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मेरे संस्मरण: My Reminiscences by Vishnu Prabhakar

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Item Code: NZA950
Author: Vishnu Prabhakar
Publisher: Rajpal And Sons
Language: Hindi
Edition: 2010
ISBN: 9788170283690
Pages: 152
Cover: Hardcover
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 320 gm
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Book Description
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पुस्तक के विषय में

किसी भी वरिष्ठ साहित्यकार का दूसरे साहित्यकारों के विषय में लिखना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वह उनको समग्र तथा अंतरंग दृष्टि से देख पाने में समर्थ होता है । प्रख्यात साहित्यकार विष्णु प्रभाकर की यह मान्यता कि दुनिया का सब साहित्य एक है-क्योंकि उसके ऊपर तना आसमान एक है, उनकी रचनाओं को एक विशेष गौरव प्रदान करती है । उन्होंने भारत की विविध भाषाओं और दुनिया के अन्य साहित्यकारों के बारे में बहुत कुछ लिखा है जो संस्मरण-साहित्य की निधि बन गया है।

प्रस्तुत पुस्तक में उनके अनेक समकालीन हिन्दी के साहित्यकारों तथा समर्पित साहित्य-सेवियों के अन्तरंग संस्मरण संकलित हैं। निस्संदेह विष्णु जी की कलम से निकले ये संस्मरण रोचक और पठनीय तो हैं ही-साहित्य की निधि भी हैं।

दो शब्द

'बड़ी कठिन है डगर पनघट की'-किसी फिल्मी गीत की यह पंक्ति पिछले दिनों बहुत लोकप्रिय हुई थी । सचमुच पनघट की डगर बहुत कठिन है, लेकिन उससे भी कठिन डगर है उस व्यक्ति के पास पहुँचने की जिसके बारे में आप लिखना चाहते हैं।

हम लिखना उसी व्यक्ति के बारे में चाहेंगे, जिसने किसी--किसी क्षेत्र में चिरस्मरणीय सफलता प्राप्त कर ली हो, जिसमें कुछ विशेष हो । असाधारण व्यक्ति तो वरेण्य होता ही है, लेकिन जो साधारण होकर भी कुछ ऐसा कर जाता है कि हम उसे असाधारण के समकक्ष मानने को विवश हो जाते हैं, मेरी दृष्टि में वह व्यक्ति असाधारण व्यक्ति से ऊँचा उठ जाता है क्योंकि वह कमजोरियों के साथ ऊपर उठा है।

कमजोरी असाधारण व्यक्ति में भी होती है, कमजोरियों से कटकर कोई महान यानी असाधारण नहीं होता। लेकिन साधारणतया, विशेषकर हमारे देश में, यह मान्यता है कि किसी भी व्यक्ति के सम्बन्ध में लिखते समय उसके सकारात्मक पक्ष को ही उजागर करना चाहिए, नकारात्मक पक्ष को नजरअन्दाज कर देना चाहिए।

यहाँ एक प्रश्न और उठता है कि क्या मुझे यह अधिकार प्राप्त है कि अपने वरेण्य व्यक्ति के सम्बन्ध में लिखते समय उसकी कमजोरियों को अवश्य उजागर करूँ?

बड़ी उलझन है और यह उलझन ही उस व्यक्ति के पास पहुँचने की डगर को बेहद विकट बना देती है । मैंने इस संग्रह में जिन व्यक्तियों को लिया है, किसी सोची-समझी योजना के आधार पर नहीं लिया है । इनमें कुछ ऐसे व्यक्ति जिनकी जन्म-शताब्दी या स्वर्ण-जयन्ती के अवसर पर प्रकाशित होने वाले विशेषांकों के लिए मुझसे लिखने का आग्रह किया गया था ।

तब भी मैंने उन्हीं व्यक्तियों के बारे में लिखा जिनके मैं निकट सम्पर्क में आया, जैसे सर्वश्री आचार्य शिवपूजन सहाय, सियारामशरण गुप्त, जैनेन्द्र कुमार, केदारनाथ अग्रवाल आदि । और यह भी कि मैंने इनके अन्तर में पैठकर इनका संस्मरणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है । ये सब मेरे अग्रज हैं, इसलिए मेरे मन में एक आदर का भाव तो रहा ही है, फिर भी मैं उस आदर-भाव से आक्रान्त नहीं हुआ ।

