अस्मिता और दृष्टि (वत्सलनिधि शिविर, सारनाथ, काशी में प्रस्तुत सम्भाषण एवं हस्तक्षेप): Indian Identity and View

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Item Code: NZD053
Author: Krishnadutt Paliwal
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Prakashan
Language: English Text with Hindi Translation
Edition: 2014
ISBN: 978813097881
Pages: 224
Cover: Paperback
Other Details 9.5 inch X 6.5 inch
Weight 320 gm
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Book Description

पुस्तक के बारे में

पश्चिम के हम पर हावी होने के साथ-साथ ही भारतीय मनीढा कम अपने स्वरूप की जिज्ञासा ने विकल कर दिया था। स्वतंत्रता के साथ यह जिज्ञासा कुछ सुप्त सी हो गई थी-मानो इस जिज्ञासा का उद्ददेश्य कवेल देश को स्वतंत्र करना ही था और अब देश के स्वतंत्र हो जाने के बाद इसका कोई प्रयोजन नहीं रहा। पर आज यह जिज्ञासा फिर हमें कचौटने लगी है, क्योंकि इसको न जागने देने का अर्थ यही है कि हम अपनी अलग कोई पहचान ही नहीं रहने दें। पर आज इस जिज्ञासा में एक नया आयाम आ गया है: एक ओर हमारा पश्चिम का और भी गहरी जड़ें पकड़ता हुआ अनुभव और दूसरी ओर पुनर्जागरण के पुराने संस्कार भूला-बिसरे जाते हुए भी हमारी रग को छू जाते हैं।

अज्ञेय (1911-1987) : कुशीनगर (देवरिया) में सन् 1911 में जन्म। पहले बारह वर्ष की शिक्षा पिता (डॉ. हीरानंद शास्त्री) की देख-रेख में घर पर ही हुई। आगे की पढ़ाई मद्रास और लाहौर में। एम. . अंग्रेजी में प्रवेश किंतु तभी देश की आजादी के लिए एक गुप्त क्रांतिकारी संगठन में शामिल हुए। जिसके कारण शिक्षा में बाधा तथा सन् 1930 में बम बनाने के आरोप में गिरफ्तारी। जेल में रहकर 'चिंता' और 'शेखर : एक जीवनी' की रचना। क्रमश: सन् 1936-37 में 'सैनिक','विशाल भारत' का संपादन। सन् 1943 से 1946 तक ब्रिटिश सेना में भर्ती। सन् 1947-1950 तक ऑल इंडिया रेड़ियों में कार्य। सन् 1943 में 'तार सप्तक' का प्रवर्तन और संपादन। क्रमश: दूसरे, तीसरे, चौथे सप्तक का संपादन। 'प्रतीक', 'दिनमान', 'नवभारत टाइम्स', 'वाक्', 'एवरीमैन्स' पत्र-पत्रिकाओं के संपादन से पत्रकारिता में नए प्रतिमानों की सृष्टि।

देश-विदेश की अनेक यात्राएँ। भारतीय सभ्यता की सूक्ष्म पहचान और पकड़। विदेश में भारतीय साहित्य और संस्कृति का अध्यापन। कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित, जिनमें 'भारतीय ज्ञानपीठ' सन् 1979 यूगोस्लविया का अंतर्राष्ट्रीय कविता सम्मान 'गोल्डन रीथ' सन् 1983 भी शामिल। सन् 1980 से वत्सल निधि के संस्थापन और संचालन के माध्यम से साहित्य और संस्कृति के बोध निर्माण में कई नए प्रयोग।

अब तक उन्नीस काव्य-संग्रह, एक गीति-नाटक, छह उपन्यास, छह कहानी-संग्रह, चार यात्रा-संस्मरण, नौ निबंध-संग्रह आदि अनेक कृतियाँ प्रकाशित।

प्रकाशकीय

सस्ता साहित्य मण्डल के अपने कमरे में गांधीजी से संबंधित पुराने लेखकों की पुस्तकें और पांडुलिपियाँ देख रहा था । अचानक मुझे एक पांडुलिपि 'भारतीय अस्मिता की खोज' शीर्षक से मिली । यह पांडुलिपि 'सारनाथ शिविर' में विद्वानों द्वारा व्यक्त विचारों का खजाना थी जिसमें 'भारतीय अस्मिता और दृष्टि' पर विचार किया गया था । इस संकल्प के साथ कि इस विषय पर काशी में चर्चा नहीं होगी तो कहाँ होगी? इस सारनाथ शिविर का आयोजन सही. वात्स्यायन 'अज्ञेय' जी द्वारा प्रवर्तित वत्सल निधि: संवित्ति के अंतर्गत श्रीमती इला डालमिया ने किया था। विषय प्रवर्त्तन सत्र बौद्ध दर्शन के प्रसिद्ध विद्वान श्री रिपोचे जी ने। इस शिविर में पं. विद्यानिवास मिश्र, प्रो. गोविंदचंद्र पांडेय, प्रसिद्ध दार्शनिक प्रो. दयाकृष्ण, प्रसिद्ध दार्शनिक सोमराज गुप्त, सुश्री प्रेमलता जी, प्रो. के.जी. शाह जी, श्री धर्मपाल, डॉ. फ्रांसीन, डॉ. मुकुंद लाठ, श्री श्रीनिवास, श्री निर्मल वर्मा, श्री वत्स, श्री कृष्णननाथ, श्रीकृष्णन् नंदकिशोर आचार्य जैसे प्रख्यात चिंतकों ने विषय पर बारह सत्रों में विचार किया । पांडुलिपि की अंतर्यात्रा करने पर मैने इसमें एक से एक अपूर्व अद्भुत चिंतन पाया । मैं चकित और अवाक् ।

सोच-विचार के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि इस अद्भुत पांडुलिपि को प्रकाशित करना ही चाहिए । यह भी ध्यान में आया कि हो सकता है कि यह पांडुलिपि कभी श्रीमती इला डालमिया ने मेरे गुरुवर प्रो. इन्द्र नाथ चौधुरी, पूर्व सचिव 'सस्ता साहित्य मण्डल', दिल्ली को दी हो । इला जी की बीमारी के कारण यह प्रो. चौधुरी जी के ही पास रह गई हो । 'वत्सल निधि' के सचिव प्रो. इन्द्र नाथ चौधुरी जी ही थे । इस तरह यह पांडुलिपि सस्ता साहित्य मण्डल के कार्यालय तक पहुँचने में सफल रही । इसे माँ सरस्वती की कृपा ही कहिए कि यह पांडुलिपि मुझे मिल गई और मैं इस ज्ञान-राशि की धरोहर को सहृदय समाज को सौंपते हुए असीम प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ । इस सारनाथ शिविर में प्रस्तुत विचार हमारे पाठक समाज में चिंतन की नई दृष्टि पैदा करगे, इस विश्वास के साथ यह आपके हाथों में दे रहा हूँ ।