इस संकलन में ऐसे साहित्यकार कैं जिनके देहावसान पर मैंने लिखा, जैसे-प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त', अमृत राय, विजयेन्द्र स्नातक, लक्ष्मीचन्द्र जैन, विमल मित्र और जवाहर चौधरी । इन सबसे मेरे बहुत पुराने और निकट के सम्बन्ध रहे हैं। जिस रूप में मैंने इनको पाया, उसी रूप में प्रस्तुत किया है-बिना गुण-दोषों की स्पष्ट व्याख्या किए। इनमें जवाहर चौधरी वरेण्य साहित्यकार की सूची में भले ही नहीं आते हैं पर उन्होंने लिखा अवश्य है । प्रकाशक होने के अतिरिक्त व्यक्तिगत रूप से वे मेरे ही नहीं, अनेक प्रसिद्ध लेखकों के एक अन्तरंग मित्र के रूप में, निकट सम्पर्क में रहे हैं। उनका व्यक्तित्व साहित्य से रचा-बसा है, इसीलिए उनको इस संग्रह में लिया है।

इनमें विमल मित्र बंगला के प्रसिद्ध लोकप्रिय उपन्यासकार हैं पर, उनकी अपनी मान्यता के अनुसार उन्हें हिन्दी भाषा-भाषियों से जितना प्यार और यश मिला, उतना मातृभाषा बंगला से नहीं मिला। 'आवारा मसीहा' से पूर्व ही मैं उनके सम्पर्क में आ चुका था, उसके बाद हमारे सम्बन्ध और सघन हो गए। इसमें मेरे कलकत्ता प्रवास के अतिथेय श्री गीतेश शर्मा का बहुत बड़ा हाथ है। उन्हें जानने का मुझे भरपूर अवसर मिला । ऐसे ही एक और व्यक्ति इस संग्रह में आए हैं-सरदार गुरुदयाल सिंह। पंजाबी लोक जीवन के मार्मिक चितेरे इस सहज-सरल व्यक्ति के साथ रहने का अवसर मुझे तब मिला था जब भारतीय भाषाओं के कुछ लेखकों ने भारत सरकार के आमन्त्रण पर उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान की यात्रा की थी, यह देखने के लिए कि इन प्रान्तों ने औद्योगिक क्षेत्रों में कितनी और कैसी सफलता प्राप्त की है । उस यात्रा में मैं उनकी स्नेहिल-सादगी और सरलता के साथ-साथ पंजाब के ग्रामीण जीवन में गहरी पैठ से बहुत प्रभावित हुआ । फिर तो हम निरन्तर पास आते रहे । इस संकलन में मैंने उनके उपन्यास के माध्यम से उनको जानने का प्रयत्न किया है । सौभाग्य से वे आज भी हमारे बीच विद्यमान हैं । जो दूसरा व्यक्ति उन्हीं की तरह हमारे बीच में जीवित जागृत है-वह है लोक साहित्य के यायावर देवेन्द्र सत्यार्थी । वह पंजाबी के भी लेखक हैं लेकिन हिन्दी में लोक-साहित्य की खोज करते-करते मैं उनके पास कैसे जा पहुँचा, यह इस संग्रह में संकलित लेख को पढने से ही जाना जा सकता है। उनकी प्रतिभा का मैं लोहा मानता हूँ। उनको पास से देखने का बहुत समय मिला है मुझे। बहुत लिख सकता हूँ उनके और उनके साहित्य के बारे में।