भूमिका

शिवेतरक्षतये

प्रातःस्मरणीय सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' को एक युग प्रवर्त्तक रचनाकार और चिंतक कहकर छोड़ देना केवल उनके साथ अन्याय करना नहीं है, बल्कि उस समूची परंपरा के साथ अन्याय करना है, क्योंकि वह उस परंपरा- आधुनिकता के एक समग्र, संतुलित और श्रेष्ठ रूप थे । साहित्य के साथ धर्म और दर्शन, इतिहास और पुराण, कला और मिथक, भाषा और लोक सभी क्षेत्रों में उनका ज्ञान और सूझ अद्भुत थी । बहुपठित और बहुश्रुत कैसा हो सकता है, अज्ञेय जी इसके प्रतिमान थे । उनके देशभक्त क्रांतिकारी मन के लगाव को वे ही पाठक जान सकते थे जिन्हें उनके निकट संपर्क में आने का अवसर मिला है । उनके पास अध्ययन और यायावरी के संयोग से तरह-तरह की जानकारियों का ही अकूत भंडार नहीं था, वह सर्जनात्मक-दृष्टि भी थी जिससे पीढ़ियों प्रेरणा पाकर आगे बढ़ती हैं । फिर मर्मज्ञ, वाकृसिद्ध-रससिद्ध केवल जानकारी का संग्रह नहीं करता, लगातार उसका पुन:संस्कार, पुनगठन, पुन:विचार, पुनःपाठ, अंतःपाठ और पुन:संयोजन करता चलता है, जिससे कि संस्कृति-स्मृति के संवेदन में नई दिशाएँ खुलती चलें । इसी मनोभाव के गहन संकल्प को लेकर वह वत्सल निधि न्यास की स्थापना को लेकर आगे बड़े । भारतीय साहित्य की सेवा को समर्पित एक न्यास के रूप में सन् 198० में अज्ञेय जी द्वारा ज्ञानपीठ पुरस्कारकी एक लाख रुपए की राशि में इतनी ही राशि अपनी ओर से जोड़कर वत्सल निधि की स्थापना की गई ।

न्यास-पत्र के संकल्प के अनुसार वत्सल निधिने अपना उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है,'' साहित्य और भाषा की संवर्द्धना; साहित्यकारों विशेषत: युवा लेखकों की सहायता, साहित्यिक अभिव्यक्ति, प्रतिमानों, संस्कारों तथा साहित्य-विवेक और सौंदर्य-बोध का विकास, अन्य सभी आनुषंगिक कार्य।'' इन लक्ष्यों के लिए अपने साधनों की सीमाएँ ध्यान में रखते हुए वत्सल निधि निम्नलिखित कार्यों का आयोजन करेगी व्याख्यान मालाएँ लेखक शिविर, कार्यशालाएँ संगोष्ठियाँ, परिसंवाद, सभाएँ संदर्भ सामग्री और दस्तावेजों का संग्रह, दृश्य-श्रव्य उपकरणों का संग्रह तथा फिल्म, टेप, चित्र, पांडुलिपि आदि का निर्माण, संग्रह संपादन आदि । लेखकों के लिए विनिमय, भ्रमण, सहयोग और सहायता के कार्यक्रम; शोध अथवा लेखनावकाश वृत्तियाँ; पत्रकों और पुस्तिकाओं का प्रकाशन आदि । इस कार्य के लिए अज्ञेय जी ने न्यासधारी मंडल का गठन किया । न्यासधारी मंडल के स्थायी-स्तंभों में डी. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी, डॉ. कर्ण सिंह, श्री विमलप्रसाद जैन और सच्चिदानंद वात्स्यायन । नियतकालीन न्यासधारी मंडल में श्री विद्यानिवास मिश्र, श्री छगनलाल मोहता, श्री भगवतीशरण सिंह और श्रीमती इला डालमिया । ध्यान में रहे कि न्यास के संस्थापक सदस्यों में स्व. राय कृष्णदास उर्फ ' सरकार जी ' भी थे । न्यास ने अपने प्रयत्नों से तीन कार्यक्रम चलाए 1. स्व. राय कृष्णदास व्याख्यान माला, 2. हीरानंद शास्त्री स्मारक व्याख्यान माला और 3. लेखक शिविरों का आयोजन, गोष्ठियों का आयोजन तथा गोष्ठियों में पड़े गए निबंधों और संवादों का पुस्तक रूप में प्रकाशन।

लेखक शिविर का प्रथम आयोजन वत्सल निधि द्वारा लखनऊ में ' आधुनिक संवेदन और संप्रेषण ' विषय पर हुआ । इस लेखक शिविर की परिकल्पना इस रूप में की गई थी कि आधुनिक लेखन कार्य से संबंधित विविध पक्षों पर खुलकर संवाद हो सके । यह भी ध्यान में रहा कि गोष्ठियों के आयोजन इस तरह से हों कि आधुनिक संवेदन और परंपरा के रिश्तों को पहचानते हुए उसके साहित्यिक, सामाजिक, नैतिक और संप्रेषण संदर्भों का विश्लेषण किया जाए। 'परंपरा और अस्मिता' विषय पर बहस का प्रवर्त्तन करते हुए पं. विद्यानिवास मिश्र ने कहा कि लेखक परंपरा से बच नहीं सकता क्योंकि उसका माध्यम भाषा भी उसे परंपरा से प्राप्त होती है । परंपरा एक सतत धारा है जबकि अस्मिता में सत्ता का भाव है । अत: दोनों में एक तनाव पैदा होता है । 'अज्ञेय' की दृष्टि से परंपरा में निरंतर अपने को काटते-छाँटते रहना होता है । पहचान के लिए अपने को काटने-छाँटने की ' आत्म ' परंपरा ही भारतीय परंपरा है । आत्म-छलना की आत्म-वंचना की परंपरा हमारी नहीं है । इस गोष्ठी के अध्यक्ष रमेशचंद्र शाह ने कहा कि आधुनिकता की एक खास पहचान यह है कि उसमें इतिहास की एक तीखी चेतना सदैव रहती है । उसका इतिहास से एक अस्तित्वगत नाता है ।

'आधुनिक संवेदन और सम्प्रेषण' पर हुई गोष्ठियों में दो विशेष उल्लेखनीय रहीं । पहली गोष्ठी में विषय-प्रवर्तन करते हुए रमेशचंद्र शाह ने कहा कि यह समझना बहुत जरूरी है कि साहित्य विज्ञान या किसी अन्य शास्त्र का गरीब बिरादर नहीं है । भारतीय साहित्य में व्यक्तित्व की खोज दिखाई देती है । यह खोज पश्चिम से भिन्न दृष्टि का प्रतिफलन है । आधुनिकता का मतलब ऐतिहासिक स्तर पर समकालीन होना है । इसी विषय पर आयोजित दूसरी गोष्ठी में निर्मल वर्मा ने कहा कि आधुनिकता के कारण भयंकर जन-संहारक विश्वयुद्ध हुए हैं । यह सच है कि आधुनिकता के दौर में कुल श्रेष्ठ कलाकृतियाँ हमें प्राप्त हुई हैं जो समकालीन मनुष्य की पीड़ा-संत्रास-यातना से उपजी हैं लेकिन हमारे हिंदी साहित्य में तो उस यातना का यथेष्ट चित्रण तक नहीं है। उन्होंने प्रश्न उठाया कि भारतीय साहित्य में भारतीय मनुष्य की वेदना और यातना का यथेष्ट चित्रण क्यों नहीं मिलता? पश्चिम अब उत्तर- आधुनिक युग में प्रवेश कर रहा है । हम पश्चिम की आधुनिकता के झूठे बोझ से मुक्ति का अहसास करें तो रचना समय की चुनौती को ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकेंगे । निर्मल वर्मा के विचारों के आधार पर करारी बहस हुई और बहस का समापन करते हुए अज्ञेय जी ने कहा कि हमने अपने पुनर्जागरण को बाहर से नहीं बल्कि एक दूसरी संस्कृति के भीतर से देखा-इसी से बहुत-सी विकृतियाँ आईं । आज हमें इस तरह की बहुत-सी विकृतियों के प्रति सावधान रहना है ।