बंगाल और पंजाब के अतिरिक्त तेलुगु और मलयालम भाषा-भाषी दो और लेखक इस संग्रह में आए हैं। वे हैं-श्री बालशौरि रेड्डी और श्री पी. जी. वासुदेव। इनमें बालशौरि रेड्डी से मेरी बहुत पुरानी पहचान है और मैं उन्हें हिन्दीतर भाषा-भाषी हिन्दी लेखक नहीं मानता, बल्कि हिन्दी का ही एक सशक्त लेखक मानता हूँ । प्रस्तुत लेख मैंने उनके जन्मदिन पर प्रकाशित एक विशेषांक के लिए लिखा था । मलयालम के श्री पी. जी. वासुदेव उस दृष्टि से बहुत बड़े लेखक नहीं थे लेकिन उन्होंने अपना जीवन हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया था । उन्होंने हिन्दी लेखकों की कृतियों का मलयालम भाषा में अनुवाद करके दोनों भाषाओं के बोलने वालों को पास लाने का सफल प्रयत्न किया और जीवन-भर करते रहे । इनके अतिरिक्त इसमें दो व्यक्ति ऐसे हैं जो राष्ट्रीयता की दृष्टि से विदेशी हैं पर भारत के प्रति उनकी ममता का पार नहीं । रूस के विश्वप्रसिद्ध सर्जक 'महान तालस्ताय' का तो नाम ही उनका परिचय है । वह मेरे जन्म के दस-ग्यारह वर्ष पूर्व ही भौतिक रूप से इस संसार से विदा हो चुके थे, पर मैं दो बार उनके गॉव यास्नाया-पोलियाना हो आया हूँ और वहाँ मैंने उनकी उपस्थिति को हर कहीं महसूस किया । उनकी बातों को सुना । उनको घूमते देखा, खाते-पीते, हँसते, क्रोध करते देखा । काफी लिखा है उन अनुभवों के बारे में, पर इस संग्रह में जो लेख मैंने लिया है, वह उनके और गाँधीजी के बीच सम्बन्धों को लेकर है । गाँधीजी उन्हें अपना गुरु मानते थे-क्यों और कैसे, यही इस लेख का केन्द्रबिन्दु है । अपने ढलते जीवन के रचना संसार में तालस्ताय भारतीय संस्कृति के वहुत पास हैं । इस संग्रह में संकलित अन्तिम व्यक्ति का नाम है-डॉ. मिल्तनेर, वे चैक गणतन्त्र के हिन्दी प्रेमियों में 'एक' नहीं थे, बल्कि उनके अन्तर में भारत के प्रति अद्भुत आकर्षण था । उन्होंने हिन्दी का अध्ययन करते समय स्पष्ट शब्दों में कहा था- ''मेरी मृत्यु भारत में होगी । मैं उसी मिट्टी से एकाकार हो जाऊँगा।'' -और ऐसा ही हुआ भी । मैं कैसे उनके सम्पर्क में आया, कितनी सुन्दर हिन्दी लिखते थे वे, यह सब इस संग्रह के लेख में दिखाया है मैने । वह कैसे चुपचाप भारत आए और कैसे यहाँ घूमते हुए मथुरा के पास एक गाँव में उनकी मृत्यु हो गई, यह जानना अत्यन्त रोमांचक है! अपनी भविष्यवाणी को उन्होंने स्वयं ही सत्य सिद्ध कर दिया । यह भारत और भारतीय संस्कृति के प्रति उनके अनन्य प्रेम का प्रमाण है।

संक्षेप में यह कहानी है इस संग्रह के अस्तित्व में आने की । इसकी गुणवत्ता के सम्बन्ध में कुछ कहने का अधिकार तो उनका है जौ इसे पढ़ेंगे । मैंने तो अपने पात्रों के अन्तर में झाँकते हुए जैसा उन्हें पाया, वैसा चित्रित किया है । मेरी सीमाएँ हैं । मुझे आशा है, उन सीमाओं के भीतर ही मेरे पाठक इस संग्रह को स्वीकार करेंगे ।

मैं कृतज्ञ हूँ उन सबका जो इस संग्रह के अस्तित्व में आने में और उसे आप सब तक पहुँचाने में सहायक बने ।

और अन्त में इस संग्रह में आए उन सब साहित्यकारों से, जो पार्थिव रूप में अब हमारे बीच में नहीं हैं, यही कहना चाहूँगा, यही कहना चाहा है मैंने इस पुस्तक में भी कि-

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो:

न जाने किस गली में जिन्दगी की शाम हो जाए।

 

विषय-सूची

1

आचार्य शिवपूजन सहाय

7

2

सियारामशरण गुप्त

13

3

जैनेन्द्र कुमार

25

4

कहे केदार खरी-खरी

40

5

देवेन्द्र सत्यार्थी

51

6

प्रफुलचन्द्र ओझा 'मुक्त'

68

7

अमृतराय

77

8

डॉ. विजयेन्द्र स्नातक

85

9

डॉ. रामदरश मिश्र

93

10

लक्ष्मीचन्द्र जैन

101

11

विमल मित्र

104

12

बालशौरि रेड्डी

115

13

पी.जी. वासुदेव

121

14

गुरुदयाल सिंह

125

15

गाँधी के तोलस्तोय

131

16

डॉ. मिल्तनेर

139

**Sample Pages**













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