आधुनिकता और सामाजिक संदर्भ में दो महत्त्वपूर्ण गोष्ठियों का आयोजन किया गया जिनमें क्रमश: रघुवीर सहाय और विजयदेव नारायण साही ने बहस का प्रवर्त्तन किया । रघुवीर सहाय ने प्रश्न उठाया कि क्या वजह है कि इस संशय-संत्रास, कुंठा को ही हम आधुनिकता मानते रहे हैं जबकि किसी भी प्रकार के जड़ हो गए मूल्य या व्यवस्था पर आक्रमण ही आधुनिकता की प्रवृत्ति रही है । आलोचक प्रवर विजयदेव नारायण साही ने कहा कि पश्चिम का आधुनिकतावादी- आदोलन संकीर्ण-दृष्टि का आदोलन था क्योंकि उसका सांस्कृतिक इतिहास-भूगोल सिर्फ यूरोप तक सीमित था जबकि आधुनिकता की दृष्टि तक विश्व-संदर्भ की दृष्टि है । पश्चिम में आधुनिकता की दो संस्कृतियों विकसित हुई हैं-एक, अमेरिकी; दूसरी, रूसी । फिलहाल किसी तीसरी संस्कृति का विकास संभव नहीं दीखता । यही अस्मिता का संकट है । साही जी यह भी मानते थे कि गांधी- अरविंद-लोहिया में इस तीसरी दृष्टि की संभावनाएँ हैं ।

आधुनिक संप्रेषण की परिस्थितियों पर लेखक और उसका समाज विषय पर बहस का प्रवर्त्तन अज्ञेय जी ने किया । उन्होंने कहा कि संप्रेषण प्रक्रिया का रूप श्रव्य से पक हो जाने के कारण लेखक के सामने नई चुनौतियाँ पैदा हुई हैं । प्रश्न है कि क्या आज का लेखक केवल पुस्तक पढ़नेवाले समाज के लिए ही लिखता है? वह उन सब तक कैसे पहुँचे जो निरक्षर हैं और जो अब भी सुनकर साहित्य का आस्वादन कर सकते हैं ई बहस में यह विचार उभरकर सामने आया कि संप्रेषण की यह खाई एक वृहत्तर सांस्कृतिक खाई का ही अंग है । अत: उसकी चिंता है कि लेखक और वृहत्तर समाज की इस खाई को पाटा कैसे जाए?

दो गोष्ठियों में बिना किसी विषय प्रवर्तन के युवतर लेखकों की हिस्सेदारी रही । प्रथम गोष्ठी में 'मेरी रुचि का साहित्य' पर विचार किया गया । दूसरी गोष्ठी में 'नए साहित्य की समस्याएँ' विषय पर युवा लेखकों ने साहित्य की नई समस्याओं पर कई कोणों से बहस की तथा अनुभव किया कि रचनाकार एक छटपटाहट की बेचैनी झेल रहा है । विज्ञान के साथ साहित्य के रिश्ते की खोज के लिए 'विकास प्रक्रिया मानव का वर्तमान और भविष्य पर भूमित्रदेव और आधुनिक जगत् और मानव की अवस्थिति ' पर विपिन कुमार अग्रवाल ने पत्रवाचन किया । अन्य गोष्ठियों में लोक साहित्य पर डॉ. विद्याबिंदु सिंह, नए प्रसार साधनों पर दुर्गावती सिंह, कथा साहित्य पर गिरिराज किशोर, 'आधुनिक संप्रेषण और रंगमंच' पर उमाराव तथा नंदकिशोर आचार्य ने विचार-विमर्श किया । रचनात्मक गद्य पर रमेशचंद्र शाह और पंडित विद्यानिवास मिश्र ने विषय प्रवर्त्तन किया । इस शिविर का निर्देशन अज्ञेय ने किया । प्रमुख सहभागियों में पंडित श्री नारायण चतुर्वेदी, विद्यानिवास मिश्र, निर्मल वर्मा, रघुवीर सहाय, विजयदेव नारायण साही, रमेशचंद्र शाह, विपिन कुमार अग्रवाल. नंदकिशोर आचार्य के साथ गिरिराज किशोर, लीलाधर जगूड़ी, कुँवरनारायण, उमाराव शिवानी, दुर्गावती सिंह, ओम थानवी, संजीव मिश्र आदि अनेक लेखक-पत्रकार सम्मिलित थे । उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता प्रसिद्ध कथाकार अमृतलाल नागर ने की और श्री नारायण चतुर्वेदी ने समापन-सत्र में आशीर्वाद दिया । साक्षरता निकेतन के निदेशक श्री भगवतीशरण सिंह और वत्सल निधि की मंत्री इला डालमिया अपनी व्यस्तताओं के बावजूद हर गोष्ठी में उपस्थित रहीं ।

उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि 'वत्सल निधि के विभिन्न आयोजनों में एक मौलिक योजना घुमंतू शिविरों की भी रही । इनमें कुछ चुने हुए साहित्य सर्जक, साथ में एक चित्रकार अथवा फोटोग्राफर लंबी सहयात्रा में साथ रहा । उद्देश्य रहा एक संयुक्त पुस्तक की रचना-ऐसी पुस्तक जो विभिन्न यात्रावृत्तों का मात्र संकलन न हो, न विभिन्न दृष्टियों से किए गए क्षेत्रीय अध्ययन का संग्रह । बल्कि एक समग्र इकाई हो । पहली यात्रा 'सीयराममयपथ पर' की गई । इस यात्रा का नेतृत्व अज्ञेय ने किया और इस यात्रा पर 'जन जनक जानकी' पुस्तक निकाली गई है ।

'वत्सल निधि का दूसरा लेखक शिविर आबू पर्वत पर राजस्थान प्रौढ़ शिक्षा समिति के सहयोग से हुआ । यह फरवरी के तीसरे सप्ताह में सात दिवसीय शिविर था । इस शिविर में मुख्य विषय रखा गया 'साहित्य और परिवेश' । पूरे सप्ताह इस विषय के विपिन पहलुओं पर अज्ञेय की देख-रेख में विचार-विमर्श हुआ । इस शिविर का उद्घाटन श्रीमती दुर्गा भागवत ने किया । प्रसन्नता व्यक्त करते हुए दुर्गा भागवत ने कहा कि शिविर का आयोजन एक ऐसी निधि द्वारा किया जा रहा है, जिसे एक लेखक ने अपनी ओर से स्थापित किया है और जो किसी भी प्रकार के सरकारी नियंत्रण से मुक्त है । अज्ञेय जी ने कहा कि प्राय: हमी सरकारी हस्तक्षेप को आमंत्रित करते हैं और इस प्रकार साहित्य के सामर्थ्य को कम करते हैं । लगातार स्वाधीन रहने के लिए प्रयत्न करनेवाले व्यक्ति के स्वर ही यह ताकत हो सकती है कि वह सबको स्वाधीन रहने की प्रेरणा दे । अज्ञेय के लिए स्वाधीनता आधार मूल्य है और उनका पूरा जीवन-संघर्ष इसी मूल्य के लिए समर्पित रहा है । इस स्वाधीनता में 'मम' के साथ 'ममेतर' को रखना वह कभी नहीं भूलते । इस शिविर में विचार-विमर्श में गहराई लाने की दृष्टि से उसे कई उपशीर्षकों में बाँट दिया गया था, 'प्राकृतिक परिवेश और साहित्यकार' के रिश्ते पर पत्रवाचन नंदकिशोर आचार्य ने किया । आचार्य जी ने कहा कि मनुष्य स्वयं ही प्रकृति का एक अंश है, अत: साहित्य में प्रकृति के प्रति आकर्षण जीवन मात्र के प्रति तात्त्विक आकर्षण का ही एक रूप है । मूल बात यह कि यह तो साहित्य और कला में ही संभव है कि हम प्रकृति को एक वस्तु या वातावरण की तरह नहीं, एक स्वतंत्र सत्ता और चरित्र के रूप में अनुभव कर सकें । एक अन्य गोष्ठी में इसी विषय पर विचार करते हुए भगवतीशरण सिंह ने कहा प्रकृति के प्रारंभिक अनुपात के बदलने से पर्यावरण में परिवर्तन आते जा रहे हैं । उन्होंने वनस्पतियों के नष्ट होते जाने और प्रकृति पर औद्योगिक परिवेश के आक्रमण की चर्चा की।

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